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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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बैरागी साधुओं की परंपरा भारत में बडे प्राचीन काल से चली आ रही है । एक समय ऐसा भी था जब ऐसे साधु सांसारिक विषयों या वासनाओं से उदासीन होकर किसी सदगुरू से दिक्षा प्राप्त कर बरसों तक तीव्र तपश्चर्या करके सिद्धि व आत्मशांति प्राप्त करते और बिना हिचकिचाहट और शोर के धर्माचरण से प्रेरणा प्रदान कर समाज का कल्याण करते थे ।

उस जमाने में गुरु परंपराओं का बडा महत्व था । गुरु का स्वीकार किये बिना आत्मसाक्षात्कार की साधना में आगे बढना और उत्तरोत्तर तरक्की करते हुए सफलता प्राप्त करना असंभवित था, ऐसी केवल मान्यता ही नहीं थी, श्रद्धा भी थी । संत कबीर ने भी गाया है ‘गुरु बिन कौन बतावे बाट !’

कबीर की यह पंक्ति उनके जीवन पर भी लागु होती है । गुरुकृपा से साधक-शिष्य अपनी साधना में सफल हो सकते थे । ऐसे सिद्ध गुरु के साथ साधुमंडली प्रायः तीर्थयात्रा पर निकलती तब आम जनता को उनके दर्शन का लाभ मिलता था । उनके उपदेश व आशीर्वाद भी मिलते । वे किसी मंदिर में,  धर्मशाला में या खुले मेदान में डेरा डालते ।

ऐसी मंडली में कभी सिद्ध पुरुष भी आते तो कभी तपस्वी महापुरुष भी । इनमें सर्वाधिक महत्व उनके गुरू का रहता । गुरु सचमुच तपस्वी, संयमी, ज्ञानी, भक्तिशाली एवं समर्थ होते थे । उनके समागम में रहना परम भाग्य की बात मानी जाती । वे गुरु अपने सदगुरुओं की प्राचीन परंपराओं को सप्राण रखते थे ।

ऐसे ही एक शक्तिसंपन्न सदगुरु की स्मृति आज एकाएक आ जाती है । केवल कौपीनधारी, पतली, गौर और दीप्त मुखमुद्रावाली आकृति मेरी नजरों के सामने खडी हो जाती है । उनकी शांत व तेजस्वी आँखे तथा उनके सस्मित होठ मेरे मनःचक्षु के समक्ष आ जाते है और एक घटना बरबस याद आ जाती है ।

यह घटना सन १९३६-३७ की है । उस वक्त बम्बई की चौपाटी पर एक बैरागी साधुओं की मंडली ने डेरा डाला था । बंबई की धर्मप्रेमी, पचरंगी प्रजा उनके दर्शन को आने लगी । उस वक्त मेरी उम्र छोटी थी फिर भी मुझे सत्संग में रुचि होने से मैं वहाँ जाता था । उस मंडली में जो गुरु थे वे कम उम्र के होने पर भी बडे ही तेजस्वी व प्रतापी थे ।

साधुओं को एक बार पानी की जरूरत थी । कुछ साधु चौपाटी समीप के मकान में पानी लेने गये । मकान में रहनेवालों ने पानी तो न दिया, उपर से गालियाँ दी और साधुओं को अपमानित करके निकाल दिया । निराश होकर साधु वापस लौटे और गुरु से हकीकत कही।

गुरु ने शांत भाव से कहा, ‘आज से पानी लेने कहीं मत जाना । इस बालू में कहीं भी गहरा खड्डा खोदो, इसमें से पानी निकलेगा ।’

‘लेकिन वह पानी तो खारा होगा न ? ऐसा खारा पानी तो सागर में भी है । वह पीने या रसोई करने के काम में थोडी ही आएगा ?’

यह सुनकर गुरु हँस दिये और उन्होंने संपूर्ण स्वस्थता से उत्तर दिया, ‘मेरे वचन पर विश्वास रखो और मेरे आदेश का पालन करो । वह पानी मीठा ही होगा और पीने तथा रसोई में काम आएगा । इश्वर में श्रद्धा रखके काम शुरू करो ।’

साधुओं ने जब गुरु की सुचनानुसार गड्ढा खोदा तो उनमें से स्वच्छ एवं मधुर जल निकला । गुरु भी प्रसन्न हुए, चलो अब पानी के लिए कहीं जाना नहीं पडेगा ।

और फिर तो यह चमत्कार की बात पहले साधुमंडली में और बाद में श्रोताजनों में फैलने लगी और देखते ही देखते मानव समुदाय वहाँ उमड पडा । कुछ लोगों ने तो उस खड्डे से थोडे दूर बालू में दूसरे खड्डे भी खोदे परंतु उनमें से मीठा पानी नहीं निकला । तब उनकी गुरु के प्रति श्रद्धा अत्यंत बढ गई ।

इस श्रद्धा को और भी अधिक दृढ बनानेवाली एक दूसरी घटना भी वही साधुमंडली के निवास दरम्यान घटी । एक बार साधुओं को मालपुआ खाने की इच्छा हुई पर घी के बिना यह कैसे संभव हो सकता था ? उन्होंने अपनी कठिनाई गुरु को बताई । हँसकर गुरु बोले, ‘इसमें क्या ? तुम तो मालपुआ ही खाना चाहते हो न ? खड्डे में से पानी लेकर उससे बना लो । वह घी ही है । बाद में हमारे पास घी आए तब सागरदेव को इस्तमाल किया हो उतना घी दे देना ।’

साधुओंने गुरु के वचन में विश्वास रखकर पानी की मदद से मालपुए बनाए । लोगों ने जब यह बात सुनी तो मारे खुशी के उछल पडे । अब तो साधुओं को सेवा और मेवा दोनों मिलने लगा । विपुल मात्रा में बनाये गए उन मालपुओं का प्रसाद सैंकडों लोगों में बाँटा गया । ऐसा प्रसाद पाकर लोग धन्यता का अनुभव करने लगे ।

उस मंडली के महंत ने लोगों से बातचीत करते हुए कहा, ‘साधुजीवन का रहस्य लोकोत्तर शक्ति या सिद्धि में नहीं छिपा है । साधुजीवन का मतलब होता है पवित्रता, ईश्वरप्रेम और सेवा का जीवन । शक्ति या सिद्धि तो ईश्वरकृपा से स्वतः आ जाती है परन्तु सच्चे साधु किसी भी स्वार्थ से प्रेरित होकर उसका प्रदर्शन नहीं करते, उसे महत्व भी नहीं देते और उसी में आत्मविकास की साधना का सर्वस्व समाहित है ऐसा भी नहीं मानते । यही ध्यातव्य है कि सच्चा सामर्थ्य स्वभाव को सुधारने में, मन व इन्द्रियों को वश करने में तथा ईश्वर-साक्षात्कार में विद्यमान है ।’

एकाध महिने रहकर वह मंडली जब बिदा हुई तब वहाँ उपस्थित लोगों की आँखे प्रेम व भक्ति से भीगी हो गई ।

आज भी गुरुदेव की वह शांत, निर्विकार मूर्ति का दर्शन करके दिल में उनके प्रति सम्मान की भावना छा जाती है ।

- श्री योगेश्वरजी

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