प्रश्न – क्या भक्तिमार्ग की साधना गुरु के बिना नहीं हो सकती ॽ भक्ति की साधना में क्या गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है ॽ
उत्तर – भक्ति की साधना में गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है ऐसा नहीं समझना है । किसीको गुरु की आवश्यकता होती है तो किसीको नहीं होती । गुरु की आवश्यकता किसको है और किसको नहीं यह सभीको अपनी ओर से तय करना चाहिए । जो बाह्य मार्गदर्शन के बिना अपनी साधना में आगे बढ़ न सके उनको गुरु की आवश्यकता का स्वीकार करके प्रथम ऐसे गुरु की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए । किन्तु इससे उलटा, जो बाह्य मार्गदर्शन के बिना भी भक्तिमार्ग में आगे बढ़ सकते हैं उनको गुरु की राह न देखकर आगे बढ़ना चाहिए । गुरु की ज्यादा चिन्ता करने की जरूरत नहीं है । अपने अंतर में रहनेवाले ईश्वर के भीतर विश्वास रखके उस पर आधारित होकर इनकी सूचना या प्रेरणा पर आगे बढ़ सकते हैं । ऐसे देखा जाय तो भक्ति की साधना गुरु के बगैर भी हो सकती है । एक और भी बात है कि गुरु की कामना हो और गुरु न मिले तो वहाँ तक मानव को दो हाथ जोडकर बैठे रहना चाहिए और भक्तिमार्ग की साधना में प्रवेश न करना चाहिए ऐसा भी समझना नहीं है । गुरु के मार्गदर्शन के बिना भी मानव खुद अपनी रुचि के अनुसार भक्ति की साधना का प्रारंभ कर सकता है और ऐसी शुरुआत से किसी प्रकारका नुकसान नहीं होता ।
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प्रश्न – भक्तिमार्ग की साधनामें प्रधान महत्वपूर्ण साधन कौन कौन से हैं ॽ
उत्तर – भक्ति की साधना में बाह्य जो प्रधान महत्व के साधन है, इसमें जप, ध्यान, कथा-श्रवण, सेवा-पूजा और सत्संग का समावेश होता है और आंतरिक साधन में प्रधान रूप से प्रेम की गणना हो सकती है । बाह्य साधन मन को निर्मल करने में, एकाग्र करने में और भक्तिभाव से सभर करके ईश्वरपरायण करने में सहायता करते हैं । इनके सम्यक् अथवा समझपूर्ण अनुष्ठान से ईश्वर के लिये परम प्रेम का उदय होता है । भक्तिमार्ग में ईश्वर के लिये यह प्रेम ही सर्वस्व है और इसकी अभिवृद्धि की ओर जितना भी ध्यान दिया जाए उतना कम है । बाह्य साधन मन को निर्मल और निर्विकार बनाकर ईश्वर के लिए परम प्रेम को प्रकट करने और प्रबल बनाने के लिये है । प्रेम की प्रबलता होते ही भक्त का अन्तर्मन ईश्वर-दर्शन के लिये रोने लगता है, तड़पता है, और आकुल-व्याकुल होकर पुकार उठता है । हाँ, ऐसा प्रखर और प्रबल प्रेम किसी विरल भाग्यशाली के जीवन में प्रकट होता है । ऐसा प्रेम प्रकट होने के बाद ईश्वर-दर्शन बहुत दूर नहीं रहता । भक्त केवल बाह्य साधनों में खो जाए और आजीवन उसमें डूब न जाए इसका उसे विशेष ध्यान रखना है । तभी वह आगे बढ़कर साधना में अग्रेसर हो सकेगा ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वर-दर्शन’)