त्यागी और स्त्री
अगर किसी संन्यासी के साथ स्त्री रहती हो, तो उसे त्यागी या संन्यासी कहा जाय या नहीं? कई लोगों के मनमें वह प्रश्न पैदा होता है। किसी त्यागी के साथ स्त्री को देखकर उनका दिल शंकाशील होता है और वे अनेक प्रकार के तर्क वितर्क करने लगते हैं। कुछ लोग तो ऐसा अभिप्राय देने लग जाते हैं कि त्यागी का पतन हो गया है। किंतु ऐसा मानना अनुचित है। त्यागी पुरुष को यदि हो सके तो किसी भी पुरुष या स्त्री के संग नहीं रहना चाहिए। परंतु भिन्न भिन्न लोगों के साथ संपर्क एवं समागम मनुष्य के ऋणानुबंध और ईश्वरेच्छा के अनुसार होता है। अतएव त्यागी पुरुष को किसी एक या अधिक नर या नारी के साथ रहने का योग हो जाय तो ऐसा न समज़ना चाहिए कि उसका पतन हो गया है। स्त्री के साथ रहने से पुरुष का पतन होता ही है ऐसी बात नहीं है। उसके उत्थान या पतन का आधार इस पर निर्भर है कि वह स्त्री को किस दृष्टि से एवं किस रूप में देखता है! स्त्री के साथ रहकर पुरुष आगे भी बढ़ सकता है, और उसमें माँ का या जगदम्बा का दर्शन कर सकता है। इसके विपरीत यदि उसका अन्तर कामना, वासना या विकार से भरा है, और यदि वह स्त्री को मलिन दृष्टि से देखता है तो उसका पतन होता है। नारी स्वयं बुरी नहीं है, किन्तु मनुष्य की दृष्टि बुरी हो सकती है। उस दृष्टि को सुधार लेनेसे स्त्री की उपस्थिति बाधक नहीं बल्कि सहायक होगी। अतः प्रत्येक प्रसंग पर परिस्थिति का पूरा खयाल करके ही अपने विचार को प्रकट करना चाहिए।
पर कुछ दृढ़ विचार वालों में सहानुभूति, समज एवं उदारता का अभाव होता है। फलस्वरूप वे भलीभांति विचार करने का कष्ट नहीं करते। मनमें जो विचार जम गये हैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहते। ऐसे लोग जब किसी संन्यासी को स्त्री के साथ देखते हैं तो नाक मौं सिकोड़ कर फौरन बोल उठते हैं, “देखो कैसे माया में फंसे हैं।” किंतु स्त्री जिस प्रकार माया में फंसाने वाली है उसी प्रकार माया से मुक्त करने वाली भी है, यह बात वे शायद ही जानते हैं।
अभी थोड़ी देर की बात है। यहाँ एक दंडी संन्यासी आए थे। वे बड़े विद्वान थे। भारत के कई स्थलों का पर्यटन उन्होंने किया था। बात ही बात में उन्होंने एक बार अपने श्रोताओं से स्वामी कृष्णाश्रमजी की बात भी कही। उन्होंने अभिप्राय दिया कि कृष्णाश्रम पहले तो अच्छे तपस्वी थे। किंतु अब उनके साथ एक पहाड़ी स्त्री रहती है। उसीके कारण उनका पतन हुआ है। श्रोतागण बड़ी दिलचस्पी से सुन रहे थे। स्वामी कृष्णाश्रमजी बरसों से गंगोत्री में रहते है। गंगोत्री में बहुत ठंड पड़ती है, फिर भी वे नग्न रहते हैं। कुछ साल से एक स्त्री उनकी सेवा में लगी है। जब वह सब से पहले उनके साथ रहने के लिए आई, तब साधुसमाज में भारी विवाद उठा था। यहाँ तक कि साधुओं ने टिहरीनरेश के पास शिकायत पहुंचाई और उन्होंने जांच भी करवाई। हिमालय में साधु ज्यादातर आश्रमों में रहते है, जहां स्त्रियां शायद ही होती हैं। यही कारण है कि जब कृष्णाश्रमजी के साथ वह स्त्री रहने लगी तो तहलका मच गया। आज भी गंगोत्री में उनके साथ वही स्त्री रहती है। उनकी जौंपड़ी के पास ही उसकी जौंपड़ी है। किंतु इसीसे उनका पतन हो गया है, यह कैसे कहा जा सकता है? हां, अगर स्त्री के संपर्क के बाद वे तप करना भूल जाते और ब्रह्मचर्य छोड़कर भोगी बन जाते, तो ऐसा कहा जा सकता था कि उनका पतन हुआ है। लेकिन वे तो आज भी हिमालय के इस शीतल स्थान में मौनव्रत धारण करके निवास करते हैं और पद्मासन लगाकर शांति से बैठे रहते हैं। अच्छी बात तो यह है कि उस स्त्री का विकास हुआ है ऐसा प्रतीत होता है। जो स्वामीजी के दर्शनार्थ जाते हैं उनके साथ वह बातचीत करती है और उन्हें स्वामीजी के दर्शन करवाने ले जाती है। उसने गेरूआ वस्त्र धारण किया है और स्वामीजी के पास रहकर उनकी सेवा करने का दृढ़ संकल्प किया हैं। दोनों में कोई भी पदच्युत हुआ हो ऐसा नहीं प्रतीत होता, फिर पतन किस का हुआ? क्या दूसरों के सर पतन का इलज़ाम लगानेवालों का पतन नहीं हुआ है?
पुरुष स्त्री के साथ बात करता है और रहता है इसलिए उसका पतन ही हो जाता है, इस फ़िलासफ़ी में मानना तथा पूरी जांच किए बिना किसी व्यक्ति के बारे में निर्णय देना हमें पसंद नहीं। कोई भी बुद्धिमान पुरुष इस प्रकार का अन्याय करना पसंद नहीं करेगा। क्या योगी श्री अरविन्द के पास एक विदेशी महिला नहीं रही? क्या राम के कृपा पात्र महान संत श्री रामदास के साथ कृष्णाबाई नहीं रही? उनके बारे में भी टिका टिप्पणी करनेवाले कुछ लोग रहे होंगे। किंतु अधिकांश लोगों के लिए तो वे “माताजी” थीं। इसलिए संसार में किसी जगह हमारी रुचि के विरूद्ध कोई प्रसंग उपस्थित हो तो हमे यथेच्छ अभिप्राय नहीं दे देना चाहिए। विशेषतः महापुरुषों के बारे में कुछ कहने से पहले भलीभांति सोच लेना चाहिए।
फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि जैसे सांप के साथ रहकर शांत रहना कठिन है, वैसे ही विकार उत्पन्न करनेवाले व्यक्ति के साथ निर्विकार रहना कठिन हैं। अतः साधक को प्रत्येक कदम पर सावधान रहना चाहिए। दिल में अधिक से अधिक पवित्रता पैदा करने की आवश्यकता है, किंतु यह कार्य लाखों में कोई ही कर सकता है। इसलिए शास्त्रों तथा संतों ने ज्यादातर इंसानों के लिए बाह्य वातावरण का अत्यंत ध्यान रखने के लिए कहा है, वह उचित ही है। कुछ समय हुआ एक साधारण, शंकराचार्य गुजरात के गांवों का दौरा करने के लिए आये थे। उनके साथ उनकी पत्नी भी थीं। वह स्पष्टिकरण करते हुए कहते थे कि क्या वशिष्ट के साथ अरून्धती नहीं रहती थीं? उनकी बात सच थी किंतु जानते हो वशिष्ट एवं अरून्धती का जीवन कितना संयमी था? शंकराचार्य को पत्नी के साथ नहीं रहना चाहिए ऐसी मर्यादा है। उसका पालन आवश्यक है, अन्यथा समाज में अव्यवस्था फैलेगी।
तात्पर्य यह कि त्यागी या संन्यासी को स्त्री के साथ किसी भी परिस्थिति में मलिन भाव से नहीं रहना चाहिए। इस बात से सभी सम्मत होंगे।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)