योगाभ्यास में रुचि
योगाभ्यास में मुझे पहले से रुचि थी । सिद्धियों की प्राप्ति या शरीर की सुखाकारी के लिए योग करने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी । योगाभ्यास के मेरे लगाव के पीछे मेरी आत्मसाक्षात्कार की तीव्र ईच्छा कारणभूत थी । मेरे दिल में माँ जगदंबा के दर्शन की आग लगी हुई थी । मैंने कहीं पढा की योगाभ्यास का आधार लेने से साधक बहुत कम समय में ईश्वरप्राप्ति कर सकता है । बस, यही वजह से मैं योग के प्रति आकर्षित हुआ । माँ के दर्शन के लिए मेरा मन बाँवला था । संसार की किसी चिज में मेरा मन नहीं लगता था । कोई व्यक्ति या वस्तु मुझे बहलानेमें असमर्थ थी । माँ की अनुपस्थिति में विरह की वह्नि मुझे सोने नहीं देती थी । सारे दिन मैं माँ, माँ करके पुकारता रहता और सभी जगह उसे ढूँढने की कोशिश करता मगर शाम होने पर उसे न देख पाने पर मेरे संयम का बाँध तूट जाता । आँखो से अश्रु की बौछार निकल पडती । मेरा हृदय आक्रंद करने लगता कि हाय, माँ के दर्शन बिना जींदगी का एक दिन बीत गया । एसे जीवन का क्या मतलब ? वो दिन कुछ अजीब थे । उस वक्त के मेरे भावों को यहाँ पूर्णतया बता पाना मुश्किल है । यूँ कहो कि माँ के दर्शन के लिए मैं पागल हो चुका था । जिस तरह एक बिमार आदमी अच्छा होने के लिए कुछ भी करने को राजी हो जाय, उसी तरह माँ के दर्शन पाने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार था । जिस किसी साधना या अभ्यास से माँ का दर्शन हो, उसे करने के लिए मैं राजी था । एसे हालात में मैं योगसाधना का आधार क्यूँ नहीं लेता ? दिल के दर्द को मिटाने का एक तरीका दिखाई पडा तो मैं तुरन्त चल पडा योगाभ्यास करने ।
मगर योगाभ्यास कैसे किया जाय ? योगाभ्यास करने के लिए आवश्यक ज्ञान कहाँ से जुटाया जाय ? केवल ईच्छा करने से क्या काम हो जाता है ? कार्य सिद्धि के लिए प्रयास करना अति आवश्यक है और योगाभ्यास के लिए गुरु या तो कोई अनुभवी व्यक्ति का मार्गदर्शन जरूरी था । जिसने खुद योग का अभ्यास न किया हो, उसमें निपुणता हासिल न की हो, वो भला ओरों को कैसे योग सिखा पायेगा ? मगर एसे सिद्ध और अनुभवी पुरुष से मेरी मुलाकात कैसे और कब होगी ? अगर मन में दृढ ईच्छा हो और ईश्वर की कृपा हो तो कुछ भी असंभव नहीं । जो साधक सच्चे हृदय से सिद्ध पुरुष या किसी गुरु को मिलने की कामना करता है, उसे कभी निराशा नहीं मिलती । आज, मेरे कई अनुभवों से मैं यह बात कह सकता हूँ । उन दिनों भी इसकी यथार्थता के लिए मुझे बहुत ईंतजार नहीं करना पडा ।
उस वक्त बंबई में अलग अलग तीन स्थान पर योगाश्रम चलते थे और उनमें से एक चर्नीरोड स्टेशन के पीछे एक मकान में था । जब मैंने ये बात सुनी तो तुरंत वहाँ जाकर मिलने का निश्चय किया । योगाश्रम के संचालक को सब गुरुजी कहकर बुलाते थे । वो योगविद्या में कुशल थे और बडे नम्र, सरल और भले आदमी थे । मुझे देखकर वो आनंदित हुए और मेरी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए मेरे सभी प्रश्नों का उन्हों ने अच्छी तरह से उत्तर दिया । मैंने कहा की योगाभ्यास करने का मेरा आशय ईश्वर दर्शन का है । उसके बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा । क्या आपने ईश्वरदर्शन किया है ? क्या ईश्वरदर्शन के लिए आप मुझे कोई निश्चित मार्ग बता सकते है ? आप यहाँ आसन, प्राणायाम, षटक्रिया वगैरह सिखाते है, मगर उनमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है । मुझे तो सिर्फ ईश्वर का साक्षात्कार करना है, इसके अलावा मुझे ओर कुछ नहीं चाहिए ।
मेरी बात सुनकर वो बडे प्रसन्न हुए । उन्होंने मेरी ओर प्यार से देखा और फिर बोले, 'इस मोहमयी बंबई नगरी में लोग संसार के सुखो को सर्वस्व मानते है और उनके पीछे भागते हुए दिखाई देते है । आप पहले शख्श हो जिसे इश्वर को पाने की भूख है । लोग धन, प्रतिष्ठा, सत्ता और स्त्री की मोहिनी में फँसे हुए है, उसे छोड़कर ईश्वर को पाने की बात कोन सोचता है ? आप बडे भाग्यवान है की आपको ईतनी छोटी उम्र में परमात्मा के दर्शन की लगन है । यहाँ योगाश्रम में ईश्वरदर्शन के लिए तालीम नहीं दी जाती मगर आसन, प्राणायम वगैरह सिखाया जाता है । इससे आपको अवश्य लाभ होगा ।'
उनकी बात सुनकर मुझे अच्छा लगा । मोहमयी बंबई नगरी में शायद ही किसी व्यक्ति को ईश्वरदर्शन की ईच्छा होगी । ज्यादातर लोग अपनी निजी जिन्दगी में रोजबरोज के प्रश्नों से नहीं निकल पाते तो फिर वो ईश्वरदर्शन के बारे में क्या सोचेंगे ? जिसे सांसारिक सुख मिला है वो उसमें फँसा रहता है, उन्हें आत्मिक भूख कभी नहीं लगती । और ये बात सिर्फ बंबई की नहीं है, सभी बडे शहरों के लिए सत्य है । योगाश्रम में आनेवाले अधिकतर लोग या तो शौक से या तो अपने स्वास्थ्यसुधार के लिए आते थे । आत्मसाक्षात्कार या तो ईश्वरदर्शन की उत्कट तमन्ना लिए शायद ही कोई वहाँ आया होगा । योगाश्रम के संचालक को मुझे देखकर आश्चर्य हुआ मगर इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी । जिनके पूर्वजन्म के संस्कार प्रबल है वो किसी बडे शहर में पैदा होकर भी साधना के लिए विपरीत परिस्थितियों में अपना मार्ग निकाल सकता है । बंबई का माहौल आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल नहीं था मगर मेरे पूर्वजन्म के संस्कार प्रबल थे इसलिए मैं उस माहौल से अछूत रहकर अपने पथ पर चलता रहा ।
हाँलाकि योगाश्रम के आचार्य ने बताया कि वहाँ ईश्वरदर्शन के लिए कोई विशेष तालीम नहीं दी जाती मगर फिर भी मैंने वहाँ जाना प्रारंभ किया । मुझे कसरत का शौक था । योगाश्रम में जाने से पूर्व मैं हररोज शिर्षासन करता था इसलिए बाकी आसन सिखने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । आश्रम में कुछ विदेशी साधक भी आते थे और उनमें से कुछ धोतीक्रिया करने में पारंगत थे । उन्हें मुझ पर प्रेम था । एक बार जब मैं पश्चिमोत्तानासन करने की कोशिश कर रहा था तब वो पीछे से आकर मेरी पीठ पर बैठ गये । मेरा नाक तुरन्त जाकर धुटनों पर लग गया । तब से मेरे लिए पश्चिमोत्तानासन करना सुलभ हो गया ।
योगाश्रम में मैं कितने दिनों तक गया वो मुझे याद नहीं पड़ता मगर कुछ दिनों के बाद मैंने वहाँ जाना छोड दिया । मेरे दिल से आवाज आई की हृदयशुद्धि और सच्चे प्यार से ईश्वर की प्राप्ति अवश्य हो जायेगी, इसके लिए योगाश्रम में जानेकी कोई आवश्यकता नहीं । मेरा मन कहेता था की छोटा बच्चा जिस तरह अपनी माँ के लिए रोता है, बिल्कुल उसी तरह इश्वर के लिए रोने से, और प्रार्थना करने से मुझे माँ का दर्शन जरूर होगा । नरसी महेता, मीरांबाई, चैतन्य महाप्रभु या रामकृष्णदेव की तरह मुझे अपने रोमरोम में परमात्मा का प्रेम भर देना चाहिए और माँ की याद में अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए । एसा करने से थोडे दिनों में मुझे माँ के दर्शन हो जायेंगे । अतः थोडे दिनों के बाद मैंने योगाश्रम जाना बन्द किया ।
मैंने योगाश्रम जाना बन्द किया इसका ये मतलब कतै नहि की मुझे योगसाधना के प्रति अरुचि हुई । नहीं, एसा बिल्कुल नहीं था । योगसाधना में मेरा रस योगाश्रम छोडने के बाद बना रहा और बढता गया । उस दिन से लेकर आज तक आसन करने का मेरा क्रम जारी है । इससे मुझे न केवल शारीरिक मगर मानसिक लाभ पहूँचा है । बंबई छोडने के बाद मुझे बडौदा में नेति, धोति जैसी षटक्रिया सिखने का मौका मिला, जिसका जीक्र आनेवाले पन्नों में किया गया है । यहाँ पर ये प्रकरण समाप्त करने से पहले मैं ये बताना जरूरी समझता हूँ की केवल आत्मिक उन्नति के लिए ही नहीं मगर स्वास्थ्य सुधार के लिए भी योगाभ्यास करना आवश्यक है । और एक साधक के लिए यह जितना लाभप्रद है उतना ही एक आम आदमी के लिए । हमारे देश के कोने-कोने में, हरएक शिक्षासंस्था में छात्रों को जिस तरह व्यायाम सिखाया जाता है, उसी तरह योगाभ्यास भी सिखाया जाना चाहिए, योग को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए । इससे बच्चों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य और सुधार में बडी मदद मिलेगी । एसा दिन ईश्वर जल्दी दिखायें ये मेरी कामना है ।