हिमालय का पुराण प्रसिद्ध उत्तराखंड का प्रदेश और उसमें स्थित बदरीनाथ का वह पावन प्रदेश । जिसने उस प्रदेश को देखा है वह जानता है कि वह प्रदेश कितना शांत, रमणीय, प्रेरक, आहलादक और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है ।
महर्षि व्यास, नारद और अन्य अनेक समर्थ संत-महात्मा की साधना से गौरवान्वित वह प्रदेश अलौकिक आध्यात्मिक परमाणुओं से परिपूर्ण है । उसका वायुमंडल ही निराला है और आज भी वह प्रदेश उतना ही रम्य एवं सजीव लगता है ।
एक ओर नर पर्वत और दूसरी ओर नारायण पर्वत । दोनों के बीच स्थित बदरीनाथपुरी इतनी रमणीय लगती है कि पूछिये मत । उस पुण्यप्रदेश में अलकनंदा नदी बहती है । उसका पानी इतना ठंडा है कि उंगली से उसका स्पर्श भी न कर सके । लेकिन कुदरत की कला तो देखिये । उसी नदी के किनारे पर उबलते हुए गर्म पानी के पाँच कुंड है ।
उसी अलकनंदा नदी पर, कुंड के सामने कुछ कुटिरें है जिन्हें काली कामलीवाला की संस्था की ओर से निर्मित किया गया है । इतनी दूर आये हुए यात्री को संतो के दर्शन करने की इच्छा हो ही जाती है । इसी इच्छा से प्रेरित होकर वे उन कुटिरों की मुलाकात लेते हैं, संतो से समागम करते हैं और सदभाग्य से यदि कोई अच्छे संत मिल जाते हैं तो अपनी यात्रा को सफल समझते हुए उनके सत्संग का लाभ उठाते है ।
बरसों पहले जब हमने बदरीनाथ की यात्रा की थी उस वक्त संतसमागम की कामना से प्रेरित होकर उन कुटिरों की मुलाकात ली थी । उस समय वहाँ रहनेवाले में से कोई भी उच्च कोटि का न लगा परंतु एक संत अपवाद स्वरूप दिखाई दिये जिन्होंने हमारा ध्यान बरबस खींच लिया ।
छोटी सी कुटिया में जब हम प्रवेशित हुए तो वे शांति से बैठे थे । उन्होंने सस्मित हमारा स्वागत किया और हम उनके निकट बैठ गए । संतपुरुष सीधे-सादे थे । उनकी उम्र करीब चालीस साल थी । उनकी कुटिर में न तो कोई चित्र था न मूर्ति किंतु उनके सामने जो चीज़ पडी थी उसने हमारा ध्यान आकर्षित किया ।
एक छोटी-सी मेज पर एक रुमाल था जिस पर एक बोतल और एक डिबिया थी और उसके आगे एक अगरबत्ती जल रही थी ।
हमने जब उस चीज का अर्थ पूछा तो उन्होंने शांति से उत्तर दिया, ‘यह बोतल और डिबिया हमेशा मेरे साथ रहते है और मेरे गुरू का काम करते है । दत्तात्रेयने जिस तरह चौबीस गुरु किये थे उसी तरह ये वस्तुएँ भी मेरे गुरु के समान है । अतःएव मैं मेरे पास रखता हूँ और उनकी पूजा करता हूँ । ये मुझे सदैव प्रेरणा देती है और मुझे हमेशा जाग्रत रखती है ।’
हमने पूछा, ‘कैसे ?’
‘बोतल में गंगाजल है । वह मुझे हमेशा याद दिलाता है कि जीवन को भी वैसा ही निर्मल व पारदर्शक बनाना चाहिए । उसमें बुरे विचार, भाव या कुकर्मो की गंदकी नहीं रहनी चाहिए । और इस डिबियाँ के पीछे भी एक इतिहास है । सुनेंगे आप ? इसमें भस्म है वह भस्म मेरी पत्नी की है । उसकी मृत्यु के बाद स्मशान में से ही भस्म लेकर मैंने संसार त्याग किया । यह भस्म मुझे हमेशा जाग्रत रखती है और उसकी सहायता से मैं ईश्वरपरायण रह सकता हूँ । यह मुझे संदेश देती है कि संसार में जो कुछ भी है यह सब क्षणभंगुर है और विनाशशील है । केवल ईश्वर ही सत्य है, चिरंतर है, सुखस्वरूप है और उसको पहचानने से ही शांति मिल सकती है । इस तरह गंगाजल और भस्म मुझे प्रेरणा प्रदान करते है । इसलिए इन दोनों को जहाँ भी जाता हूँ वहाँ मेरे आगे रखता हूँ और पूजता हूँ ।’
हमें उन महापुरुष के लिए आदर पैदा हुआ । मनुष्य यदि सीखना चाहे तो किससे और क्या नहीं सीख सकता ? समस्त संसार उसके लिए एक विशाल विद्यालय बन जाता है । हमें इस बात की प्रतीति हुई ।
- श्री योगेश्वरजी