बंबई को अलविदा
साहित्य सर्जन के अलावा कई ईतर प्रवृत्तियों में मैं शामिल था । हर साल जी. टी. बोर्डिंग होस्टेल में वक्तृत्व स्पर्धा का आयोजन होता था और वार्षिकोत्सव मनाया जाता था । होस्टेल के मेरे निवास के पहले साल, मैं वक्तृत्व स्पर्धा में विजयी हुआ । साथ में विल्सन कॉलेज की वक्तृत्व स्पर्धा में मैंने प्रथम नंबर पाया । कॉलेज के वार्षिक अंक के लिए मेरे निबंध ‘गांधीयुग का साहित्य में स्थान’ के लिए मुझे गुजराती शाखा में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया । मेरी कॉलेज की कारकीर्दि एसे कई पहलूओं से भरी थी । गुजराती के हमारे अध्यापक श्री पी. के. शाह भले और सज्जन पुरुष थे । उन्हें मेरे लिए विशेष प्यार था । वो चाहते थे कि मैं गुजराती विषय लेकर बी. ए. करुँ । मुझे अपने आप में और मेरे भविष्य पर अप्रतिम श्रद्धा थी । मेरे मन में कई दफा गुजराती के प्राध्यापक बनने का खयाल आया मगर ईश्वर की योजना इससे भिन्न थी । ईश्वरेच्छा मुझे आध्यात्मिक पथ पर, पूर्णता और प्रकाश के पथ पर ले जाने के बाध्य कर रही थी । और उस हेतु की पूर्ति के लिए मुझे कॉलेज को अलविदा कहकर, बंबई की मोहमयी नगरी से कहीं दूर, हिमालय की युनिवर्सीटी में दाखिल होना था, विशेष अभ्यास करना था । भला ईश्वरेच्छा को कौन टाल सकता है ?
कॉलेज के दिनों में मेरी वैराग्य-भावना दिनप्रतिदिन बढती रही, पुष्ट होती चली । परमात्मा का साक्षात्कार जीवन का अंतिम ध्येय है, ये मेरे मन में दृढ हो चुका था । कॉलेज की पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था । मैं कॉलेज अवश्य जाता मगर मेरी दिलचस्पी कहीं ओर थी । मुझे लगने लगा की पढाई में मेरे जीवन का बहुमूल्य वक्त बरबाद हो रहा है । वैसे भी ज्यादातर छात्र अपना वक्त पढने के बजाय अध्यापको को सताने में, उन पर कागज़ के विमान उडाने में, तास के दौरान पैर हिलाकर आवाज करने में या तो फिर अग्र पंक्ति में विराजमान लडकीयों को घुरने में गवाँते थे । क्लास में पढाई से ज्यादा मस्ती होती थी, अतः कॉलेज जाने में मुझे मजा नहीं आता था । मैं ज्यादातर प्रवेशद्वार के बगल में लगी बेन्च पर बैठता जहाँ से चौपाटी का समंदर साफ दिखाई पडता था । नभ में बादलों की अवनविन रचनाएँ देखकर मुझे हिमालय की याद आती थी । मैं अक्सर सोचता कि हिमालय का प्रदेश कितना सुंदर होगा ? वहाँ ऋषिमुनियों के निवासस्थान होंगे, बहुत सारे योगीपुरुष साधना करते होगें । तपस्वीयों के तप के प्रभाव से वो प्रदेश प्रबल आध्यात्मिक परमाणुओं से भरा होगा । अगर एसे दिव्य प्रदेश में निवास करने का मुझे सौभाग्य मिले, किसी सिद्ध संतपुरुष का सत्संग और समागम लाभ मिले तो कितना अच्छा ? अगर एसा हुआ तो मेरा साधना-पथ आसान हो जायेगा, ईश्वर-प्राप्ति जल्द-से-जल्द हो पायेगी । मैं जीवन की धन्यता का अनुभव करूँ पाउँगा ।
यहाँ कॉलेज में पढाई करने से क्या मिलेगा ? ज्यादा से ज्यादा मैं गुजराती का प्राध्यापक बन पाउँगा । इससे मेरी आर्थिक समस्या अवश्य हल हो जायेगी मगर क्या दिल को चैन और आराम मिलेगा ? शांति की समस्या का समाधान होगा ? ईश्वर दर्शन तथा मुक्त और पूर्ण जीवन के मेरे स्वप्न सिद्ध होगें ? अगर इन सब प्रश्नों के उत्तर नकारात्म है तो फिर एसी पढाई में वक्त कयूँ बरबाद करूँ ? क्या ये बहेतर नहीं की मैं हिमालय चला जाउँ, वहाँ जाकर आत्मोन्नति की साधना में एकजूट हो जाउँ, जल्द-से-जल्द ईश्वर-प्राप्ति कर लूँ ? मुझे लगा कि हिमालय जाने से मेरे सभी स्वप्न पूर्ण हो जायेंगे ।
हिमालय की याद से मेरा हृदय भर आता । मैं माँ से प्रार्थना करता कि मेरा यह सपना सिद्ध हो, मुझे हिमालय जाकर साधना करने का सु-अवसर मिलें । एसे खयालों में मैं खोया रहता और भावि जीवन के लिए सुनहरे सपने बुना करता था । उस वक्त, मेरे भविष्य का मुझे कुछ पता नहीं था, मगर आज मैं ये मानता हूँ कि वो सपने मेरे भावि जीवन के सूचक थे, वक्त आने पर ईश्वरेच्छा से सिद्ध होनेवाले थे ।
कॉलेज का वो साल मेरे लिए क्रांतिकारी सिद्ध हुआ । मैं भावनाओं के बलबूते पर सपने बुनता रहा और पढाई में मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया । नतीजा यह निकला की बिना कुछ खास पढाई किये मैंने इम्तहान दिया और मैं एक-दो विषयों में फैल हो गया । मेरे गुजराती के प्रोफेसर ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की मगर परिणाम बदलने में वो नाकामियाब रहे । जब परिणाम निकला तब मैं छुट्टीयों में बडौदा गया था । अनुत्तीर्ण होने की खबर सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा क्यूँकि पढाई में निष्फल रहने का ये मेरा पहला प्रसंग था ।
मेरी जानकारी के मुताबिक अनुत्तीर्ण छात्र को जी. टी. होस्टेल छात्रालय में पुनःप्रवेश नहीं मिलता था । मैंने बंबई जाने का या छात्रालय में फिर दाखिला लेने का प्रयत्न नहीं किया । अगर मैंने कोशिश की होती तो मुझे दाखिला मिल गया होता क्यूँकि बाद में मुझे ज्ञात हुआ की छात्रालय में अनुत्तीर्ण छात्र को पुनःप्रवेश दिया जाता था । संस्था के संचालक मुझे अच्छी तरह से पहचानते थे और मेरी प्रतिभा एक अच्छे और चारित्र्यवान छात्र की थी । मगर किसी प्रारब्धवश, ईश्वरेच्छा से, संस्था के नियमो की मेरी अज्ञता से या फिर मेरे संकोचशील स्वभाव के कारण मैं बंबई गया ही नहीं । बंबई का निवास और कॉलेज की पढाई – दोनों वहीं खत्म हुए । कॉलेज में मेरा फैल हो जाना मेरे लिए परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ, उसने मेरी जीन्दगी का रुख मोड़ दिया ।