हिमालय में ऋषिकेश का स्थान बड़ा ही रमणीय है। अब तो वहां भी आबादी बढ़ गई है पर प्राकृतिक सुन्दरता वैसी ही अद्भुत है। वहां की एक विशेषता यह है, कि वहां दातौन नहीं बिकते। लोग एक या दूसरी रीति से दातौन का प्रश्न हल कर लेते हैं। हम कभी कभी हरद्वार से दातौन मंगवा लेते थे। जहां हम ठहरे थे उसके सामने ही एक बबूल का पेड़ था। कभी कभी विध्यार्थी उस पर चढ़ते और दातौन काटते थे। कुछ जाने पहचाने विध्यार्थी हमे दातौन दे देते थे, अन्यथा दातौन काटनेवाला काट कर चला जाता, बाद में माताजी पेड़ के निचे जाती, और गिरे हुए दातौनों को ले आतीं। हमारे शास्त्रों में ऐसी वृत्ति का वर्णन है। कुछ ऋषिमुनि इस वृत्ति का पालन करते थे। खेत में से किसान जब अनाज ले जाता था उसके बाद वे वहां गिरे हुए अन्न के दाने इकठ्ठे करते और उस पर अपना गुजारा करते। हमारे दातौन प्राप्त करने की वृत्ति भी ऐसी ही थी, किंतु कभी कभी उस में परिवर्तन आ जाता।
एक शाम को एक छोटा सा विध्यार्थी बबूल पर चढ़ा। माताजी गंगाकिनारे जाने को तैयार थीं। उन्होंने उस विध्यार्थी को देखा जो पेड़ पर बहुत ऊँचे था। वह दातौन की डाली को काटकर धरती पर फैकता था और एक दूसरा विध्यार्थी ज़मीन पर खड़ा था। माताजी ने पेड़ पर चढ़े हुए विध्यार्थी से पुछा, “तीन चार दातौन ले लूं?” विध्यार्थी ने बड़े स्नेह से उत्तर दिया, “अवश्य लीजिए।” माताजी ने थोड़े दातौन लिए और खड़ी रहीं, विध्यार्थी तो अपना कार्य किये जा रहा था। उसने पुछा, “बस दातौन ले लिए आपने? चाहे जितने दातौन लीजिए।” माताजी ने कहा, “फिर तेरे लिए क्या रहेगा? तू तो महेनत कर रहा है।” उस छोटे से बालक ने एक बड़े एवं बुद्धिमान मनुष्य की भांति उत्तर दिया, “मुझे दातौन की चिंता नहीं। मैं जो पेड़ पर चढ़ा हूँ अपनी ज़रूरत के लिए दातौन काट ही लूँगा। इसलिए चाहे जितने दातौन ले लीजिए न?” माताजी ने कुछ और दातौन ले लिए और जाकर मुझे उस विध्यार्थी की बात बताई। सुनकर मुझे अत्यंत आनंद हुआ। विध्यार्थी बहुत छोटा था फिर भी ऐसे अच्छे भाव एवं विचार बड़े आदमियों में भी शायद ही मिल सकते हैं। अगर ऐसे उदार भाव उसमें संचित होते रहेंगे तो भविष्य में वह कितना महान एवं पवित्र होगा। बात छोटी थी फिर भी महत्वपूर्ण थी। किंतु क्या यह सच नहीं कि छोटी बात में से बड़ी वात और छोटे बच्चों में से बड़े आदमी पैदा होते हैं? छोटे बालकों में कितनी उदारता होती है ! स्वार्थ एवं परमार्थ की फिलासफ़ी वे नहीं जानते और न उन्हें इसमें दिलचस्पी होती है। उसकी चर्चा पंडित और ज्ञानी भले ही किया करें।
माताजी के दातौन ले जाने के बाद ज़मीन पर खड़ा हुआ विध्यार्थी भी कुछ दातौन ले गया। बालक पेड़ से निचे उतरा और ज़मीन पर पड़े हुए दातौनों को इकठ्ठा करके ले गया। उस बालक को देखकर मैं फूला नहीं समाया। भागवत में दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं की बात याद आती है। वह क्या सीख देती है? यही कि संसार अनेक शिक्षाओं का भण्डार है। उस बालक के प्रसंग से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। उसका सारांश यही है कि मनुष्य को केवल स्वार्थी न बनकर परमार्थी बनना चाहिए। दूसरों की सहायता करने का अवसर चाहे कितना ही साधारण क्यों न हो उसे छोड़ना नहीं चाहिए। अपनी विध्या, संपत्ति, शक्ति या अनुभव को दूसरों के हित के लिए उपयोग करने को सदा तत्पर रहना चाहिए। बालक के प्रसंग से इस मन्त्र को ग्रहण किया जाय तो वह गुरुमंत्र बनकर हमारे तथा दूसरों के जीवन को उज्जवल बना सकता है। इस मंत्र को भली भांति सिद्ध कर लेने से प्राणिमात्र का जीवन सुन्दर बन सकता है और संसार स्वर्गमय हो सकता है।
त्यागी, संन्यासी एवं ईश्वरपरायण पुरुष के लिए भी वह मन्त्र अति उपयोगी और आवश्यक है। बबूल के पेड़ पर चढ़े हुए सभी विध्यार्थी दातौन देने के लिये तैयार नहीं होते। इसी तरह सब त्यागी या ईश्वरप्रेमी पुरुष भी अपने शांति या अनुभव के अनमोल धन में से दूसरों को देने के लिए शायद ही तैयार होते हैं। पर अच्छे लोग सदा दूसरों का उपकार करने के लिए तत्पर रहते हैं।
इस अनुभव प्रसंग के बाद हम वहाँ पर फिर लौट आते है जहां से बात शुरु हुई थी। भगवान अपनी बात को दोहरा रहे हैं इसका सीधासादा मतलब यह निकलता है कि उनकी यह बात महत्वपूर्ण है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, ज्ञान और योग या त्याग और कर्म में कोई विरोधाभास नहीं है। तू यह बात ठीक तरह से समझ ले। जैसे पंखी के दो पर होते हैं, जैसे शरीर में दाहिने और बायें अंग होते हैं, उसी तरह ज्ञान और योग तथा त्याग और कर्म को समझना है। जैसे पंखी अपने दो परों की सहायता से स्थिरता रख सकता है तथा आसानी से उड्डयन कर सकता है वैसे ही इनके बारे में समज़ना हैं। दोनों परस्पर सहायक है। व्यक्ति इसमें से किसी एक का अवलंबन लेकर शांति, मुक्ति तथा परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है। तूझे ज्ञान ज्यादा महत्वपूर्ण है या कर्म अथवा त्याग बड़ा है या व्यवहार – यह विवाद में नहीं पडना है। ऐसे विवाद से कुछ हासिल नहीं होगा। इससे अंततः नुकसान ही होगा क्योंकि विवाद से द्वेष और कटुता बढ़ती है। भगवान कहते हैं कि जो लोग ऐसा विवाद करते हैं वे हकीकत में पंडीत या प्राज्ञ पुरुष नहीं बल्कि बालक जैसे हैं। भगवानने उनके लिए खास बालाः शब्द का प्रयोग किया है। विवाद ओर विसंवाद को बढ़ावा देना मूर्खता है, बचपना है।
संसार विवाद और विखवाद से भरा पड़ा है। हमें इसे हो सके इतना कम करना चाहिए। मगर आजकल कुछ और ही दिखाई पड़ता है। पंडीत या तथाकथित ज्ञानी लोग ही विवाद पैदा करते हैं, और इसमें आनंद लेते हैं। पहले के ज़माने में बैलों की साठमारी हुआ करती था। आदमीयों के बीच कुस्ती होती थी। लडने की क्रिया में लोगों को आनन्द मिलता था और उसे देखने लोगों की भीड जमा होती थी। अब उसका स्वरूप बदल गया है। अब तर्क और विद्वत्ता की लड़ाई होती हैं। गीता हमें बताती है कि अगर आप पंडीत है, ज्ञानी है, तो आपको दंभी तथा अहंकारी नहीं होना है। विवाद और टंटे से आपको दूर रहना हैं और हो सके इतना नम्र बनना हैं। परमात्मा का परम प्रकाश पाने के लिए महेनत करनी हैं। विद्वान व्यक्ति की असली पहचान यही हैं की वह हर चिज के मूल स्वरूप को पहचानता है और उसका सम्मान करता है। तथा जहां पर भी विवाद या विसंवाद दिखाई दें, उसे दूर करने की यथाशक्ति कोशिश करता है।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)