‘अगर पूना जाना हो तो इन्दिरा एवं दिलीपकुमार रॉय को अवश्य मिलना । आपको मिलकर उन्हें आनंद होगा । पहले तो प्रायः हर साल वे मसूरी आते और हमारे साथ कुछ दिन रहते थे किंतु पिछले तीन-चार साल से नहीं आये । पूना में वे हरेकृष्ण मंदिर में रहते हैं ।’ ये उदगार थे इन्दिरादेवी की माता और मसूरी की सबसे बडी होटल – सेवोय होटल के मालिक स्व. किरपाराम की सेवाभावी भक्त पत्नी के । गत साल ही वे मुझे उनकी होटल में ले गयीं उस वक्त उनके मुख से ये उदगार निकल पडे ।
उनके शब्दों में मातृवत्सलता प्रकट होती थी, साथ ही उनकी मेरे प्रति सम्मान की भावना भी व्यंजित होती थी । मैंने उत्तर देते हुए, एक प्रकार का दिलासा देते हुए कहा, ‘अगर पूना जाना होगा तो ईश्वरेच्छा से उन्हें अवश्य मिलूँगा । उन्हें मिलकर मुझे भी खुशी होगी ।’ मेरे उत्तर से उन्हें संतोष हुआ ।
वे स्वयं विवेकी, संस्कारी, धार्मिक एवं भक्तिपरायण थी । मसूरी के लायब्रेरी बाजार में नवनिर्मित लक्ष्मीनारायण मंदिर की रचना में उन्होंने एवं उनके पतिने योगदान दिया था और काफि दिलचस्पी ली थी । वे वहाँ मेरे प्रवचनों का आयोजन करते थे और प्रायः मेरे पास आया करते थे ।
ऐसी संस्कारी एवं दयालु माता को अपनी कृष्णप्रेमी पुत्री के लिए प्यार हो, यह बडी स्वाभाविक बात है । यद्यपि वे इन्दिरादेवी की सौतेली माँ थी फिर भी उन्हें इन्दिरा के लिए सच्ची ममता थी । उसी ममता से प्रेरित हो उन्होंने मुझे उपरोक्त शब्द कहे थे ।
यों तो मुझे गत साल भी पूना जाना हुआ था पर हरेकृष्ण मंदिर की मुलाकात का अवसर उपस्थित न हुआ । इस वर्ष पुनः पूना में रहना हुआ तो वह योग उपस्थित हो गया । अलबत्ता मेरे अंतर्मन में वहाँ जाने का विचार तो था हीं परंतु उसका आचरण अप्रत्याशित ढंग से हो गया । वह दिन सोमवार ता १९-२-१९६८ था । उसी रोज शाम के समय मोटर में घूमने निकले थे और हरेकृष्ण मंदिर की बात निकली तो मैंने मोटर उसी ओर ले लेने की सूचना दी ।
थोडी ही देर में हम उस मंदिर के रमणीय, शांत व विशाल मकान के पास आ पहुँचे । मंदिर के आंगन के उद्यान को देखकर हमें अत्यंत हर्ष हुआ । हरेकृष्ण मंदिर एक सुंदर मकान है, उसका आकार न तो मंदिर जैसा है न ही उस पर किसी परंपरागत शिखर है । उसके प्रधान प्रवेशखंड या होल में ही मंदिर है । वहाँ राधाकृष्ण की छोटी पर नयनरम्य प्रतिमाएँ हैं । नीचे एक ओर श्री अरविंद तथा दूसरी ओर मीरां की तसवीर है । दिवारों पर ईसामसीह, चैतन्य महाप्रभु इत्यादि संतो के चित्र हैं । राधाकृष्ण के पास देवी की मूर्ति भी हैं । समस्त स्थान सुंदर, शांत, प्रेरणात्मक एवं आहलादक है ।
हम होल में प्रवेशित हुए उस वक्त एक बहनने मंदिर की प्रतिमाओं का आवरण दूर किया । कुछ देर उस वातावरण का लाभ उठाते हुए खडे रहे और इन्दिरादेवी को अनुकूलता होने पर हमसे मिलने की सूचना भिजवाई ।
चार-पाँच मिनट में ही इन्दिरादेवी आईं । उन्होंने सर्वप्रथम राधा-कृष्ण को प्रणाम किये और बाद में हमको । मैंने भी प्रत्युत्तर में सप्रेम नमस्कार किया । मैंने मेरा परिचय दिया और उनकी माताजी का संदेश दिया । यह सुन वे प्रसन्न होकर बोली, ‘यहाँ भी थोडा लाभ दीजिए, हमारे कृष्ण को भी ज्ञान की जरूरत है ।’
‘वे (कृष्ण) तो परम ज्ञानी है । उनका ज्ञान तो अक्षय है, अमिट है । मैं तो लाभ देने नहीं, लेने आया हूँ ।’
‘फिर भी आपको लाभ देना ही पडेगा । थोडी देर और रुकिये । अभी ७-३० से ८-३० तक कीर्तन होगा । कीर्तन पहले तो हररोज होता था पर अब एकांतर दिन को और रविवार को सुबह साढे नव बजे होता है ।’
‘किन्तु आज तो मैं इसका लाभ नहीं ले सकूँगा क्योंकि आज रात को मेरा प्रवचन है । फिर कभी ।’
‘फिर कब आएँगें ?’
‘कल ही बंबई जा रहा हूँ । साल में एक बार यहाँ आना होता है इसलिए अब तो अगले साल इश्वरेच्छा होगी तो जरूर आउँगा ।’
यह सुनकर इन्दिरादेवी के मुख पर विषाद के भाव छा गये । उनमें जो नम्रता, मधुरता तथा प्रेमभाव प्रकट होता था, वह उसके अंतरतम का परिचायक था । उनको भक्ति का बोज नहीं लगता था, भक्ति उसकी नस-नस में व्याप्त हो गई थी । उन्हें देखकर व उनसे बातचीत करने पर यह स्पष्ट परिलक्षित हो गया ।
इन्दिरादेवी सचमुच देवी थीं – प्रेम व भक्ति की प्रतिमूर्ति, संसार के सरोवर में खिली कोई इन्दिरा (निल कमलिनी) । भगवान कृष्ण की कृपा की बात निकली तो मुझे एक घटना याद आ गइ । मैंने कहा, ‘भक्त के जीवन में सबकुछ ईश्वर की इच्छानुसार उसकी परम व असीम कृपा के परिणामस्वरूप होता है, यह सत्य है । मैं कोई बडा भक्त तो नहीं पर उनके अनुग्रह के ऐसे अनुभव मुझे बार-बार होते रहते हैं । सच कहूँ तो मेरा समस्त जीवन और उसमें जो कुछ भी होता है, वह उसीके अनुग्रह का फल है ।
उस संबंध में एक घटना कहना चाहूँगा । मसूरी में मेरे नित्य प्रवचनों का प्रारंभ नहीं हुआ था उस वक्त मेरा सर्वप्रथम जाहिर प्रवचन चित्रशाला में आयोजित किया गया । जनमाष्टमी का दिन था । चित्रशाला में मसूरी के बडे-बडे प्रतिष्ठित स्त्रीपुरुषों को निमंत्रित किया गया था । होल खचाखच भर गया था । गुरुजीने स्टेज के पीछे की दिवार पर उन्हीं के हाथों बनाया गया कृष्ण का चित्र रखा था । उसको ताजे गुलाब की माला पहनाई थी ।
प्रवचन पूरा हुआ और कृष्ण भगवान की धून भी पूरी हुई । इसी वक्त एक अदभूत घटना घटी । गुलाब की माला में से एक फूल मेरे सिर पर गिरकर स्टेज पर रुक गया । यह देख सबको ताज्जुब हुआ । मुझे लगा कि भगवान कृष्ण ने मुझे आशीर्वाद दिया ।
इसके बाद दूसरे वर्ष मसूरी में गांधीनिवास सोसायटी में मेरे प्रवचनो की पुर्णाहूति हुई तब गुरुजी ने इसी तरह मेरे पीछे की दिवार पर कृष्ण की वही तसवीर लगाई थी । उसकी ताजे फूलों की माला में से एक फूल मेरे सिर पर गिरा । भगवान कृष्ण ने मानों इस घटना द्वारा कहा, ‘मैं आपके इस सेवाकार्य से संतुष्ट हूँ ।’
यह घटना मुझे हमेशा याद आती है और प्रतीत होता है कि उसकी कृपा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता । इस बीच बाहर घूमने को निकले दादाजी-दिलीपकुमार रोय आ पहुँचे ।
इन्दिरादेवी ने जब उनको मेरा परिचय दिया तब पीले वस्त्रो में सज्ज, कोई तपस्वी जैसे लग रहे दादाजी को सचमुच आनंद हुआ । वे बोले, ‘हम मसूरी गये थे उस वक्त वे मिले थे ?’
‘नहीं, माताजी उन्हें पीछले चार साल से ही पहचानती है और अभी अभी हम मसूरी नहीं गये ।’
वे दोनों बंगाली में बात कर रहे थे ।
दिलीपकुमार ने पूछा, ‘आज यहाँ वे कुछ सुनाएँगें ?’
इन्दिरादेवी ने ना कहकर उसका कारण दिया ।
‘तो फिर कब आएँगें ?’
‘फिर आना तो ईश्वरेच्छा से अगले साल ही होगा ।’
दिलीपकुमार को मानों यह अच्छा न लगा । उन्होंने और इन्दिरादेवी ने कहा कि प्रवचन में थोडी देर बाद जाइएगा पर यह संभवित न था ।
उस देवी के प्रेम, सदभाव, विवेक एवं नम्रता से मैं बडा प्रभावित हुआ । उन दैवी आत्माओं को देख मुझे अत्यंत हर्ष हुआ । इन्दिरादेवी ने हमारे साथ घूमकर हमें मकान के ईर्दगिर्द की रमणीय जगह दिखाई । वहाँ स्थान स्थान पर हनुमानजी, सांईबाबा तथा देवी-देवताओं की मनोहर मूर्तियाँ थी जिससे वह स्थान आकर्षक लगता था ।
इन्दिरादेवी जब बाहर बिदा देने आए तब मैंने मेरे माताजी का परिचय देते हुए कहा, ‘ये मेरी माताजी है और मेरे साथ ही रहती हैं ।’
वे माताजी के निकट आकर भावविभोर हो बोल उठीं, ‘मैं भी आपकी बेटी हूँ ।’
इन्दिरादेवी व दिलीपकुमार रोय की वह छोटी-सी मुलाकात सचमुच चिरस्मरणीय हो गई । उनके सुखद सहवास में ज्यादा देर रहने का सदभाग्य मिला होता तो अच्छा होता किंतु सत्पुरुषों का समागम ईश्वरकृपा के बिना संभवित नहीं होता और होता है तब आनंदप्रदायक होता है ।
अरविंद आश्रम में इन्दिरादेवी ने श्री दिलीपकुमार रोय को अपने गुरु के रुप में स्वीकृत किया तब यह जानकर आश्रमवासीयों को बडा ताज्जुब हुआ था । यह बात जब श्री अरविंद के पास पहुँची तब उन्होंने कहा, ‘गुरु का संबंध अपने हृदय की भावनानुसार किसी के भी साथ स्थापित किया जा सकता है । यहाँ रहनेवालों को मुझे ही गुरु बनाना चाहिए, ऐसा नहीं है ।’ इन उदगारों में श्री अरविंद के हृदय की विशालता का दर्शन होता है ।
इन्दिरादेवी के अंतरात्मा ने गुरुभाव की जो अनुभूति की थी वह पिछले वर्षो में और आज भी ऐसा ही अडिग-अक्षय है । धन्य हो उस गुरु को और उस शिष्या को भी । आत्मिक मार्ग में जिन्हें रुचि हैं उनके लिए उनके दर्शन अत्यधिक प्रेरणादायक सिद्ध होगा ।
- श्री योगेश्वरजी