देवप्रयाग हिमालय का पवित्र स्थल है । बदरी-केदार की यात्रा करनेवालों को इसका परिचय होगा ही । बरसों पहले जब मैं एकांतवास करता था, तब वहीं रहता था । एक दिन जब मैं आश्रम में बैठा था कि एक दाढीधारी, भव्य मुखमुद्रावाले साधु मेरे निकट आ पहूँचा ।
मैंने उनका स्वागत करते हुए पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘मेरा नाम यज्ञदेव । मैं अयोध्या के एक मठ का महंत हूँ ।’
‘आप देवप्रयाग रहने आये हैं ?’
‘नहीं, मैं तो बदरीनाथ की यात्रा करने निकला हूँ । यहाँ पर अलकनंदा व भागीरथी का पुनित संगम होता है और इस मनोरम पर्वतमाला का अदभूत दृश्य देखकर मेरे दिल की कली खिल गई । अतएव कुछ दिन यहाँ ठहरना चाहता हूँ ।’
‘आप कहाँ ठहरे हैं ?’ मैंने पूछा ।
‘भागीरथी के किनारे के बैरागी साधु के आश्रम में । वह स्थल एकांत और सुंदर है और हर तरह की सुविधा होने से मुझे भा गया है ।’
‘आपकी साधना अच्छी चलती है न ?’
‘हाँ, साधना तो जारी है,’ उन्हों ने तनिक रूककर कहा, ‘पर मेरी साधना जरा अलग है ।’
‘अलग यानी ?’
‘मुझे यज्ञ-साधना पसंद है, उसमें ही दिलचस्पी है । भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों में आज तक बहुत-से यज्ञ किये हैं । इसी तरह इस स्थल पर भी यज्ञ करने की सोच रहा हूँ ।’
‘यज्ञ से आपको कोई लाभ होता है क्या ?’
‘हाँ, उससे मानसिक शांति मिलती है और इष्ट-कृपा का भी अनुभव होता है ।’
कुछ और बातें करके वे बिदा हुए । दूसरी बार आए तो उन्होंने कहा, ‘बदरीनाथ जाने का विचार अब नहीं है, यहीं थोडे दिन रहने की प्रेरणा मिली है ।’
और बदरीनाथ जाने के बजाय वे देवप्रयाग में ही रुक गये । उन्हों ने कुछ दिनों के बाद यज्ञ शुरु किया । पूर्णाहूति के दिन अनेकों नरनारी उनके दर्शन को आए । सबने कहा, ‘ऐसा विधियुक्त यज्ञ देवप्रयाग में आज तक नहीं हुआ ।’
पूर्णाहूति के दिन शाम को महात्मा यज्ञदेव को पालकी में बिठाकर उनके भक्तों, प्रशंसको एवं शिष्यों ने उन्हें सारे गाँव में घुमाये ।
दूसरे दिन महात्मा ने ब्रह्मभोजन रखा था । प्रायः सभी को भोजन का न्योता दिया गया था।
परंतु अफसोस ... विधाता का विधान कुछ और ही था ।
बैरागी साधु के आश्रम में बडे तडके से ही भोजन की तैयारीयाँ हो रही थी । इस बीच यज्ञदेव पर्वत स्थित यज्ञवेदी पर गये । कुछ देर उसीसे आँखे मिलाकर उन्होंने मन-ही-मन में प्रार्थना की । फिर चारों ओर कोई देख तो नहीं रहा इसका विश्वास हुआ तब यज्ञकुंड में बैठ गये । नजदीक ही घी का डिब्बा था, उसको अपने पर डाल दिया । देखते ही देखते प्रदिप्त अग्नि-ज्वालाओं ने उनकी देह को घेर लिया और वे जलकर खाक हो गये ।
बहुत देर तक जब यज्ञदेवजी नीचे न लौटे तब उनके शिष्यों को चिंता हुई । जाकर देखा तो गुरुदेव का शरीर शांत हो गया था । सब भक्तों एवं शिष्यों को आश्चर्य एवं दुःख हुआ ।
थोडी ही देर में यह बात फैल गई और लोगों का समूह वहाँ उमड पडा । किसी अगम्य भावना, विचार या प्रेरणा से यज्ञदेव ने अपनी आहूति दी थी । ऐसा उन्होंने क्यों और किस हेतु से किया यह समझमें न आया । कारण कुछ भी हो पर इतना अवश्य हुआ कि यह आहूति लोगों को अशांति देनेवाली सिद्ध हुई ।
रामायण में रामदर्शन के बाद शरभंग मुनिने अपना शरीर जला दिया था ऐसा वर्णन आता है, लेकिन वहाँ साफ-साफ शब्दों में लिखा है ‘योग अगनि तनु जारा’ अर्थात् उन्होंने अपने शरीर को साधारण अग्नि से नहीं पर योगाग्नि से जलाया था ।
यज्ञकुंड में बैठकर देह की आहूति देने की पद्धति को आवकारदायक या तो अभिनंदनीय नहीं कहा जा सकता । ऐसा करने से किसीका कल्याण नहीं होता ।
मुझे यह समाचार सुन बहुत दुःख हुआ । विशेष दुःख तो इस बात से हुआ कि कालदेवता ने एक होनहार युवान साधु के जीवन पर आकस्मिक पर्दा डाल दिया ।
उस दिन उस बैरागी आश्रम में भोजन लेने कोई न गया ।
बहुत दिनों तक लोग बैरागी साधु, उस अग्निकुंड से आती हुई चिमटे की ध्वनि और महात्मा यज्ञदेव के मंत्रो की ध्वनि सुनते रहे । रात्रि में सुनाई देनेवाली उन आवाजों से साधु और उनके शिष्य डर जाते ।
उन आवाजों से यह साबित होता था कि यज्ञ के फलस्वरूप उस पुण्यकार्य के परिणामरूप उनकी सदगति नहीं हुई थी, मगर दुर्गति हुई थी । यज्ञदेव की आत्मा देवप्रयाग के आश्रम के शांत वातावरण में अशांत होकर भटक रही थी । इसके कई सबूत भी बाद में मिले ।
बेचारे यज्ञदेवजी ! यज्ञ की यह अंतिम आहूति बडी भारी सिद्ध हुई । इसे आहुति या बलिदान नहीं कहा जा सकता । यह तो एक प्रकार की आत्महत्या थी, इसमें कोई संदेह नहीं । महात्मा पुरुषों को ऐसी आत्महत्या से दूर रहना चाहिए । इसीमें उनका कल्याण है।
मुझे भी इस घटना ने कुछ दिनों तक सोच में डाल दिया था ।
- श्री योगेश्वरजी