बाह्याचार और मृत्यु का शोक
प्रश्न – प्रेम को बाह्याचार की आवश्यकता है क्या ॽ मेरा प्रश्न भक्ति की दृष्टि से है ।
उत्तर – प्रेम को प्रकट करने के लिए प्रायः बाह्याचार की आवश्यकता होती है । भक्त या उपासक प्रभु के प्रति प्यार है, उसे प्रकाशित करने बाह्याचार का आधार लेता है जैसे कि पूजा-अर्चना, आरती, शृंगार, कीर्तन आदि । जहाँ प्यार है वहाँ बाह्याचार होना ही चाहिए यह नियम नहीं है । प्रेम की सफलता ईश्वर-दर्शन या ईश्वर-साक्षात्कार में है । अतएव प्रेमी या भक्तजन का ध्यान प्रेम द्वारा प्रभुदर्शन करने की ओर होना चाहिए ।
पूजा की बाह्य विधियाँ प्रभुप्रेम को घनीष्ट बनाने का साधन है यह बात कभी भूलनी नहीं चाहिए । इसे भुलने में साधक का श्रेय नहीं है । जब वह ईश्वर के लिए परम प्रेम जगाकर प्रभु-प्राप्ति करने का ध्येय भूल जाता है तब वह मूर्ति को कैसा शृंगार करना, कैसे विविध भोग अर्पण करना और कैसी पूजा करना – ऐसे राजसी विचारों में डूब जाता है । पूजा की बाह्य विधि के द्वारा मनुष्य को प्रेम का उदय करना है । यह प्रेम जब जागृत होगा तब कैसी अवस्था होगी यह आप जानते हैं ॽ प्रभु को प्रत्यक्ष निरखने के बिना आप बेचैन हो जाएँगे और प्रभु को मिलने आपका प्राण तड़पेगा । आपका मन आतुर बनेगा । उनके विरह में आँखों से अश्रु बहेंगे । लहू में प्रभु-प्रभु की धडकन होगी और दिल की धडकनों के साथ ही प्रभु-प्राप्ति की लगन लगेगी । नैंनो में, वाणी में, बर्ताव में सर्वत्र प्रभु की आसक्ति का परिचय प्राप्त होगा और प्रभु की प्रीति प्रतिक्षण प्रभुदर्शन के लिए व्याकुल बना देगी । इस वक्त बाह्याचार एवं पूजा की बाह्यविधि शुष्क पत्ते की तरह झड जायेगी । फिर आप फूल कैसे तोडेंगे ॽ फूल तोडने जाएँगे वहाँ मालूम पडेगी कि प्रभु के विराट शरीर पर आभुषण बनके लगा हुआ ही है, फिर उसे क्यों तोडा जाए ॽ रात-दिन निरंतर आह और आँसु के फूल लेकर गोपी एवं मीरां की भाँति आप प्रभु की पूजा-अर्चना करेंगे । बिन प्रभु के तनहाइ का अनुभव करते हुए जीवन व्यतीत करेंगे । तत् पश्चात् आप ईश्वर-दर्शन से लाभान्वित होंगे । बाह्यविधि एवं बाह्याचार उसी उद्देश्य के लिए है, यह मत भूलना । नवधा भक्ति या बाह्य क्रियाएँ सिर्फ साधन हैं और प्रभु ही एक साध्य है इसे याद रखने में साधक का श्रेय समाया हुआ है ऐसा समझिये और उसे न भूलें ।
प्रश्न – मृत व्यक्ति के पीछे रोने-कुटने का रिवाज है, इसमें आप मानते हैं ॽ
उत्तर – बिलकुल नहीं । जिसे प्यार है वह तो अपने हृदय के भीतर रोएगा किन्तु सामुहिक रूप से रोना-धोना अच्छा नहीं है । इस प्रथा का अन्त करना चाहिए और इसके बजाय धीरज धारण करके मनमें या प्रकट रूप से प्रभु का नामस्मरण या संकीर्तन करना चाहिए ।
रोना-कुटना किसके लिए है ॽ मनुष्य जब अकेला रह जाए तो उसे अपने लिए ही रोना-कुटना है । ईश्वर की प्राप्ति के लिए ही अपना जीवन या जन्म है । उस ईश्वर से वह कोसों दूर रहा है । जगत में मृत्यु, बुढापा, रोग जैसे दिलको हिला देनेवाले नज़ारे देखता है फिर भी जीवन की निस्सारता समझकर धर्म, नीति या आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त नहीं होता बल्कि अधिक से अधिक कुटिल, अनीतिमान एवं जड हो जाता है । इन्द्रिय सुख को ही सबकुछ समझकर सुखसागर जैसे परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आतुर नहीं बनता । खाना-पीना भागोपभोग करना और एक दिन संसार से सहसा बिदा हो जाना । बिना इसके उनके पास आत्मविकास का कोई आदर्श नहीं है । उनको अपने दोष मिटाने के लिए ईश्वर को प्रार्थना करना है । अगर रोना-धोना है तो अपने लिए ही, दूसरों को दिखाने के लिए नहीं । ऐसा करने से यम के दूत अपने फर्ज से विमुख नहीं होनेवाले । मृत व्यक्ति को दूसरा कोई फायदा नहीं है । रोने-कुटने से कतिपय महिलाओं को वक्षस्थल के रोग भी होते हैं । इस बुरी प्रथा को नष्ट कर देना चाहिए इसीमें समझदारी है । इसके बजाय मृत रिश्तेदार को दिलासा देने के लिए एकत्र होने की, समूह में हरिस्मरण करने की और गीता या सदग्रंथो का पठन-पाठन करने की प्रणाली शुरु करनी चाहिए । मृत्यु द्वारा सबक लेने की प्रथा प्रारंभ करनी चाहिए ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)