संध्या का सुहाना समय है । गगन गुलाबी रंगो से आच्छन्न हो गया है, जिनका प्रतिबिंब गंगा के जल में गिरता है । गंगा के विशाल घाट पर भाँति-भाँति के लोग इकट्ठे हुए हैं, मानों मेला लगा है । हरिद्वार शहर का यह घाट कितना चित्ताकर्षक और रमणीय है । उसका दर्शन कर पाना खुशकिस्मती की बात है ।
घाट पर एक ओर कथा होती है तो दूसरी ओर उपदेश दिया जाता है । कहीं छोटी छोटी दुकान लगाये फूल बेच रहे हैं तो कहीं प्रवासी स्थायी या अस्थायी रुप से मंडली बनाये बैठे हैं । कतिपय जिज्ञासु घूम रहे है । बैसाख के इस महीने में गंगा में स्नान करनेवाले लोग भी कम नहीं है ।
ऐसे समय एक पंडितजी किसी उँचे मकान के दालान में बैठे हैं और बार-बार एक ही बात बोल रहे हैं – ‘अगली छोडो, पिछली छोडो, बीच की लीजो पकडि ।’
यह सुनकर कई लोग वहाँ जमा हो गये । पंडितजी के शब्द सुनकर वे दंग रह जाते थे ।
भीड में से कतिपय यह कहने लगे – ‘बूढा हो गया फिर भी अभी स्त्रियों का मोह नहीं मिटा ।’
‘अरे भाई, बूढा हुआ तो क्या हुआ ? मोह अवस्था पर थोडा ही निर्भर रहता है ? वह तो बुढापे में भी हो सकता है ।’
‘लडकियाँ बडी अजीब होती हैं, कोई मिलेगी तो पंडित का शिर तोड देगी ।’
‘क्या दुनिया है ? तीरथ में आया है और गंगामैया के किनारे पर बैठा है, फिर भी उसका मन नहीं सुधरा ।’
लेकिन पंडितजी तो बार-बार बीच में रुककर उसकी रट लगा रहे थे - ‘अगली छोडो, पिछली छोडो, बीच की लीजो पकडि ।’
कुछ प्रवासी तो ऐसे थे जो पंडितजी की उस बात को तनिक भी महत्व न देते थे । पंडितजी के शब्द सुनकर अन्यमनस्क होकर वहीं से गुजरते थे ।
कुछ दिनों तक तो यह चलता रहा और नियमित रूप से निरंतर आनेवाले लोग उनके शब्द सुनने के अभ्यस्त हो गये । लेकिन एक शाम को पंडितजी बडी मुसीबत में फँस गये ।
उस वक्त जब वे अपनी प्रिय पंक्ति को दोहरा रहे थे, तीन लडकियाँ उनके सामने से गुजरी । पंडितजी के शब्द सुनकर उनकी त्योरियाँ बदल गई ।
विशेषतः मझली लडकी को बहुत बुरा लग गया । वह फौरन बोल उठी – ‘ऐ बूढे, ऐसा बोलने में तुझे शर्म नहीं आती ?’
दूसरी बोली - ‘तेरा काल आ गया है क्या ?’
तीसरी ने कहा - ‘अभी तेरा सर फोड देती हूँ ।’
और बूढे पंडित पर चप्पलों की वर्षा होने लगी । ...
देखते ही देखते वहाँ लोगों की भीड जमा हो गई ।
‘क्या है ? मामला क्या है ?’
‘क्या हुआ ?’
‘होगा क्या ?’ लडकी चप्पल पहनती हुई बोली - ‘ये मुझे पकडके ले जाना चाहता है । देखूँ तो सही मुझे कैसे ले जाता है ! है तो बूढा लेकिन उसने मेरी दिल्लगी की ।’
कुछ लोग पंडितजी को जलीकटी सुनाने लगे, कुछ डाँटने लगे ।
वहाँ पुलिस भी आई ।
पंडितजी ने शांति से कहा, ‘मैंने इन लडकियों से कुछ कहा ही नहीं, ये मेरे पर बेकार गुस्से हो रही हैं ।’
लडकियाँ छेडी हुई नागिन की तरह बोल उठीं : ‘एक तो मखौल उडाता था और पकडा गया तब सफाई पेश कर रहा है ?’
‘क्या मैं सफाई दे रहा हूँ ?’
‘तो फिर क्या कर रहा है ?’
‘जो सही बात है वह बता रहा हूँ ।’
‘क्या सही बात है ?’
‘यह कि मैंने आपसे कुछ नहीं कहा ।’
‘तो किससे कहा ?’
‘किसीसे नहीं, मैं ऐसी मजाक क्यों करता ? मैं तो धरम की एक बात बता रहा था ।’
‘धरम की बात !’ लोगों को आश्चर्य हुआ ।
‘हाँ, हाँ, धरम की बात,’ पंडितजीने स्पष्टता करते हुए कहा : ‘कुछ दिन पहले मैं गुजरात गया था । एक गुजराती संत वहाँ यह वाक्य बोला करते थे । उसने उसका अर्थ यह बताया था कि पहली बाल्यावस्था तो खेल-कूद और अज्ञान में बीत जाती है और पिछली वृद्धावस्था भी लाचारी तथा आसक्ति में ही काटनी पडती है । इसीलिए उन दोनों अवस्थाओं को छोडकर बीच में रहनेवाली युवावस्था में ही आत्मा का कल्याण कर लो । बीचवाली युवावस्था को ही पकड लो । मुझे यह बात बडी अच्छी लगी । तब से मैं उसी बात को उस सन्त के शब्दो में दोहरा रहा हूँ । उसमें किसी लडकी की दिल्लगी करने की बात ही नहीं है।’
पंडितजी के स्पष्टीकरण से सब लोग ठंडे हो गये ।
लडकियाँ भी शांत हो गई और अपने बर्ताव के लिए अफसोस करने लगी ।
किसी बुद्धिमान ने कहा, ‘बात कितनी भी अच्छी क्यूँ न हो, लेकिन साफ शब्दो में कहने की जरूरत है । नहीं तो नतीजा अच्छा नहीं निकलता ।’
दूसरे ने कहा, ‘शब्द तो साफ थे लेकिन सार साफ नहीं था ।’
‘दोनों साफ चाहिए ।’
‘यह तो हम कैसे कह सकते है ?’
धीरे धीरे लोग बिखर गये ।
- श्री योगेश्वरजी