कर्मयोगी की दशा
गीता का मानना है कि जिसका हृदय शुद्ध हो गया है वह मनुष्य जो कर्म करता है वह ईश्वर की प्रेरणा से ही करता है। ईश्वर की आवाज़ वह सुन सकता है और उसके अनुसार बर्ताव करता है। जैसे माता की उपस्थिति में बालक निश्चिन्त होकर घूमता है उसी तरह वह निश्चिन्त रहता है। उसके पास उसका अपना कुछ नहीं होता। उसने परमात्मा को आत्म समर्पण कर दिया है। इसलिए ईश्वर स्वयं उसकी देखभाल करता है। ईश्वर के कथनानुसार वह काम करता है। ईश्वर के स्मरण में वह तन्मय रहता है और संसार में हर जगह उसके दर्शन करता है। कर्मयोग की दशा प्राप्त पुरुष इस प्रकार पवित्र और ईश्वर परायण होकर धनी हो जाता है। वह छल, कपट, अहंकार तथा राग द्वेष से रहित एवं शांतिमय हो जाता है। प्रेम, मधुरता और आनंद की पूर्ती बन जाता है। कर्म उसके लिए बोज नहीं बल्कि सहज हो जाता है। कर्म को ईश्वर दत्त मानकर शांत चित से वह काम करता रहता है। ईश्वर एवं ईश्वर की सृष्टि के लिए वह कर्म किये जाता है। और इस प्रकार कर्म द्वारा ईश्वर की प्रसन्नता और कृपा को प्राप्त कर लेता है। उसका कर्म भगवान की अर्चना वन्दना ही बन जाता है।
त्यागी बनकर मनुष्य एकांत में जाता है और ध्यान धारणा आदि करके समाधि के आनंद को प्राप्त करता है। इसी प्रकार संसार में रहकर सब काम करते हुए भी ध्यान एवं समाधि का आनंद प्राप्य है। इसके लिए ईश्वर के स्मरण और प्रेम का आधार लीजिए और कर्म कीजीए। मन ईश्वर के चरनों में जोड़े रहने से और सदा ईश्वर का स्मरण करते रहने से समाधि का आनंद प्राप्त होता है। समाधि का मतलब क्या है? परमात्मा में मन को तन्मय कर देना या परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करना। कर्म करते हुए भी वह हो सकता है। धर्म व्याध नामक एक महान भक्त की बात आपने सुनी है? वे मांस बेचने का धंधा करते थे फिर भी उनका मन ईश्वर में संलग्न रहता था। गाँधीजी विविध प्रकार के कितने कार्य करते थे ! वे कर्म को ईश्वर का मानते थे, और काम करते हुए ईश्वर को कदापि भूलते न थे। जीवन के अंत समय जब इनको गोली लगी तब उनके मुख से क्या शब्द निकले? उनकी जगह कोई दूसरा आदमी होता तो घबरा जाता, किंतु वे ज़रा भी नहीं डरे, मेरे देश का क्या होगा यह भी उन्होंने नहीं कहा। उनके मुखसे हे राम निकला। इस बात से यह साबित हो जाता है कि दुनिया का काम करते हुए भी उनका मन सदा ईश्वर में ही लगा रहता था। उनके हृदय में राम का प्रबल अनुराग था। तभी तो भयंकर परिस्थिति में भी उन्हें ईश्वर की याद आती रही। कर्म उनके लिए जीवन की साधना का एक अंग था। उसी के द्वारा वे ईश्वर के साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहते थे और इस कार्य में वे सफल भी हुए। गाँधीजी की भांति काम कीजिए और मन को ईश्वर में लगाए रखिए तो इस प्रकार समाधि का ही आनंद मिलेगा।
प्रेम का प्रभाव कितना प्रबल है ! पंकज पंक में उत्पन्न होता है फिर भी पंक से अलिप्त रहता है। आकाश में सूर्य उगता है वह कितनी दूर है। कमल और सूर्य के बीच लाखों मील का अंतर रहता है, लेकिन प्रेम का प्रभाव तो देखिए। सूरज की किरनें कमल पर गिरती हैं। मानो उसे प्रेम का पैगाम मिलता है। कमल की सब पंखड़ीयां खिल उठती हैं, कितना सुहावना दृश्य मिलता है। लोग कमल के लावण्य पर मुग्ध हो जाते हैं। कवि उसकी सुकुमारता पर बलि बलि जाते हैं। प्रेमी उसकी सुन्दरता की प्रशंसा करते हुए थकते नहीं। तत्त्वज्ञानी उसकी पंक और पानी से निर्लेप रहने की विशेषता का बखान किये बिना नहीं रहते। वे उससे प्रेरणा लेते हैं। लेकिन उसमें कमल के हृदय का दर्शन कहाँ होता है? कमल का प्राण कहाँ प्राप्त होता है? इन सब विशेषताओं की अपेक्षा मुझे तो कमल की प्रेम समाधि अधिक सुन्दर लगती है। कमल का सूरज से तादात्म्य अधिक मूल्यवान है और लगता है कि कमल की सच्ची शिक्षा एवं कला उसी में निहित है। प्रेम का आकर्षण कहिए या प्रभाव, कुछ भी कहिए पर सोचिए तो, कमल पृथ्वी पर है और सूर्य दूर गगन में। फिर भी वे एक दूसरे से प्रेम करते है। खिला हुआ कमल सूर्य अस्त होने से बंद हो जाता है और सूर्यदर्शन की तपश्चर्या में लीन हो जाता है। कमल से हमें यही सबक सीखना है। संसार की कीचड़ में रहकर या सुन्दर सरोवर में उत्पन्न होकर किसी भी तरह हमें अपने प्राण को ईश्वर ही में रखना है। परमात्मा से प्रीति करना है, विविध कर्म करते हुए भी ईश्वर प्रेम की समाधि लगाना है। ईश्वर के ध्यान में मग्न होना है। यदि हम संसार के जंजटों में फँसकर, अपना स्वत्व खो देंगे तो यह सब कैसे प्राप्त होगा? इसलिए हमे परमात्मा के प्रेम से हृदय को भर देना है। ईश्वर के अनुराग से – परमात्मा की कृपा किरणों से प्रसन्न होकर जीवन में बल पैदा करना है। नवजीवन प्राप्त करना हैं। बादल को देखकर मोर ज़ूम ज़ूम कर नाचता है। हमें भी इसी प्रकार ईश्वर प्रेम में मग्न होकर आनंदित होना है। कर्मयोग द्वारा इसको प्राप्त कर लेने पर जीवन सार्थक हो जाता है।
किंतु इस दशा की प्राप्ति का कार्य क्या आसान है? हां, कठिन होते हुए भी पुरुषार्थ करने से वह आसान हो जाता है। एकांत में ध्यान धारणा करनेवाले योगी के कार्य की अपेक्षा संसार में रहकर प्रभुपरायण होने का प्रयास करनेवाले कर्मयोगी का काम कोई कम कठिन नहीं है, फिर भी वह महत्वपूर्ण है। इसलिए मनुष्य को करना चाहिए। जीवन अति मूल्यवान एवं शक्तिशाली है, अतएव बातें करके या सुनकर बैठे रहने के बजाय पुरुषार्थ का आसरा लीजिए और ध्येय को सिद्ध कीजिए। संसार में रहकर योगी बनने की इच्छा रखनेवाले को अत्यंत विवेकी बनना चाहिए। जो विवेक को तिलांजली देकर और आंखे बंद करके स्वेच्छा से कर्म करता है उसका उद्धार असंभव है। विवेकी पुरुष भले बुरे की पहचान करता है। वह बुराइयों को छोड़कर भलाइयों को अपनाता है। कर्म करने पर भी उसे अहंकार नहीं होता। कर्म उसके लिए बंधनकारक नहीं बल्कि मुक्ति का साधन हो जाता है। भगवान की आज्ञानुसार, भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करते करते उसका जीवन विशुद्ध हो जाता है, वह प्रभु का कृपापात्र बन जाता है और शाश्वत शांति प्राप्त कर लेता है। वह ईश्वर के प्रेम का अनुभव करता है अथवा यों कहीए कि परमात्मा की अनुभूति भी कर लेता है। इस प्रकार विवेकी पुरुष के लिए कर्म, जीवन के परम कल्याण की साधना बन जाता है। इस प्रकार कर्मयोग द्वारा परम सिद्धि और मंगल प्राप्त हो सकता है। जीवन के श्रेय के लिए गीता हमें प्रेरणा देती है, और कला सिखाती है। आलस छोड़कर अगर हम उसका आचरण करेंगे तो जीवन को सफल और सार्थक बना सकेंगे। चलिए तो फिर उठिए, तैयार हो जाइए और कर्म कीजिए – जीवन के श्रेय के लिए पुरुषार्थ कीजिए।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)