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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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संस्कृति के उषःकाल से ही मनुष्य को यह समस्या सताती होगी कि मृत्यु के बाद जीवन का अस्तित्व होता है ? लेकिन अब तो इस समस्या का हल हो गया है । चिंतन व मननशील मनीषियों ने यह ढूँढ निकाला है कि मृत्यु के बाद भी जीवन रहता है । गीता के उस प्रसिद्ध श्लोक में कहा गया है - ‘जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्याग कर नवीन वस्त्र धारण करते हैं उसी तरह जीवात्मा जीर्ण शरीर का त्याग कर नये शरीर में प्रवेश करती है।’

मृत्यु पश्चात जीवन में विश्वास करने के लिए तीन कारण हैं १) कर्म का नियम २) जीवन ध्येय और ३) प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुभव ।

जगत के प्रायः सभी सुसंस्कृत धर्म कर्म के नियम में मानते है । शुभ कर्मों का शुभ और अशुभ कर्मों का अशुभ फल अवश्य मिलता है । कर्म का फल भुगतना ही पडता है । यह नियम प्रायः सर्वसंमत जैसा है और उसमें हिन्दू धर्म, जरथुस्त धर्म, ईसाई, इस्लाम व बौद्ध धर्म भी मानता है । इस नियम में आस्था रखनेवाला जानता ही है कि शुभाशुभ सभी कर्मों का फल एक ही जन्म या एक ही जीवन में नहीं मिलता । तो फिर जो कर्मफल शेष रहता है उसको भुगतने से पूर्व यदि वर्तमान शरीर छूट जाय या समाप्त हो जाय तो उसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि जीवन का अंत हुआ । उन कर्मफलों के उपभोग के लिए दूसरा शरीर या जीवन धारण करना अनिवार्य है और उसे तब तक धारण करना पडता है जब तक कि उन शुभाशुभ कर्मफलों के उपभोग की समाप्ति न हो जाये ।

उसी तरह कर्म-नियम में माननेवालों को जन्मांतर में पुनर्जन्म में अथवा जीवन की परंपरा या पुनरावृत्ति में अवश्य मानना पडता है । पुनर्जन्म में विश्वास पैदा करनेवाला दूसरा महत्वपूर्ण कारण जीवन-ध्येय है । क्या यह जीवन बिलकुल निरर्थक या ध्येयरहित हो सकता है ? नहीं ।

न्यूटन ने देखा कि वृक्ष पर से जो फल गिरता है वह उपर की दिशा में नहीं पर नीचे की दिशा में गतिशील होता है । इससे न्यूटन ने गुरूत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज निकाला ।

फल पृथ्वी पर गिरता है और उसीसे आकर्षित होता है क्योंकि उसकी मूल जननी पृथ्वी है । वह पृथ्वी से पैदा हुआ है । इसी तरह गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतनुसार जीव सदैव अपने मुलभूत शिवतत्व में प्रतिष्ठित होने या मिल जाने की तमन्ना रखता है और इसी हेतु प्रवृत्ति एवं प्रगति करता है ।

जीवन द्वारा सच्चिदानंद स्वरूप के स्वानुभव की एवं उसमें प्रतिष्ठित होने या मिल जाने की प्रवृत्ति चालू ही रहती है और जब तक उसकी पूर्णाहूति न हो वहाँ तक जीवन की भी समाप्ति नहीं होती । इस तरह सोचने से जीवन की पुनरावृत्ति का विश्वास सहज ही होता है ।

तीसरी बात प्रत्यक्ष प्रमाण की है । भारत में प्राचीन और अर्वाचीन काल में ऐसे समर्थ नर-नारी हुए हैं जिन्होंने साधनामय जीवन बिताकर अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान प्राप्त किया है और दूसरों के पूर्वजन्मों पर भी प्रकाश डाला है । उदाहरणार्थ नारदजी, जडभरत, भगवान बुद्ध, भगवान कृष्ण और महावीर स्वामी । आधुनिक काल में भी भारत या भारत के बाहर अपने पूर्वजन्म की स्मृतिवाले कुछ पुरुष पैदा होते है ।
उनके कथनानुसार उनके पूर्वजन्म की घटनाओं की परख या समीक्षा की जाती है और वे सच्ची साबित होती है । ये पुरुष आत्मिक विकास की दृष्टि से बिलकुल मामूली जान पडते है फिर भी पूर्वजन्म के ज्ञान से संपन्न होते है । उनके संसर्ग में आनेवाले दंग रह जाते है । उनकी पूर्वजन्म की स्मृति सच्ची होती है यह बात सिद्ध हो चुकी है ।

ईसाई व इस्लाम धर्म ‘डे ओफ जजमेन्ट’ और ‘कयामत का दिन’ में विश्वास रखता है । तदनुसार मौत के बाद कब्र में सोये हुए जीवों को ईश्वर एक निर्धारित दिन को जगाता है और उनके कर्मों का हिसाब सुनाता है ।

परंतु प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या ईश्वर सब हिसाब सुनाकर बैठा ही रहता है या इससे आगे बढकर सब जीवों को कर्मों का शुभाशुभ फल भुगतने बाध्य करता है ? अगर खुदा इस तरह बाध्य करता हो (करता ही है) तो कर्मफल के उपभोग के लिये शरीर आवश्यक ही है ।

ईश्वर कब्र में सोये हुओं को उनके कर्मों का हिसाब सुनाने के लिए जगाता है इस मान्यता में पूर्वजन्म का सिध्धांत समाविष्ट है किन्तु हिन्दु धर्म ने उस सिद्धांत को अधिक वास्तविक व विशद रूप दिया है । इस दृष्टि से देखा जाय तो हिन्दू धर्म के आगे वे धर्म बडे साधारण और पीछड़े हुए जान पडते हैं । हिन्दू धर्म ने अपने सुंदर सदग्रंथो के द्वारा पूर्वजन्म-पुनर्जन्म के सिद्धांतो का अत्यंत मनोहारी सुंदर एवं तर्कबद्ध रूप से प्रतिपादन किया है । इस संबंध में इतना निर्देश काफी है ।

फिर भी ऐसा कोई निश्चित नियम मुकर्रर नहीं किया जा सकता कि मरने के बाद हर हालात में तुरंत ही दूसरे स्थूल शरीर की प्राप्ति हो जाये । हाँ, मृत्यु के बाद जीवात्मा कभी कभी फौरन दूसरे शरीर में प्रवेशित होती है तो कभी अधूरी या अतृप्त उम्मीदों या वासनाओं के उपभोग के लिए आवश्यक सूक्ष्म शरीर धारण करके उसमें साँस लेती है । उसे लिंग शरीर भी कहा जाता है । इस प्रकार की व्यवस्था करने की शक्ति या स्वतंत्रता उसमें नहीं होती । यह व्यवस्था तो परमात्मा की जन्म-मरण का प्रबंध करनेवाली परम शक्ति ही करती है । सूक्ष्म शरीर में खंड समय के लिए साँस लेनेवाले जीव भले व बूरे अथवा तो साधारण व असाधारण दोनों प्रकार के होते है । कभी उनका आश्चर्यान्वित अनुभव या परिचय भी हो जाता है । ऐसे ही एक सूक्ष्म शरीरधारी साधारण जीवात्मा का परिचय मुझे हुआ था । यह प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा जिससे बात अधिक स्पष्ट हो जायेगी ।

यह घटना आज से सात साल पहले की है । एक बार जाडे के मौसम में मैं वालकेश्वर स्थित सेनेटोरियम में रहने गया । वह स्थान बडा ही शांत, स्वच्छ व सुंदर था अतः मुझे पसंद आ गया । उसी रात मैं जब अपने कमरे में खाट पे बैठ के प्रार्थना कर रहा था कि एक औरत की अनजानी आकृति मेरे सामने आ खडी हुई ।

खिड़की से बाहर के रास्ते पर की बत्ती का साधारण प्रकाश आ रहा था, इससे कमरे में थोडा-सा उजाला था । उसे उजाले में मैं उसको देख सका । उस स्त्री की उम्र करीब ३०-३५ साल की होगी । उसकी मुखाकृति शांत, आकर्षक और गोरी थी । उसने गुलाबी रंग की सुंदर साडी पहनी थी । वह एकटक मुझे देख रही थी । मुझे हुआ, यह अजीब सी व्यक्ति कौन है ?

आज से पहले मैंने ऐसी कई आकृतियाँ देखी थी इसलिए अचरज न हुआ परंतु उसकी अप्रत्याशित उपस्थिति से एक अजीब-सी, असाधारण भावना उत्पन्न हुई ।

वह औरत अपना हाथ उँचा करके मेरे खाट की ओर इंगित करते हुए मृदु व मीठे स्वर में कहने लगी, ‘आप जिस खाट पर बैठे है वह मेरी खाट है । आज से दो साल पहले इसी खाट पर प्रसुति में मेरी मृत्यु हुई थी !’

‘अच्छा ?’ मैंने उत्तर दिया ।

‘हाँ, आपको नहीं मालूम मगर मुझे यह खाट बहुत प्यारी थी और यह कमरा भी । इस सामनेवाले आईने में मैं अपना मुख देखा करती । मेरी मौत बडी दुर्भाग्यपूर्ण रीते से हुई थी । तब से मैं यहाँ ही रहती हूँ और घूमती हूँ ।’

उस औरत की बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ । मैंने पूछा, ‘तुम यहाँ रहकर क्या करती हो ?’

‘यहाँ जो भी रहने आता है उसे बीमार कर देती हूँ ।’ फिर धीरे-से बोली, ‘अच्छे बूरे की चर्चा में नहीं पडूँगी पर इससे मुझे एक प्रकार का गहरा संतोष मिलता है ।’

‘संतोष ? किसीको बीमार करने में संतोष ? यह तो बडी विचित्र बात है ।’

‘फिर भी यह हकीकत है । एक बात कहना चाहूँगी कि विश्वास रखिये, मैं दूसरों को बीमार करूँगी मगर आपको नहीं ।’

उस औरत के शब्दों में एक प्रकार की घनीभूत करुणता थी । वह अभी मेरे पास ही खडी थी । मेरे लिए यह अनुभव अत्यंत विलक्षण था । मैंने कुतूहलवश एक प्रश्न पूछा, ‘ऐसा जीवन क्या आपको पसंद है ?’

‘प्रारंभ में पसंद नहीं था परंतु ज्यों ज्यों वक्त बीतता गया त्यों त्यों ऐसे जीवन से मैं अभ्यस्त हो गई और अब तो मुझे यही पसंद है ।’
 
‘इस योनि में आने के बाद तुमको कोई विशेष शक्ति हासिल हुई है क्या ?’

‘ऐसी कोई उल्लेखनीय शक्ति तो नहीं मिली फिर भी हमारे शरीर में पृथ्वी तत्व न होने से हम हमारी शक्ति की सीमा में रहकर अभिष्ट गति कर सकते है । दूर की वस्तुओं को एवं घटनाओं को देख सकते हैं और दूसरे अदभूत कार्य कर सकते हैं । इस योनि में पूर्ण शांति भले ही नहीं है पर थोडा बहुत आनंद अवश्य है ।’

उसने फिर कहा, ‘आप इस सेनेटोरियम में आनेवाले थे यह खबर मुझे थी । आप आए यह भी मालूम था इसलिए तो यह अमूल्य अवसर जानकर आपके दर्शन को आ पहूँची और अब मैं आपसे बिदा लेती हूँ ।’ यह कहकर वह औरत आसपास के वातावरण में घुलमिल कर अदृश्य हो गई । इसके बाद वह फिर कभी दिखाई न दी ।

बाद में जाँच करने पर पता चला कि दो साल पहले इसी कमरे में इसी खाट पर उस स्त्री की मृत्यु प्रसुति की पीडा से हुई थी । दूसरी आश्चर्यजनक बात यह थी कि मेरे साथे सेनेटोरियम के उस ब्लोक में रहनेवाले सभी स्त्रीपुरुष बारी-बारी से बीमार हुए थे ।

मृत्यु के पश्चात दूसरे जीवन के ऐसे अनुभव बहुतों को होता है । कुछेक को उन अनुभवों से आनंद होता है तो कतिपय ऐसे सुक्ष्म देहधारी सामान्य जीवों के साथ संबंध बांधने में गौरव का अनुभव करते हैं । ऐसे मनुष्यों को एक बात याद रखने योग्य है कि यदि ऐसी शक्ति हो तो उसका उपयोग ऐसे मलिन, हल्के, साधारण जीवों से संबंध जोडने में करने के बजाय उत्तम कोटि के दिव्य आत्माओं, संतो एवं परमात्मा के साथ संबंध जोडने के हेतु किया जाय तो वही उनके लिए सब भाँति हितकर सिद्ध होगा । जिन्दगी का सच्चा कल्याण इसीमें निहित है । यह कथन गलत नहीं है कि मनुष्य जैसा संकल्प करता है, जैसी योजनाएँ बनाता है, जैसा पुरुषार्थ करता है, वैसा ही बनता है ।

- श्री योगेश्वरजी

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