जिस पुरुष का मन परमात्मा में तल्लीन हो गया है, उसे परमात्मा के साथ एक-रूपता स्थापित की है, जिसकी बुद्धि व प्राण परमात्मा में लगे है तथा विवेक से विभूषित होकर जिसने जीवन की धन्यता का पान किया है, उस महापुरुष को कैसे पहचाना जा सकता है ! पूर्ण पुरुष की कसौटी के लिए बाह्य चिन्ह क्या हैं ? द्वितीय अध्याय के अंत में अर्जुन ने यही प्रश्न पूछा है और भगवान ने उसका उचित उत्तर दिया । और भी कुछ लोग यह प्रश्न पूछते हैं । इसके बारे में मेरा विचार यह है की प्रभु के कृपापात्र पुरुष को बाह्य चिन्हों से पहचानना आसान कार्य नहीं ।
कुछ लोग लम्बी दाढ़ी और जटा देखकर महात्मा मान लेते हैं तो कुछ मौन धारण, शरीर पर भस्म लेप आदि बाह्य वस्तुओं से उसे महात्मा मानते हैं, किन्तु महात्माओं की वह विशेष पूंजी नहीं है । जिसके पास यह चीजें नहीं, वह भी महात्मा हो सकता है । महात्मा बनने और बाहरी चीजों के होने में कोई अधिक संबंध नहीं है ।
एक सज्जन ने कहा – जिसे परम शांति मिली हो, उसके मुख पर लालिमा छाई रहती है । जिसका मुंह फीका हो उसे परमशांति अभी नहीं मिली है, ऐसा समजना चाहिए । किन्तु यह अभिप्राय बिलकुल ग़लत है । परम शांति को चेहरे की लालिमा के साथ कोई वास्ता नहीं, इस बात को अच्छी तरह समज लेने की जरूरत है । जो परमशांति में बिलकुल विश्वास नहीं रखते और न उसके लिए कोई प्रयत्न ही करते हैं ऐसे पुरुषों के मुख पर लालिमा दिखाई देती है । यह तो स्वास्थ्य की निशानी है । उसका परमशांति या पूर्णता के साथ क्या संबंध ? जिसे परमशांति मिली हो उसका चेहरा फीका ही हो या वह जटा या दाढ़ी बढ़ाए या मौन धारण करे, यह भी जरूरी नहीं है । यह सब तो बाहर की चीजें हैं । परमशान्ति या पूर्णता के साथ उनका कोई संबंध नहीं है । अतः उनके लिए दुराग्रह करना या उनके अनुसार महापुरुषों की परीक्षा करना ठीक नहीं ।
सच तो यह है कि बाहर के रंगरूप से महात्माओं की कसौटी शायद ही हो सकती है । उदाहरणार्थ श्री रामकृष्ण परमहंसदेव के पास एक बार पंडितजी आए और उनके साथ एक ही आसन पर बैठे हुए कहने लगे – “क्या आप परमहंस तो नहीं ? वाह परमहंसजी ! लोग आपको परमहंस कहते हैं, वे क्या जाने ? उनको किसी ने भ्रम में डाला होगा । अच्छा तो परमहंसजी, जरा हुक्का तो पिलाइए ।”
परमहंसदेव ने उन्हें हुक्का दिया और वे उसे गुडगुडाने लगे । इस बीच उनकी निगाह दीवार पर टंगे हुए एक सुंदर कोट पर गई । वे बोले, “क्या आप कोट भी रखते हैं ?” किन्तु परमहंसदेवजी भी उनसे कम न थे । उन्होंने एक कोने की तरफ इशारा किया, जहाँ नये सुंदर जूते पड़े थे । यह देख उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । उन्हें पता चल गया और विश्वास हो गया कि श्री रामकृष्णदेवजी पाखंडी है और उनके जाल में लोग व्यर्थ ही फंसे है । बिना नमस्कार किये हुए ही वह वहाँ से चल दिए और शाम का वक्त होने के कारण गंगा किनारे जाकर संध्या करने लगे । थोड़ी देर के बाद उन्हें ऐसा लगा मानों कोई उन्हें खींच रहा है । संध्या पूरी करके वह जल्दी जल्दी परमहंसदेवजी के कमरे में आए तो वहां क्या देखते हैं कि अपने रोज के नियमानुसार परमहंसजी आसन पर बैठे हुए ध्यान में मग्न है और उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही है और मुख पर अद्भुत भाव चमक रहे हैं ।
यह देख पंडितजी का हृदय परिवर्तन हो गया । परमहंसजी के सान्निध्य में उन्हें अजीब शांति मिलने लगी । उन्हें विश्वास हो गया कि वे सच्चे महापुरुष है । उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ कि परमहंसजी को समजने में उन्होंने बड़ी भूल की । इतने ही में परमहंसजी का ध्यान पूरा हुआ और उन्होंने आँखे खोली । पंडितजी फौरन उनके चरणों में गिर पड़े और उनकी आंखो से पश्चाताप के अश्रु बिंदु गिरने लगे ।
अपने अपराध के लिए उन्होंने क्षमा मांगी । परमहंसदेव ने कहा – “महात्माओं की कसौटी बाहरी दिखावे से नहीं करनी चाहिए । हो सके तो उनके हृदय में गोता लगाकर देखना चाहिए । उनके दिल को पहचानने के बाद ही उनके विषय में कुछ निश्चित किया जा सकता है, अन्यथा उनको वंदन करके अपना रास्ता पकड़िये । पूरी जांच किये बिना दो तीन बाहरी चीजों को देखकर ही उनके बारे में कोई राय कायम कर लेना अपराध है । ”
परमहंसदेव के यह वचन सब को याद रखने योग्य हैं । इसका मतलब यह नहीं है कि महापुरुषों के बाह्य स्वरुप पर नजर ही नहीं डालनी चाहिए और न महात्माओं को ही यह समजना चाहिए कि उन्हें अपने बाह्य स्वरुप पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं । तात्पर्य यह है कि बाह्य दृष्टि से साधारण दिख पड़ने वाले लोग भी यदि साधना में लगे हैं तो आंतरिक रूप से गुदड़ी के लाल हो सकते हैं ।
असल बात तो यह है कि इस संसार में महापुरुषों का मिलन होना मुश्किल है – गीता में जिनको स्थितप्रज्ञ कहा गया है ऐसे पुरुष करोड़ो में एकाध ही होते हैं और पूर्वजन्म के सत्कर्म के फलस्वरूप यदि उनसे मिलन होता भी है तो उनको पहचानना बहुत कठिन होता है । वे कृपा करके अपना राज़ जब तक नहीं खोलते और खुद नहीं बताते कि वे कौन हैं और कैसे हैं, तब तक उनको पहचानने का कार्य कठिन होता है । इस संबंध में जो बात ईश्वर के विषय में कही गई हैं, वही संतो के लिए भी लागू होती है । जिसे प्रकार ईश्वर अगम्य है उसी प्रकार संत भी अगम्य है । ईश्वर को कौन पहचान सकता है ? जिस पर ईश्वर कृपा करें और कृपा करके अर्जुन की तरह अज्ञान का आवरण हटा कर जिसको दिव्य दृष्टि दे, वहीं ।
ईश्वर कृपालु नहीं है, ऐसी बात नहीं है । ईश्वर तो दयालु है ही । मनुष्य को सदा ऐसा ही प्रयत्न करते रहना चाहिए, जिससे वह ईश्वर का कृपापात्र बन सके । ईश्वरकृपा प्राप्त संतो से मिलने की जिसे लगन होती है और जिसका दिल महापुरुषों के दर्शन को अधीर हो जाता है, उसको महापुरुषों का दर्शन अवश्य हो सकता है । महापुरुषों की कृपा से वह उनको कुछ कुछ पहचान सकेगा और उनकी सेवा करके फायदा भी उठा सकेगा । इसलिए महापुरुषों से मिलने की इच्छा रखो, महापुरुष खुद ब खुद मिल जायँगे।
एक और बात है । महात्माओं से मिलने का अवसर आए तब दिल खुला रखकर उनसे मिलना चाहिए । किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह रखे बिना उनका लाभ उठाना चाहिए । उनके बारे में अंतिम अभिप्राय निश्चित करने में कदापि उतावलापन नहीं करना चाहिए । उनकी टीका टिप्पणी भी करना ठीक नहीं । कसौटी करने की दृष्टि से उनके पास न जाना । गुणग्राही दृष्टि लेकर ही उनके समीप जाना चाहिए । ऐसा करोगे तो तुमको फायदा होगा, नुकसान नहीं ।
उनके साथ बिना प्रयोजन अधिक बातचीत न करना और उनके सामने अपनी बुद्धिमानी प्रदर्शन करने के लिए वक्ता या उपदेशक भी न बन बैठना । वे जो कुछ कहेंगे लम्बे और ठोस अनुभव के आधार पर ही कहेंगे । उनकी आलोचना मत करना । उनकी बात पर पूरा ध्यान देना और बार-बार विचार करना । ऐसी आदत डाल लेने से उनकी सहायता प्राप्त कर सकोगे, उनसे फायदा उठा सकोगे और उनको कुछ अंशों में पहचान भी सकोगे ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)