जिसमें राग और द्वेष हो, अहंकार और ममता हो वह सच्चा संन्यासी या त्यागी नहीं होता। जो संयमी नहीं बल्कि स्वच्छंदी है वह त्यागी कहलाने योग्य नहीं है। सन् १९४४ में मैं हिमालय के उत्तरकाशी नामक स्थान में रहता था। वहां विश्वनाथ मंदिर में एक वैरागी साधु रहते थे जो मौन धारण किये हुए थे, उनके साथ मेरा परिचय हुआ। परिचय स्नेह में बदल गया। मैं प्रायः रोज़ उनसे मिलता। एक दिन उन्होंने संकेतों द्वारा और जमीन पर लिखकर कुछ बातें की, उनकी बात मैं शायद ही समज़ पाता यदि उनसे मिलने से पहले, वही बात मैं किसी दूसरे साधु से न सुन लिये होता। उनके कहने का तात्पर्य यह था, कि उत्तरकाशी में एक बड़ी आयु के दंडी संन्यासी थे। उनके पास एक ब्राह्मण कन्या पढ़ने के लिए आती थी। वह बाला गर्भवती हुई। दो ही रोज़ में सारे गांव में बात फ़ैल गई। इस बात की चर्चा साधुओं में होती थी और सभी लोग उस दंडी स्वामी की कटु आलोचना करते थे। साधु पुरुष की मुद्रा देखकर मेरी समज़में आ गया कि वे क्या कहना चाहते हैं। उनके मुख पर धृणा का भाव था। वे कहते थे कि साधुओं में भी ऐसे कामी होते हैं। और बात भी सच है, किंतु ऐसे पुरुषों से भी धृणा नहीं करनी चाहिए, विशेषतः सज्जनों के लिए तो वह बिलकुल अनुचित है। यह जाने बिना कि आदमी कैसा है, और किस परिस्थिति में पाप करने को प्रेरित हुआ, सिर्फ पाप का ही ख्याल करके उसकी निंदा या उससे धृणा करना उचित नहीं।
पाप से धृणा करना लेकिन पापी के प्रति अनुकम्पा बनाए रखना विवेकी पुरुष का भूषण है। भगवान से अधिक पवित्र और निष्पाप कौन है? पर वह तो पापी पर भी कृपा ही करता है और पापियों के लिए अपने हृदय का द्वार सदा खुला रखता है। अगर ऐसा न होता तो पापियों के लिए तो कोई आशा ही न रह जाती। जिनको भगवान ने अपने पवित्र चरणों में स्थान दिया है ऐसे पापी एवं अधर्मी जगत में कम नहीं हैं, तब फिर मामूली आदमीयों को उन से धृणा क्यों करनी चाहिए। इसीलिए मेरे दिल में उस दंडी स्वामी के लिए धृणा उत्पन्न नहीं हुई। मैंने उसकी जूठी निंदा भी नहीं की, किंतु उस वैरागी पुरुष की एक बात मुझे पसंद आई। यह वह कि साधुओं को मन एवं इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिए। उस महात्मा के साथ विविध प्रकार की बातचीत हुई। उसमें एक बात बहुत ही सुंदर है, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उन्हों ने कहा : “संन्यासी एवं त्यागी बनने के बाद दो चीज़ों के संयम पर बड़ा ही ध्यान रखना चाहिए : एक तो जबान, दूसरी जननेन्द्रिय। इन दोनों वस्तुओं को साधने पर ही सच्चा साधु बना जा सकता है।” बात भी सच है। साधु संन्यासियों को जितेन्द्रिय होना चाहिए। सब इन्द्रियों में जीभ एवं जननेन्द्रिय अधिक प्रबल हैं। यह कौन नहीं जानता? इन दोनों को वश में करे वही वीर है, साधु और संन्यासी भी वही है।
त्यागी एवं संन्यासी भी ईर्ष्या, अहंकार, द्वेष आदि रोगों से पीड़ित हैं, अलबत्ता सब संन्यासी ऐसे नहीं होते। किंतु जो संन्यासी वैसे हैं वे त्याग की महान संस्था के लिए शर्मजनक हैं। कुम्भ मेले में साधुओं के विविध जलूस निकलते हैं। उन साधुओं में जो अपने को श्रेष्ठ मानते हैं, जलूस में सबसे आगे रहने के लिए लालायित रहते हैं। इस विषय में बहुत विवाद हो जाते हैं। एक बार हरद्वार के कुम्भ मेले में ऐसा ही विवाद बड़े माने जाने वाले मंडलेश्वरों के बिच हुआ था। किसका हाथी सबसे आगे चले इस बारे में ज़गडा हुआ। एक साधुने (जो कि महापुरुष, संन्यासी एवं योगीराज माना जाता था) हाथी पर बैठने एवं जलूस में जाने से इंकार कर दिया। उनको मनाने के लिए अनेकों प्रयास किये गए। महात्मा के दर्शन के लिए निकले हुए कई लोग वह दृश्य देखकर कहने लगे कि त्यागी हो जाने के बाद भी यदि अपने बड़प्पन के अहंकार से चिपके रहना है तो फिर त्याग का मतलब ही क्या है? ऐसे संन्यासियों से तो हम संसारी लोग ही अच्छे हैं। ऐसे त्यागीयों के जीवन से हमें क्या शिक्षा मिलेगी?
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)