संतपुरुषो का समागम
जब मैं बंबई में था तब मुझे संतपुरुषों के समागम की बडी ईच्छा होती थी । संतो की महिमा न्यारी है । संसार के ताप से तप्त लोगों को वे शीतल छाया प्रदान करते है; चैन, आराम और सुकुन देते है; उन्हें आसुरी तत्वों से बचाकर, बाहर निकालकर, उन्नत व दिव्य जीवन का मार्ग दिखाते है । संतपुरुषों के चरणों से परमात्मा की ओर जाने का मार्ग निकलता है । उनकी दिव्य संनिधि में आदमी सांसारिक बंधनो से मुक्त होकर पूर्णता के पथ पर कदम रखता है । इसलिए संत-समागम हमेशा सुखदायक और मंगल होता है । शंकराचार्य ने कहा है कि संतो के दर्शन भाग्यवान को होते है और संत-समागम अति दुर्लभ चिज है । बदकिस्मती से मैं बंबई जैसे शहर में रहता था, जहाँ उनसे भेंट तो दूर, उनके दर्शन कर पाना मुश्किल था । मेरे कहने का ये मतलब नहीं है कि सच्चे संतपुरुष कोई पर्वत की चोटी पर या बस्ती से दूर किसी सरिता के तट पर या गाँवो में बसते है । एसा नहीं, वे तो अपनी मरजी के मालिक होते है, और ईश्वर की ईच्छा से जगह-जगह घुमते रहते है । उनके लिए शहर हो या गाँव - कोई फर्क नहीं पडता । उनके दर्शन कहीं पर भी हो सकते है – मगर तीर्थो में, बस्ती से दूर निर्जन प्रदेशो में या किसी पहाडी इलाकों में उनके मिलन की संभावना ज्यादा रहेती है । यूँ तो संतपुरुष शहर में भी पैदा होते है और वहीं अपना कार्य करते है । अगर ईश्वर की कृपा हो तो एसे संतो का दर्शन और संनिधि सुख शहर में भी मिल सकता है ।
अब तक मैं कई संतपुरुषों की जीवनकथा पढ़ चुका था । यूँ कहो की किताबों में माध्यम से मैं संतो के परोक्ष समागम में था मगर कभी उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हुई थी । एसे कोई संतपुरुष से अगर मेरी मुलाकात भी हो तो उनके वास्तविक स्वरूप को पहचान पाना मेरी बस के बाहर था । फिर भी, जो दो-तीन व्यक्तिविशेष से मेरी भेंट हुई वो मै यहाँ बता रहा हूँ ।
संन्यासी महात्मा से भेंट
उस वक्त मैं कॉलेज के प्रथम वर्ष में था और जैसे की मैंने आगे उल्लेख किया मैं हररोज चौपाटी या नरीमान पोंईट पे धुमने जाता था । उन दिनों एक महात्मा पुरुष चौपाटी पर घुमने आते थे और हररोज सुबह वहाँ की रेत में करीबन पंद्रह मिनट तक शीर्षासन करते थे । उनका वदन गौर और मुख तेजस्वी था । उनकी उम्र करीब 40-45 साल की होगी । ओर लोगों की तरह मैं भी उन्हें शीर्षासन करते हुए देखता । कुछ ही दिनों में हमारी जानपहचान हो गई । जब मैंने बताया कि मैंने योगाश्रम में जाकर आसन व प्राणायाम का अभ्यास किया है तो वो बडे प्रसन्न हुए । उनके पास बैठने में मुझे आनन्द मिलता था । उनकी मुखमुद्रा सात्विक और स्वभाव शांत था । कभी कभी मैं दोपहर को हेन्गींग गार्डन घुमने जाता तो उन्हें किसी पैड की छाया में लेटे हुए पाता ।
सूर्यास्त के वक्त रंगबिरंगी बादल और आकाश में छाई रंगोली को निहारने में मुझे बड़ा मजा आता । ईसलिए शाम के वक्त मैं अक्सर नरीमान पोंईट चला जाता और समुद्रतट पर बैठकर ध्यान करता । एक दिन जब मैं ध्यान खत्म करने के बाद समुद्र के तरंगो को देख रहा था तब वो वहाँ से निकले । उन्हों ने मुझे देखा तो मेरे पास आकर वो मुझे कहने लगे, आप ध्यान करते हो वो अच्छी बात है मगर ये जगह पर बैठकर ध्यान करना अच्छा नहीं । अगर आपको नींद आ गई तो आप यहाँ से गिर सकते हो । अगर एसा हुआ तो सोचो क्या होगा ? मेरी मानो तो किसी ओर स्थान में बैठकर ध्यान करो ।
उन्हें ध्यान का पूर्वानुभव था इसलिए मुझे उनकी बात हँसी में उडाने जैसी नहीं लगी । मेरे प्रति स्नेह के कारण उन्होंने सावधानी बरतने की बात बताई थी । मगर मुझे लगा की मुझे डरने की जरूरत नहीं है । पीछले चार सालों से मैं नियमित ध्यान में बैठता था और पूर्ण जागृति से ध्यान करना मेरे लिए स्वाभाविक था । इसलिए मुझे लगा कि ध्यान करते वक्त आँख लग जाने से मैं गीर नहीं पडूँगा । मैंने यह बात उनको बताई और कहा कि, ‘कृपया मेरे बारे में आप फिक्र न करें । आप की बात सही है कि शुरू शरू में साधकों को ध्यान में नींद आती है, मगर मेरे लिए ध्यान करना कोई नयी बात नहीं है, उसे में लंबे अरसे से करते आया हूँ । विशेषतः मुझे पूर्ण भरोसा है कि ईश्वर मेरी रक्षा करता है इसलिए मेरी चिंता करने की आपको कोई जरूरत नहीं ।’
मेरा उत्तर सुनकर उन्हें तसल्ली मिली मगर उन्होंने ध्यान करते वक्त सावधान रहने की बात दोहरायी । मैंने उसका स्वीकार किया क्योंकि सावधान रहेना हमेशा लाभदायी होता है ।
लंबे अरसे तक वो बंबई में रहे और हमारी मुलाकातें होती रही । मुझे उनकी आखिरी मुलाकात आज भी याद है । उन दिनों कॉलेज में इम्तिहान चल रहे थी । इतिहास का प्रश्नपत्र खत्म करके मैं चौपाटी पर घुमने गया था तब उनसे मेरी मुलाकात हुई । मैंने बताया की मेरी इम्तिहान चल रही है और आज मेरा इतिहास का प्रश्नपत्र था तो वो प्रश्नपत्र देखकर मुझे प्रश्न पूछने लगा । वो जानना चाहते थे कि मैंने परीक्षा में सही लिखा है या गलत । कुछ ओर बातें हुई और बाद में हम चल पडे । वो हमारी आखिरी मुलाकात थी, उसके बाद आज तक हम फिर कभी नहीं मिले । मेरे दिल में आज भी उनके प्रति सम्मान की भावना है । जब भी उनकी याद आती है तो अंदर से आवाज निकलती है कि भारत में आज भी पढे-लिखे और अच्छे संतपुरुषों की कमी नहीं है । भारतीय संस्कृति की रक्षा करनेवाले, शास्त्रीय ज्ञान से युक्त, त्याग और सेवा की मूर्ति जैसे संतपुरुष आज भी विद्यमान है । शायद आत्मिक अनुभव की दृष्टि से देखा जाय तो वे पूर्ण नहीं थे मगर इससे उनका मूल्य कम नहीं होता । उनके बाह्य रूप में शायद कोई अधूरापन हो, मगर उनकी आत्मा सात्विक और प्राणवान थी इसमें कोई दोराई नहीं । किसी बुरे अनुभव से प्रभावित होकर अन्य सभी साधुसंत और त्यागीओ के लिए बुरे अभिप्राय देना और उनकी निंदा करना कतै योग्य नही है ।
प्रवासी महापुरुष से भेंट
एक ओर संतपुरुष से मेरी उन दिनो में भेंट हुई । हेन्गींग गार्डन में बैठने की मेरी प्रिय जगह पर जब मैं एक शाम पहूँचा तो एक संतपुरुष को मैंने वहाँ बैठे हुए पाया । वो श्वेत वस्त्रधारी थे और उनकी मुखाकृति शांत थी । देश के कोने-कोने में उन्होंने भ्रमण किया था । बंबई आकर अपने किसी भक्त के वहाँ वो ठहरे थे । बंबई आने के पूर्व वो यात्रा-प्रवास हेतु ब्रह्मदेश गये थे । उनके पास काका कालेलकर (सुप्रसिद्ध गुजराती लेखक) लिखीत 'ब्रह्मदेश नो प्रवास' पुस्तक था । इससे मालूम पडता थी की वो पढे-लिखे थे और साहित्य में दिलचस्पी रखते थे । मेरे पूछने पर उन्होंने भारत के कई प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध स्थानों के बारे में मुझे जानकारी दी । बंबई से निकलकर वो रामेश्वर जानेवाले थे ।
उन्हें देखकर और उनकी बातें सुनकर मैं परिव्राजक जीवन की ओर आकर्षित हुआ । कितना सुन्दर और मनभावन था उनका जीवन – न कोई राग, न कोई द्वेष, न किसीसे कोई अपेक्षा या तृष्णा । ईश्वर के अलावा किसी ओर की गुलामी नहीं और ना ही किसी प्रकार का कोई बन्धन । बस, बहते हुए झरनें की तरह जगह-जगह पर चलना और कहीं पर भी रुकना नहीं । कितना गौरवपूर्ण, स्वमानी और आज़ाद था उनका जीवन ?
आज मनुष्य का जीवन पराधीन हो गया है और पराधीन जीवन में आनन्द कहाँ ? फिर भी आदमी सोचता नहीं है, पराधीनता से मुक्त होना नहीं चाहता । क्या ये आश्चर्य की बात नहीं है ?
उनसे बात करते-करते मुझे एक प्रश्न हुआ ।
मैंने पूछा, क्या परिव्राजक जीवन में ध्यान, जप वगैरह आत्मोन्नति के साधन ठीक तरह से होते है ? क्योंकि केवल परिभ्रमण करने से शायद ही कोई विवेकी मनुष्य को आनंद मिलेगा ।
उन्होंने बडे मधुर स्वर में कहा, हाँ, अवश्य होते है । यात्रा के दौरान वक्त निकालकर साधना करनी पडती है । जिन्हें साधना करने में रुचि है वो किसी भी तरह अपना वक्त निकाल लेगा । वैसे भी घर पर या किसी एक स्थान में पडे रहनेवाले लोगों में से ज्यादातर लोग कहाँ साधना करते है ? मतलब कुछ हद तक यात्रा-प्रवास करने से साधना में बाधा नहीं आती, यह प्रश्न साधक की रुचि पर निर्भर है ।
मैंने पूछा, क्या आप साधना करने में जुटे हो ?
उन्होंने कहा, हाँ.
मैंने पूछा, क्या आपको निर्विकल्प समाधिदशा की प्राप्ति हुई है ?
उन्होंने बडी विनम्रता से कहा, अभी तक तो नहीं हुई, मगर उसकी प्राप्ति के लिए मेरे प्रयास जारी है । अब तक ध्यान में मुझे कई अच्छे अनुभव मिले है । मुझे श्रद्धा है कि मैं उस दशाकी प्राप्ति जल्द कर लूँगा ।
उनके उत्तर सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई । मुझे निश्चित लगा की वो एक अनुभवसंपन्न महापुरुष है । उनकी नम्रता और आडंबर-रहित बर्ताव से मेरे दिलमें उनके प्रति सम्मान की भावना पैदा हुई ।
बिदाई लेते हुए उन्होंने मुझे ध्यान में लगे रहने की सलाह दी । वो बोले, यह पथ आसान नहीं, बडा विकट है और इसमें लंबे अरसे तक जुटे रहने की जरूरत है । ईश्वर है, उसके अस्तित्व के बारे में शंका मत करना । जो साधक ईश्वर पर श्रद्धा रखकर साधना में जुटा रहेगा वो एक दिन अवश्य अपनी मंझिल तक पहूँचने में कामयाब होगा ।
उनके वचन अनुभवसिद्ध थे, उनपे शंका करने की कोई वजह नहीं थी । काफि देर तक बात करने के पश्चात मैंने बिदाई ली । आज वो महापुरुष विद्यमान है या नहीं है, और अगर हैं भी तो कहाँ है वो मुझे मालूम नहीं । मगर अगर उनकी साधना जारी है तो वो उच्च आत्मिक अवस्था पर बिराजमान होंगे, ये निशंक है ।