इतनी चर्चा के बाद गीता माता एक दूसरा विचार प्रस्तुत करती है । यह यज्ञ की बात है । गीता कहती है कि सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा ने प्रजा को बताया कि तुम्हारे साथ इस यज्ञ की भी उत्पत्ति की गई है । उस यज्ञ का आश्रय लेकर तुम सुखी हो सकोगे । यज्ञ से देवता प्रसन्न होंगे और प्रसन्न होकर तुम्हे सुख समृद्धि का उत्तम दान देंगे । पुराने ज़माने में ब्रह्मा के आदेश के मुताबिक यज्ञ होते थे । आज कल वे बंद हो गए हैं या कम होते हैं । यज्ञ संपादन के लिए आज का वातावरण भी शायद अनुकूल नहीं है । इस परिस्थितिमें क्या करना चाहिए? गीता इसके लिए सुंदर सुझाव पेश करती है । वह कहती है कि देखिए यज्ञ के पीछे भावना क्या है । अपने पास जो भी हो उसे देवों को अर्पण करना, यही न? हाँ तो तुम्हारे पास जो कुछ भी अच्छा हो उसे देवों के भी देव ऐसे परमात्मा को समर्पण करो और परमात्मा एवं परमात्मा की सृष्टि की सेवा में उसका उपयोग करो । ऐसा करने पर यही माना जायेगा कि तुमने महा यज्ञ किया है । मनुष्य संसार में रहकर कर्म तो करेगा ही । कर्म करने मे हर्ज भी क्या है? किन्तु जो कार्य किया जाय वह यज्ञ की भावना से करना चाहिए । ऐसा करने से कर्म मनुष्य के लिए मंगलमय हो जायगा ।
कर्म को यज्ञ की भावना से करने का मतलब है कि अपनी और दूसरे की, समाज की और देश की तथा संसार के स्वामी परमात्मा की सेवा के लिए करना, ईश्वर के द्वारा सौंपे हुए फ़र्ज को अदा करने की दृष्टि से करना, ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए करना, कर्मपाश से मुक्त होने के लिए करना । कर्म के पाश से मुक्त होने का अर्थ क्या है? कर्म का पाश क्या है? सबसे प्रथम अहंकार । मनुष्य जो काम करता है वह प्रायः अहंभावना से प्रेरित होकर करता है । कुछ अच्छा हुआ तो मैंने किया है, ऐसा अभिमान उसे हो जाता है । उस अभिमान को छोड़ने के सिवा कोई चारा नहीं । अभिमान का त्याग कर उसे विनम्र बन जाना चाहिए । ईश्वर की शक्ति और कृपा के बिना मनुष्य एक पत्ता भी नहीं हिला सकता, ऐसा समझकर उसे अहंकार का त्याग करना चाहिए । वह तो केवल निमित्त मात्र है और उसके द्वारा ईश्वर ही काम किया करता है, ऐसा उसे अनुभव करना चाहिए । धन का, बल का, रूप का, विद्या का, कुल का या किसी भी वस्तु का अहंकार उसे बंधन में डालेगा, यह उसे समज़ लेना चाहिए । इसके अतिरिक्त कर्म का दूसरा पाश है कर्म के फल की आसक्ति । मनुष्य कर्म के फल की इच्छा रखे इसमें कोई हर्ज नहीं है लेकिन जो फल मिले उसके बारे में बकवास करने या उसे देखकर इतराने की आदत हानिकर है । वह आदत ही मनुष्य को सुख दुःख के झूले पर झुलाया करती है । अतः उसका त्याग करना चाह्ए । अर्थात् मनुष्य को कर्म के फल के असर से अलिप्त रहना चाहिए । कर्मयोग में इसका महत्व अत्यधिक है । दूसरे अध्याय में कर्मयोग का कुछ उल्लेख हुआ है । इस अध्याय में गीता माता एक और बात बताती है कि कर्म के साथ यज्ञ की भावना को मिला देना चाहिए । यज्ञ करने की ब्रह्मा ने आज्ञा दी है । उसकी याद दिलाकर वह कहती है कि शास्त्रों में लिखे हुए विशेष प्रकार के यज्ञ अगर नहीं हो तो कोई हर्ज नहीं । अपने छोटे बड़े सभी कर्मों में यज्ञ की भावना रखनी चाहिए । इस प्रकार आप अपने सभी कर्मों को यज्ञ बना सकेंगे ।
यज्ञ की भावना का रहस्य सबको अच्छी तरह समज लेना होगा । मनुष्य को यह बात अच्छी तरह समज लेनी चाहिए कि इस संसार में जो कुछ है वह परमात्मा का है । उस पर न केवल उसका बल्कि प्रत्येक जीव का अधिकार है । अतः अपने पास जो कुछ है उसके द्वारा जीवों का ज्यादा से ज्यादा हित करने की इच्छा हम में होनी चाहिए और उसे व्यवहार में अनुवादित करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए । मनुष्य इस भावना को भूल गया है । इसलिए दुनिया के दुःख घटने की बजाय बढ़ते ही जाते हैं । मनुष्य को नितांत स्वार्थी होने के बजाय दुसरों के साथ मिल बांटकर अपनी संपत्ति का उपभोग करना चाहिए । सिर्फ अपने सुख में मस्त न रहकर दुसरों को भी सुखी बनाने के लिए उद्यत रहना चाहिए । तभी संसार का कलेवर बदल सकता है । याद रखिए कि किसीको देने से वस्तु कम नहीं होती वरन बढ़ती है । कुंए में से जब पानी निकाला जाता है तो दूसरा स्वच्छ पानी नीचे से आकर तुरन्त उसका स्थान ले लेता है और इस प्रकार कुए का जल ताज़ा भी बना रहता है ।
कुछ दिन हुए देवप्रयाग में मेरे पास एक अच्छे साधु आये । वे पास के गाँव में रहते थे और अक्सर मुझसे मिलने आया करते थे । इसलिए हमारे बीच प्रेम पैदा हो गया । जब वे आये तो पहले तो कुछ साधना संबंधी बाते हुई । बाद में उन्होंने अपना यह अभिप्राय प्रकट किया कि वे प्रयागराज जाना चाहते है, जहां उनका एक आश्रम है । उन्हें कुछ रूपियों की ज़रूरत थी । गाँव में कई लोगों से मांगा लेकिन किसीने मदद नहीं कि । उनकी आंतरिक इच्छा यही थी कि मैं उनकी कुछ मदद करुं । मेरे पास २५ रूपिये थे । मैं उनकी आवश्यक मदद कर सकता था क्योंकि उन्हे १५ रूपिये की जरूरत थी किन्तु मेरा खुद विचार कुछ दिनो में देवप्रयाग से जाने का था । इसलिए मुझे भी पैसों की ज़रूरत थी । साधु अच्छे थे, किन्तु मुझे भी रूपिया चाहिए था, इसलिए क्या करता? आखिर ऋषिकेश में रहनेवाले एक व्यापारी का नाम और पता उनको दिया और कहा कि उसके पास जाओगे तो आवश्यक सहायता मिल जायगी । किन्तु साधु को यह अच्छा न लगा । उनके चेहरे से उनकी उदासी का पता चल गया । अंत में वे वंदन करके चलने लगे । किन्तु उनके मुख पर छाई हुई निराशा को देखकर मेरे दिल को बहुत बुरा लगा । मेरे पास एक भाई बैठे थे । उनको कहकर मैंने साधु को बुलवाया । वे आकर बैठे, तब मैंने पूछा कितने रूपये चाहिए । उन्होंने कहा १५ रूपये और मैंने उनको १५ रूपये दे दिये । यह देख उनके चेहरे पर अजीब भाव प्रकट हुए । पहले तो उन्होंने मना किया, लेकिन मेरे आग्रह करने पर उन्होंने रूपिये ले लिए । वे साधुपुरुष चले गये परंतु उनके मुख पर जो संतोष और आनंद फैल गया था वह आज भी मुझे याद आता है । थोड़े ही दिनो बाद ईश्वर कृपा से मेरे पास किसीने रूपिये भेजे । अब मेरे पास ५० रूपिये हो गये - उस साधु को जितने दिये थे उससे तीन गुने । यह बात मैने इसलिए कही है कि देने में सदा सुख तो है ही लेकिन जो देता है उसकी पूंजी कम नहीं होती बल्कि बढ़ती है और उसे ईश्वर की ओर से कई गुना मिल जाता है । अतः मनुष्य को अपना दिल विशाल और उदार बनाने की आवश्यकता है ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)