if (!window.top.location.href.startsWith("https://swargarohan.org/") && window.top.location.href != window.self.location.href) window.top.location.href = window.self.location.href;

Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

Danta Road, Ambaji 385110
Gujarat INDIA
Ph: +91-96015-81921

हरएक आदमी की जिन्दगी में कुछ साल, कुछ दिन या कुछ पल ऐसे होते है जो निर्णायक सिद्ध होते है । वो आदमी की जिन्दगी को बदल देतें है और हमेशा को लिए अपनी निशानीयाँ छोड जाते है । ऐसा कोई व्यक्ति से मिलने से होता है, कोई नयी जगह में या नये माहौल में जाने से होता है । कहीं ऐसा भी देखने में आता है की आदमी को अचानक कुछ सुझता है जिससे उसका सोचने का या काम करने का ढंग, औरों की तरफ देखने का नजरीयाँ बदल जाता है । हरेक आदमी की जिंदगी में कभी-न-कभी कहीं-न-कहीं ऐसा मोड़ जरुर आता है । मेरी जिंदगी में भी ऐसा मोड़ आया ।

जैसे की मैंने आगे बताया, नवाँ साल मेरे लिए परिवर्तन का पैगाम लेके आया । उसने मुझे मेरे छोटे-से गाँव से उठाकर बंबई नगरी में लाकर रख दिया । चौदहवाँ साल अपने आप में कुछ वैसा ही शकवर्ती था । मेरे जीवन का पथ उसने निश्चित रुप से बदल दिया । मानो उसने मुझे भावि जीवन के निश्चित राह की झाँकी करवाई । जीवनशुद्धि की अदम्य ईच्छा मेरे दिल में जाग उठी । कुछ बनने की महत्वकांक्षा ने मुझे घेर लिया । उस साल मेरे अदंर प्रकट हुई भावनाएँ आगे चलकर पुष्ट होती चली ।

मुझे तेजस्वी व सदगुणी विद्यार्थी बनना था । अच्छी तरह से पढाई करके उज्जवल जीवन जीने की कामना मुझमें जगी थी और उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक प्रयास भी मैं कर रहा था । जीवन को हर तरह से बहेतर व आदर्श बनाने के कार्य में मैं जुड गया । ये मेरी निरंतर कोशिश रहती की सभी सहपाठीयों से मेरा सदभाव बना रहे और किसी से तिरस्कार या द्वेष न हो । मेरी पढ़ाई अच्छी होने के कारण गृहपति का स्नेह मुझ पर हमेंशा बना रहता । अन्य छात्रों से कुछ बहेतर होने का अहं भी तो हो सकता था, लेकिन उससे दूर रहने के लिए मैं पूर्ण जागृत था । व्यसन आदि कोई बुराई का प्रवेश न हो उसके लिए मैं सावधान था । सर्व छात्रों के प्रति समभाव जताने के साथ साथ बूरी आदतोंवाले छात्रों से अपने को अलग रखता । मैंने सुना की कई महापुरूष अपनी रोजनिशी रखते थे, तो मैंने भी अपनी रोजनिशी लिखना प्रारंभ किया । फुरसत के वख़्तमें अच्छी किताबें पढता या तो शांति से बैठा रहता । समय का हमेंशा सदुपयोग करता ।

उन दिनों मुझे भगवद् गीता पढ़ने की ईच्छा हुई । गीता के प्रति मैं कैसे आकर्षित हुआ ये जानना रसप्रद होगा । सेन्डहर्स्ट रोड स्थित कबुबाई हाईस्कूल में अंग्रेजी पढाई के लिए मैं जाता था । चौथी कक्षा से गीता का अभ्यास पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था । गीता पढ़ाने के लिए जो एक शास्त्रीजी नियुक्त किये गये थे, जो बड़े विद्वान व मिलनसार स्वभाव के थे । वो हमें गीता के एक-दो अध्यायों का पठन कराते । बाद में वो हमारी संस्था में भी आने लगे, सप्ताह में एक बार । गीता के अलावा धर्म व अध्यात्म की बातें भी सिखाते । संस्था के बच्चों के प्रति उन्हें लगाव था । उनका गीता पढाने का तरीका सुंदर था लेकिन ज्यादातर छात्र उनमें दिलचस्पी नहीं लेते थे । कई छात्रों को तो धर्म के नाम से ही अरुचि थी । वो मानते की गीता जैसे ग्रंथो का अध्ययन करनेवाले लोग संसार में आम आदमी की तरह नहीं रह सकते और संसार के लिए निकम्मे हो जाते है । ऐसे उटपटांग विचारों के प्रभाव से बचे हुए कुछ चुंनीदा छात्र ही गीता के अभ्यास में अभीरुचि लेते । उस वक्त हमारी अवस्था ही कुछ एसी थी की गीता जैसे महान ग्रंथ के बारे में हमें कुछ पता नहीं था । अधिकांश छात्रो को तो ये भी मालूम नहीं था की गीता में क्या है फिर भी शास्त्रीजी के प्रयास के कारण, परीक्षा में पास होने के लिए आवश्यक विषय समझकर, वो उसका पठन करने लगे ।

ऐसे माहौल में भगवद् गीता ग्रंथ मेरे हाथ में आया । मैंने सुना था की गीता केवल भारत का ही नहीं, विश्व का प्रमुख धर्मग्रंथ माना जाता है । ये भी सुनने में आया की गांधीजी उसका नित्य पाठ करते है । ईसी वजह से गीता का पठन करना मुझे आवश्यक लगा । उस वक्त मेरा संस्कृत का ज्ञान बिल्कुल साधारण था । संस्कृत सिखना मैंने अपनी चौथी कक्षा से शुरू किया था, अतः गीता के श्लोकों को सही मायने में समझने का काम मेरे बस का नहीं था, फिर भी मैंने प्रयत्न ज़ारी रखे । कुछ ही समय में गीता के श्लोकों को समझना मेरे लिए उतना कठिन नहीं रहा जितना पहले हुआ करता था । शुरु में मैंने अपना ध्यान संस्कृत श्लोकों को समझने के बजाय उसके गुजराती अर्थ पर दिया । उसका नतीजा यह निकला की मुझे उसके अर्थ समझमें आने लगे । यूँ तो गीता के अध्याय समझने कठिन है, किन्तु बारवाँ, पंद्रहवाँ, सोलहवाँ व दूसरा अध्याय औरों के मुकाबले में सरल है । उनमें से दूसरे अध्याय को तो मैं कई बार पठन करता क्योंकि उनमें प्रस्तुत स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षण मुझे विशेष रुप से आकर्षित करते थे । मानो मेरे लिए वो प्रेरणा के स्त्रोत जैसे थे । भिक्षु अखंडानंद कृत गीता में श्लोक व अनुवाद के अलावा श्री रामकृष्ण परमहंसदेव, स्वामी विवेकानंद व स्वामी रामतीर्थ के सारवचनो को भी प्रस्तुत किये गये थे ।  मैं उन्हें बडे ध्यान से पढ़ता, विशेषतः हररोज रात के समय सोने से पहले । कुछ अरसे बाद वो मुझे स्मृतिबद्ध हो गये ।

स्थितप्रज्ञ के श्लोकों ने मेरे जीवन में क्रांति कर दी । महान पुरुष बनने की महत्वकांक्षा ने मुझे घेर लिया । स्थितप्रज्ञ के वर्णन से ये बात समझ में आयी की महान बनने के लिए सदगुणी बनने कीतना आवश्यक है । उसके लिए कड़े प्रयासों की आवश्यकता थी । मैं भी कोई बैठे रहनेवालों में से नहीं था । मैंने अपने प्रयास बलवत्तर कर दिये ।

 

We use cookies

We use cookies on our website. Some of them are essential for the operation of the site, while others help us to improve this site and the user experience (tracking cookies). You can decide for yourself whether you want to allow cookies or not. Please note that if you reject them, you may not be able to use all the functionalities of the site.