उतराखंड के पुनित प्रदेश में स्थित निसर्गरम्य स्थल – देवप्रयाग अत्यंत सुहावना है । हरद्वार-ऋषिकेश से बदरी-केदार की यात्रा के मार्ग में यह स्थल अवश्य आता है ।
उत्तुंग पर्वतमंडल की गोद में बसे उस स्थल में प्रवेशित होते ही प्रवासी का मन-मयूर नाच उठता है । अलकनंदा और भागीरथी के संगम-स्थल पर बसा देवप्रयाग सचमुच ‘यथा नामम् तथा गुणम्’ के अनुसार देवताओं के प्रयाग के समान ही नजर आता है ।
आज से करीब तीस साल पहले वहाँ एक एकांतप्रिय महात्मा रहते थे । उनकी उम्र छोटी थी फिर भी देवप्रयाग के लोग उन्हें बडे आदर से देखते थे । वे गाँव से दूर वन में किसी जमीनदार के मकान में रहते थे । उनका ज्यादातर वक्त साधना में-आत्मानुसंधान में ही बीतता था । लोगों के साथ संबंध नहींवत् था ।
एक बार उस मकान के मालिक जमीनदार ने उनसे कहा, ‘मेरे जीवन में सब प्रकार का सुख है पर एक का अभाव है । मुझे पुत्र-सुख नहीं है अतएव मेरी पत्नी का मन उद्विग्न रहता है । इससे घर में भी शांति नहीं रहती ।’
‘पुत्र होने से शांति मिल ही जाएगी ऐसा क्यों मानते हो ?’ महात्माने पूछा, ‘संतान से किसीको शांति मिली है ? तुम तो पंडित हो, विचारशील हो, इसलिए आसानी से समझ सकते हो कि शांति कहीं बाहर से नहीं पर भीतर से ही उपलब्ध होती है ।’
‘फिर भी मुझे पुत्र चाहिए और मुझे विश्वास है कि जब तक पुत्र-प्राप्ति नहीं होगी, मेरा चित्त अशांत ही रहेगा ।’ पंडित-जमीनदार बोले.
‘तुम्हें दो पुत्रीयाँ है उन्हें पुत्र-समान मान लो तो ?’
‘नहीं मान सकता इसलिये तो मन अप्रसन्न रहता है ।’ कुछ देर खामोश रहने के बाद जमीनदार आगे बोले, ‘मुझे अपनी इस औरत से नहीं मिलेगा ऐसा मेरे ग्रहयोग कहते हैं । मैं ज्योतिषशास्त्र में प्रवीण हूँ । कुंडली के अभ्यास और गिनती से मैंने जान लिया है कि यह स्त्री मुझे पुत्र नहीं दे सकती । दूसरी पत्नी करनी पडेगी ।’
जमीनदार की बात सुन महात्माजी ने कहा, ‘दूसरी पत्नी ? तुम जैसे पंडित और सयाने पुरुष एक पर दूसरी स्त्री करे यह अच्छा है क्या ? इससे तुम्हारी इस पत्नी को कितना दुःख होगा जरा सोचो तो । सामान्य लोगों पर इसका कैसा प्रभाव पडेगा ? आपका बर्ताव लोगों की नजरों में भी आदर्श व अनुकरणीय होना चाहिए ।’
महात्मा के इन शब्दों का जमीनदार पर कोई असर न हुआ । उन्होंने साफ-साफ कह दिया, ‘मैंने दूसरी पत्नी करना तय कर लिया है और आपके आशीर्वाद के लिये ही यहाँ आया हूँ ।’
‘ऐसे अनुचित कार्य के लिये मेरा आशीर्वाद ? तुम दूसरी शादी करके पहली स्त्री के जीवन को दुःखी बना दोगे और अगर दूसरी को भी पुत्र नहीं हुआ तो क्या करोगे ?’
‘दूसरी पत्नी को अवश्य पुत्र होगा ।’
‘तुमने कैसे जाना ?’
‘मेरे गुरु का भी यही अभिप्राय है । वे ज्योतिष के अभ्यासी और अनुभवी है । गढवाल में ही नहीं, पूरे भारत में उनके जैसे ज्योतिषाचार्य का मिलना मुश्किल है । पीछले दो दिनों से वे मेरे यहाँ पधारे हैं । मुझे उनमें बडी श्रद्धा-भक्ति हैं और उनके आशीर्वाद भी मुझे उपलब्ध हो चुके है ।’
‘तब तो तुम दूसरी शादी कर ही दोगे ?’
‘अवश्य, मेरा यही निर्धार है ।’ जमीनदार बोले ।
‘मुझे तुम्हारा यह विचार बिल्कुल पसंद नहीं है ।’ महात्मा ने दृढता से कहा ।
‘परंतु मेरे गुरु को पसंद है इसलिए मैं निश्चिंत हूँ ।’
‘मेरी अंतरात्मा कहती है कि तुम्हारे गुरुजी का कथन बराबर नहीं है । मेरी मानो तो अब भी निर्णय बदल दो और दूसरी शादी करना छोड दो । तुम्हें पुत्र-सुख मिलेगा पर वह नयी पत्नी से नहीं, पुरानी से ही मिलेगा । ईश्वर की अनंत कृपा से मैं यह जान सका हूँ ।’
‘आपकी बात पर मुझे विश्वास नहीं होता ।’ जमीनदार ने कहा ।
‘तो फिर देख लेना । मेरी भविष्यवाणी सच्ची साबित होगी ।’ इतना बोलकर महात्माजी अपने काम में लग गये और पंडितजी अपने घर वापस लौटे ।
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तदनन्तर पंद्रह दिनों में ही उस जमीनदार ने पुनर्विवाह किया । अलबत्ता, धूमधाम से नहीं, गुप्त रूप से । उनकी पहली पत्नी के चहेरे का रंग उड गया । वह आँसू बहाती रह गई ।
इस बात को हुए लंबा समय हुआ । नयी पत्नी को एक पुत्री हुई पर चल बसी । दूसरी पुत्री आई । पंडितजी पुत्र की आशा में दिन गुजारने लगे । शादी के करीब तीन साल बाद पंडितजी एक बार उन महात्मा के साथ देवप्रयाग के निकट स्थित चंद्रवदनी देवी के एकांत स्थान पर थोडे दिन रहने और एक शेठजी का अनुष्ठान करने आये । अनुष्ठान पुरा करके दो-तीन पंडितो के साथ जब वे पर्वत से नीचे उतर रहे थे तब एक सज्जन मिले, जिन्होंने कहा, ‘मैं आपको खुश-खबर देने आया हूँ । आपके घर आज पुत्रजन्म हुआ है ।’
यह शुभ समाचार सुन पंडित के आनंद की सीमा न रही । लंबे समय की उम्मीद बर आई । महात्मा ने पूछा, ‘पुत्र किसकी गोद में हुआ ? नयी पत्नी या पुरानी ?’
‘पुरानी स्त्री को,’ बधाई लानेवाले सज्जन ने उत्तर दिया ।
‘ईश्वर ने भला किया, उस स्त्री को न्याय मिला । अब वह शांति से, चैन से जी सकेगी ।’
यह सुनकर पंडितजी महात्मा के पैरों में पड गए ।
कुछ महिने बीतने पर नयी पत्नी क्षयरोग की बिमारी में चल बसी और कुछ ही दिनों में पुरानी पत्नी भी दिवंगत हुई । उसकी याद दिलानेवाला पुत्र आज बडा हो गया है और हाईस्कूल में पढता है । उन महात्मा पुरुष ने भी देवप्रयाग छोड दिया है । हाँ, इस घटना के साक्षी स्वरूप पंडितजी व उनके साथी आज भी देवप्रयाग में विद्यमान है ।
महात्मा पुरुषों के अमोघ वाणी का यह प्रेरणादायी प्रसंग है । जहाँ ज्योतिष का प्रकाश नहीं पहोंचता वहाँ अवधूत योगीओं की आत्मज्योति पहूँच जाती है । उनकी अमोघ शक्ति सब शक्तिओं से बढकर होती है, इसकी प्रतीति भी इस प्रसंग से होती है । ऐसे महात्मा पुरुषों की असीम शक्ति को मेरे बार-बार वंदन !
- श्री योगेश्वरजी