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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

Danta Road, Ambaji 385110
Gujarat INDIA
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प्रश्न – आत्मोन्नति की साधना में आगे बढ़नेवाले साधक को बाहर के कोई तत्त्व, व्यक्ति या वस्तु बाधारूप बनते हैं क्या ॽ उसके मार्ग में उसे आगे बढ़ने से रोकने या उसका पतन करने के इरादे से देवता विघ्न डालते हैं क्या ॽ
उत्तर – पुराने धर्मग्रंथो में ऐसी बातें, कथाएँ आती हैं, जैसे कि कोई तपस्वी स्वर्गादिकी प्राप्ति के लिए तप करता हो तो स्वर्ग का राजा इन्द्र अपने आधिपत्य की रक्षार्थ इसके तपको भंग करने के लिए अप्सराएँ भेजता या अन्य प्रयास करता था । इससे कितने ही तपस्वियों का तपोभंग भी होता था । लालसी साधकों को विषय में यह बात सत्य होगी फिर भी जो सिर्फ आत्मोन्नति की कामना रखता है और परमात्मा का साक्षात्कार ही जिसके जीवन का मकसद है, उनको ऐसी बातों से ड़रने की आवश्यकता नहीं है । वे तो शुभ कार्य में प्रवृत्त हुए हैं फिर देवतागण उनके रास्ते में रोड़े क्यों डालेंगे ॽ इससे विपरीत देवता एवं सिद्ध प्रसन्न होंगे और उनके सहायक होने की कोशिश करेंगे । बौद्ध एवं ईसाई धर्म में जैसे मार और शैतान के बारे में कहा गया है वैसे हिंदु धर्म में माया का उल्लेख हुआ है परन्तु साधक के साधना में बाधक होनेवाले शैतान, मार या माया विशेषतः मनुष्य के भीतर ही है और वे ही विघ्न डालते रहते हैं । मनुष्य की अपनी अतृप्त कामना, लालसा, तृष्णा और वासना ही उसे चंचल बनाती हैं, चलायमान कर देती हैं और प्रलोभनों और भयस्थानों का शिकार बना देती हैं । उनकी विशुध्धि करने की और उनके चंगुल से मुक्त होने की जरूरत है । इतना होगा तो फिर साधक को किसीसे भी डरने की नौबत नहीं रहेगी । बाह्य तत्वों का ज़ोर भी उसके आगे नहीं चलेगा ।
बाह्य तत्त्व शुभ हेतुवाले साधक के मार्ग में भी विघ्न डालते हैं ऐसी मान्यता मानवसमाज के लिए अत्यधिक हानिकारक एवं अमंगल है । उसके कारण सतत भय, अचौकसाई अथवा असलामत वातावरण पैदा होता है । ऐसी मान्यता साधकों को मायूस व नाहिम्मत बना देगी इसलिए उसे प्रोत्साहन मत दीजिए । एक ओर अपनी सारी शक्ति समेट के साधक साधना करे वहाँ उसके सख्त परिश्रम को नाकामियाब बनाने दैवी या बाह्य तत्त्व तैयार रहे तो किसका उद्धार हो सकेगा भला ॽ

प्रश्न – शास्त्रों में पाप, कुकर्म या अपराध के निवारणार्थ भिन्न भिन्न प्रायश्चित कहे गये हैं । ऐसे प्रायश्चित के परिणामस्वरूप पाप निवारण होता है क्या यह बात सच है ॽ
उत्तर – अगर आप शास्त्र में विश्वास करते हैं तो इसमें सन्देह करने की क्या बात है ॽ प्रत्येक पाप अपराध या कुकर्म के निवारण का एक या दूसरा इलाज होता ही है और शास्त्रोंने यदि इन उपायों का प्रतिपादन किया है तो इसमें क्या ग़लत है ॽ तप, व्रत, मंत्रजप, अनुष्ठान, उपवास, तीर्थसेवन तथा प्रार्थना और शास्त्रश्रवण जैसे विभिन्न उपाय उसके लिए ही बताए गये हैं । पाप या अपराध निवारण की भावना से अलग अलग प्रायश्चितों का श्रध्धापूर्वक आधार लेने से अवश्य लाभ होता है ।

प्रश्न - प्रायश्चित के पश्चात मन की अवस्था कैसी होनी चाहिए ॽ
उत्तर – बिलकुल निर्मल और हलकी । प्रायश्चित के पश्चात मन व हृदय का सभी बोझ उतर गया हो ऐसे लगना चाहिए । दिलमें से डंख निकल जाना चाहिए । बरसात के दिनों में बादल गरजकर बरसते हैं बाद में आकाश कितना स्वच्छ हो जाता है ! इसी तरह पाप, अपराध या कुकर्म के पश्चाताप या प्रायश्चित के बाद मन बिलकुल सात्विक और स्वच्छ बन जाना चाहिए ।
एक दूसरी हकीकत भी ध्यान रखने योग्य है । अपराध या दोष का यथार्थ रूप से प्रायश्चित तब होता है जब मन में पाप, अपराध या कुकर्म करने की वृत्ति ही पैदा न हो, उसका अंकुर भी न रहें । सच्चा प्रायश्चित मनकी संपूर्ण शुद्धि में निहित है । यह बात विशेषतः याद रखनी चाहिए कि मन की संपूर्ण शुध्धि होने पर उसे बुराई में दिलचस्पी नहीं रहती, तथा वह उसके प्रति नहीं भागता । एक बार हुआ अपराध दूसरी बार न हो यही सही मायने में प्रायश्चित है ।

- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)

 

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