जीवन के बीते हुए लम्हों को फिर-से याद करने की वजह ? जो वक्त की अतल गहराईयों में डूब गया है, उसे फिर निकालकर सामने लाने की कोई जरूरत ? जो पवन की ललित लहर या पानी के प्रवाह की तरह बह गया है और जिसे लाख कोशिश करने पर भी वापिस नही लाया जाता, उसे शब्दों में बयाँ करने के पीछे कोई विशेष प्रयोजन ? उसे शब्दों की सुमनमाला में गूँथने के पीछे कोई अज्ञात हेतु तो काम नहीं कर रहा ? क्या एसा करने के पीछे अर्थ की मोहिनी, कीर्ति की लालसा या आत्मश्लाघा तो कार्यभूत नहीं है ?
इनके उत्तर में मैं ये कहना चाहूँगा की एसा हरगिज नहीं है । आत्मकथा की प्रसिद्धि के पीछे कोई लौकिक हेतु काम नहीं कर रहा । न तो मुझे कीर्ति की कामना है, ना ही धन की लिप्सा । ये मैंने शौक या मनोरंजन के लिये भी नहीं किया । इसके पीछे आत्मश्लाघा, अहंता या आपबडाई का अंशमात्र नहीं है ।
रही बात अन्य प्रश्नों की तो हरएक व्यक्ति अपने बीते दिनों को, जीवन की मधुर क्षणों को बार-बार याद करता है । इससे उसे प्रेरणा, आनंद और प्रकाश की प्राप्ति होती है, नवजीवन की सामग्री मिलती है । अपने भूत जीवन को याद करने से अन्य किसीको लाभ हो न हो, उसे अवश्य लाभ होता है । उसे आत्मिक सुख, प्रसन्नता और आत्मसंतोष मिलता है । बीते हुए लम्हों को याद करने का इससे अधिक उपकारक और प्राणवान प्रयोजन और क्या हो सकता है ?
मानवजीवन अत्यंत मूल्यवान है, इसका निश्चित प्रयोजन है । इससे हमें बहुत कुछ हासिल करना है । ये हमें व्यर्थ गवाँने या ज्योंत्यों बरबाद करने के लिये नहीं मिला । एक कुशल कलाकार की भाँति हमें इसका सदुपयोग करके जीवन-शिल्प का निर्माण करना है । हमें ये अवसर मिला है की हम अपनी अल्पताओं का अंत लाकर जीवन को अधिक से अधिक उज्जवल करें । अंधेरों से निकलकर उजालों की ओर चलें, असत्य से सत्य और तथा मृत्यु से अमरत्व की और प्रयाण करें । इसके लिये हम प्रयास करें, और समय-समय पर अपनी उपलब्धिओं का मूल्यांकन करें । एसा करने-से हम अपने लक्ष्य तक पहूँच पायेंगे ।
मगर गुजरे हुए कल का तोलमोल तो हम विचारों के माध्यम से कर सकते है । इसके लिये कागज और कलम की क्या जरूरत है ? हाँ, एसा जरुरी नहीं है मगर कोई एसा करना चाहें, तो उसमें क्या बुराई है ? जिसे जो पसंद आये, वो करें, इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है ? हरेक व्यक्ति अपनी रीत से मूल्यांकन करने के लिये स्वतंत्र है । वो किसी निश्चित पद्धति का आधार लें, एसा दुराग्रह क्यूँ ?
मेरे बारे में ये जरूर कहूँगा की ये काम इश्वरेच्छा-से हो रहा है । भूतकाल को याद करना मेरे लिये आवश्यक नहीं है, मगर इश्वरेच्छा मुझे एसा करने के लिये बाध्य कर रही है । इसके पीछे उसका क्या प्रयोजन है, ये मैं नहीं जानता, ये सिर्फ उसे पता है ।
एक छोटे-से बच्चे के मन में पूर्णता की लगन लगी । उसे उजालों की और चलने की इच्छा हुई और उसने कदम बढायें । उसकी सफर मंझिल तक पहूँची या नहीं, बीच राह में उसे कैसे अनुभव मिले, इसका प्रामाणिक इतिहास इस आत्मकथा में है । एसा करने के पीछे इश्वर की इच्छा क्या है, ये कौन जान सकता है ? शायद वो चाहता है की जडता की और जा रहा समाज इश्वराभिमुख हो, धर्मपरायण हो ।
जिस तरह से सेवक का धर्म स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य करना होता है, मेरा कर्तव्य उसकी प्रेरणा को मूर्तिमंत करना है । सच पूछो तो पीछले कई सालों से मेरा जीवन उसकी इच्छा या प्रेरणा से चल रहा है । या यूँ कहो की इश्वर अपनी योजना के मुताबिक मेरे द्वारा काम कर रहा है । आत्मकथा को पढने-से आपको इस बात की तसल्ली हो जायेगी । मैं तो निमित्त मात्र हूँ । मैं वो बांसुरी हूँ जिसमें से सूर निकालनेवाला इश्वर है । वो जो कहेता है, मैं करता हूँ । उसकी इच्छा, उसकी प्रेरणा ही मेरे जीवन का प्रयोजन है । इससे अधिक मैं क्या कहूँ ?