सेनेटोरियम के दिनो में मेरे भोजन का प्रबंध सिंधी शेठ के यहाँ था । शेठ के परिवारजन शेठ के कहने पर सोलन में रहते थे । सोलन सिमला से करीब दस माईल की दूरी पर स्थित सुंदर पर्यटक स्थल था । हर इतवार को शेठ अपने परिवारजनों को मिलने सोलन जाते थे । एक इतवार, उन्होंने मुझे अपने साथ चलने का आग्रह किया । मैंने उसका सहर्ष स्वीकार किया । नैसर्गिक सौन्दर्य और वनराजी से भरपूर पहाडीयों से गुजरते हुए हम कुछ ही देर में सोलन आ पहूँचे ।
सोलन के छोटे-से बाजार से गुजरते हुए हम एक शांत ईलाके में आ पहूँचे, जहाँ सिन्धी शेठ का मकान था । उनके परिवारजनों ने मेरा स्मितपूर्वक सत्कार किया । वहाँ मेरी भेंट 'स्वाध्याय सदन' के संस्थापक एवं संचालक, पंडित श्री हरदेव शर्मा से हुई । वे विद्वान होने के अतिरिक्त नम्र, निराभिमानी और अत्यंत स्नेही लगे । उनका इश्वर तथा उनके अनुग्रहप्राप्त संतो के प्रति विशेष आदरभाव मुझे हमेशा याद रहेगा । वे जनहित के कार्यो में जुडे हुए अनोखे कर्मयोगी थे । उन्होंने मुझे बताया की माता आनंदमयी एवं हरिबाबाजी सोलन आयें है । मुझे यह सुनकर बडी प्रसन्नता हुई । कुछ समय पहले मैं माता आनंदमयी के दर्शन हेतु उनके आल्मोडा स्थित आश्रम गया था मगर मेरा प्रयास विफल रहा था । अब आश्चर्यजनक रीत से यहाँ उनके दर्शन का सुयोग उपस्थित हुआ । जीवन में एसा कई बार होता है जिसकी हमें कल्पना नहीं होती ।
माता आनंदमयी से भेंट करने का अनुपम अवसर मिलने पर मुझे बेहद खुशी हुई । और क्यूँ न हो ? ईश्वर ने फिर एक बार मेरी बात सुन ली थी । ईश्वर की कृपा से मेरी हर मनोकामना पूर्ण हुई है । मा आनंदमयी के दर्शन का सुअवसर मिलना इसी बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था । शाम चार बजे के बाद माताजीको मिलने के लिये हम उनके स्थान पर गये । पहाडीयों के बीच अत्यंत मनोहर स्थान पर उनका निवास था । वहाँ से सोलन शहर तथा आसपास का नजारा देखते ही बनता था ।
माता आनन्दमयी के निवासस्थान के आसपास दो-चार बहनें दिखाई दी । कुछ देर प्रतिक्षा करने पर द्वार खुले और हम अंदर गये । माता आनंदमयी अंदर खडे हुये थे । हमें देखकर उन्होंने स्मित किया । उनको प्रेमपूर्वक प्रणाम करके हम नीचे बैठ गये । मैं माताजी के मुखमंडल को निहारने लगा । उनका मुखमंडल शांत, तेजस्वी, सहज और निर्दोष आनंद से भराभरा था । उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे । बाल कालें और खुले हुए थे । उनका दर्शन चित्ताकर्षक, आहलादक और आनंददायक था । उनकी उपस्थिति से आसपास का वायुमंडल सजीव लग रहा था ।
जैसे ही हम उनके कमरे में दाखिल हुए, उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा, 'आ गये ?' फिर उन्होंने कहा की मैंने उनके दर्शन पहले भी किये है, मगर ध्यानावस्था में । एक बार उन्होंने मुझे ध्यान में अंतःस्फूरणा से ये भी पूछा था की 'क्या एसा ही वेश हमेशा रखोगे ?'
उस वक्त मेरा बाह्य परिवेश कैसा था ? घूटनों तक आनेवाला खादी का सफेद टुकडा, शरीर पर खादी की सफेद चद्दर, कौपीन, दाढी और जटा । सन १९४२ से लेकर सन १९५७ तक मेरा बाह्य परिवेश एसा था । हालाकि सन १९५० में मैंने इश्वरीय प्रेरणा से कुछ वक्त के लिये दाढी निकाल दी थी ।
मैंने अपने आल्मोडा आनेकी वजह उनको बताई । कुछ देर में हरिबाबा आ पहूँचे । हरिबाबा उत्तर भारत के विद्वान, शास्त्रज्ञ और प्रसिद्ध संतपुरुष थे । वे माता आनंदमयी की उपस्थिति में तुलसीकृत रामायण का पाठ करते थे और उपस्थित श्रोताओं को समजातें थे ।
मैं माता आनंदमयी के मुखमंडल को निहारता रहा । वे नम्रता, सरलता, शुचिता और ईश्वरीय प्रेम की प्रतिकृति समान थे । उनके दर्शन से उनकी अंतरात्मा की शुचिता का अनुमान करना मुश्किल नहीं था । उनकी उपस्थिति से आसपास का वायुमंडल कोई अलौकिक अपार्थिव तत्व से भर जाता था । मैंने उनसे कुछ दिन रहने की अनुमति माँगी । उन्होंने मेरी प्रार्थना का सहर्ष स्वीकार किया । दो-चार दिनों के बाद, सोलन से यहाँ आकर माता आनंदमयी की पावन संनिधि में रहने का अवसर मिलेगा, यह सोचकर मैं पुलकित हो उठा ।
कई दिनों से मेरे मन में यही कामना थी । इसका सुखद समाधान होने पर मुझे प्रसन्नता क्यूँ न होगी भला ? माँ जगदंबा ने अपनी विशेष करुणा से मेरे लिये यह अवसर उपस्थित किया था । अब तक जिन-जिन व्यक्तिओं से दर्शन, समागम या आध्यात्मिक मार्गदर्शन की मैंने ख्वाहिश की थी, उन सभी व्यक्तिओं से उसने मेरी भेंट करवायी थी । अंततः मेरा मन उपराम करके अपनी ओर खींच लिया था । उसने मुझे सिर्फ अपने आप पर भरोंसा करना सिखाया था । उसकी कृपा का चातक बनाया था । इसके बारे में आगे के प्रकरणों में चर्चा होगी । फिलहाल तो हम सोलन और धरमपुर के बीच का रास्ता तय कर रहें है ।
जल्दबाजी में अभिप्राय
सिन्धी शेठ के साथ मार्ग में आनंदमयी माता के बारे में बात हुई ।
उन्होंने मुझे पूछा : 'क्या आप माँ आनंदमयी को जीवनमुक्त मानते हो ?'
मैंने कहा : 'हाँ, वे एक उच्च कोटि की, असाधारण, अनुभवसंपन्न साध्वी है । क्या आपको एसा नहीं लगता ?'
वो बोलें : 'जीवनमुक्त के मुँह पे मक्खियाँ बैठती है क्या ? आपने देखा नहीं की किस तरह उनके मुँह पर मक्खियाँ बैठती थी, और पास बैठी बहनें रुमाल से या पंखा हिलाकर उसे भगाने की कोशिश करती थी ? मैं तो उन्हें जीवनमुक्त नहीं मानता । मुझे तो वह ढोंगी लगती है । उनके आसपास जवाँ लडकियाँ बाल खुले रखकर घुमा करती है, शायद माँ आनंदमयी का अनुकरण कर रही हो । मुझे तो लडकियाँ भी चंचल और विलासी लगी । सच बताउँ तो वहाँ का माहौल मुझे ठीक नहीं लगा ।'
मुझे उनकी सोच विचित्र लगी । मैंने उन्हें समजाने की कोशिश की : 'एसा किसने कहा की जीवनमुक्त व्यक्ति के मुँह पर मक्खियाँ नहीं बैठती ? मक्खियाँ बैठने से क्या होता है ? और अगर कोई लडकी उसे उडाने की कोशिश करती है तो उसमें बुरा क्या है । इससे मा आनन्दमयी की अवस्था में क्या फर्क पडता है ? और रही बात लडकियों की तो वो अपने मातापिता या रिश्तेदारों के साथ माता आनन्दमयी के दर्शन एवं सत्संग के लिये आयी थी । आप उन लडकियों में इश्वरीय प्रकाश का दर्शन क्यूँ नहीं करते ? जो स्वयं विलासी है, उसे तो कोई भी विलासी लगेगा । जीवनमुक्त व्यक्ति की परीक्षा उनके मुँह पर मक्खियाँ बेठने या न बैठने से नहीं होती । उनकी असली पहचान तो उनका ज्ञान, उनकी शांति, स्थिरता, काम-क्रोध-रहितता और जितेन्द्रिय होने से होती है । किसी के बाह्य परिवेश से उनका मूल्यांकन करना ठीक नहीं है ।'
मगर वो अपनी बात पर दटे रहें । शायद वो अपने आपको विशेष बुद्धिमान और संतपुरुषों के जौहरी मानते थे । मैंने इस बारे में उनसे ज्यादा बात करना मुनासिब नहीं समजा । बहुत सारे लोग संत-महात्माओं की आलोचना करना अपना अधिकार मानते है । वे अपनी हैसियत के मुताबिक उनकी परीक्षा करते हैं और अभिप्राय देते हैं । जल्दबाजी में किये गये एसे मूल्यांकन और उनके फलस्वरूप दिये गये अभिप्राय ज्यादातर गलत होते है । महात्मा पुरुषों के बारे में कुछ भी बोलने से पहले चिंतन-मनन करना आवश्यक है । हो सके तो उनके निकट परिचय में आने के बाद तथा उनके जीवन का प्रत्यक्ष निरीक्षण करने के बाद ही किसी प्रकार का बयान देना चाहिये । जब साधारण व्यक्ति को पहचानने में हम धोखा खा जाते हैं तो जीवनमुक्त महापुरुषों को एक दफा मिलने से उन्हें कैसे समज पायेंगे ?
मैंने कहा : 'माँ आनंदमयी के दर्शन करने फिर कभी चले जाना । शायद आपका मंतव्य बदल जाय ।'
मगर मक्खियों पर अटके हुए उन्होंने मा आनंदमयी के पुनःदर्शन का खयाल मन से निकाल दिया । वो सोलन गये मगर मा आनन्दमयी को नहीं मिले । अपने एसे निर्णय पर उन्हें गर्व था मगर वो कितने गलत थे वो कौन उन्हें बतायेगा ?
हाँ, अगर दूसरी रीत से देखा जाय तो सिंधी शेठ बहुत धर्मप्रेमी, संतचरणानुरागी, सेवाभावी, नम्र और दयालु थे । चंपकभाई के अलावा सेनेटोरियम में दाखिल एक ओर दर्दी के भोजन का प्रबंध भी उन्होंने किया था । मेरी सुविधाओं का भी वो अच्छी तरह से खयाल रखते थे ।