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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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प्रश्न – ध्यान में चित्त एकाग्र क्यों नहीं होता ॽ आँख बन्द करके बैठते ही विभिन्न प्रकार के विचार आते हैं और मन दर-ब-दर भटकता है इसका क्या कारण है ॽ उसका क्या उपाय है ॽ
उत्तर – यह प्रश्न बहुत सारे साधकों के द्वारा पूछा जाता है । यह सर्व सामान्य शिकायत है और इसके कई कारण है । योगसाधना की जो सीढ़ी है उसके भिन्न भिन्न सोपान क्रमशः – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि है । अष्टांग योग के अनुसार ध्यान सातवाँ सोपान है और अन्तिम सोपान समाधि अथवा आत्मदर्शन या ईश्वर-दर्शन है । फिलहाल तो मनुष्य आध्यात्मिक जीवन में प्रवेशित होते ही आँख मुँदकर ध्यान करना शुरु करता है और फिर शिकायत करता है कि मन स्थिर क्यों नहीं होता ॽ लेकिन मन कैसे स्थिर हो ॽ ध्यान से पूर्व जो सोपान है उन्हें आप करते नहीं, उनका अनुभव भी प्राप्त नहीं करते और सीधे ध्यान में बैठकर समाधि में ईश्वर-दर्शन की कामना करते हैं, यह कैसे संभव है ॽ जिसने अपने पूर्वजन्मों में अनेक जप-तप किये हो और उसके फलस्वरूप जिसका मन शुद्ध एवं सात्विक हो वे ही सीधे ध्यानमार्ग के अधिकारी है । उसका हृदय शुद्ध होने से वह ध्यान में तल्लीन हो जाता है । बाकी जिसमें काम-क्रोध भरे हैं, जिसका स्वभाव प्रधानतः राजस या तामस है उसे ध्यान के प्रति दौड़ने से पूर्व जरा धीरज धारण कर स्वभाव की सात्विकता सिद्ध करने की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए । मकान बाँधने से पहले उसकी बुनियाद का निर्माण करना चाहिए या नहीं ॽ बिना बुनियाद के मकान कैसे बनेगा ॽ ध्यान की साधना में भी जरूरी बुनियाद का निर्माण करना पड़ता है । इसके बिना ध्यान सफल नहीं होगा और मज़ा भी नहीं आएगा ।

सबसे पहला सोपान है यम । यममें पाँच बातों का समावेश होता है – अहिंसा, सत्य, तप, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । अहिंसा का मतलब है मन, वचन एवं काया से किसीको हानि नहीं पहुँचाना, सबसे प्यार करना, सत्य बोलना और सत्यरुपी परमात्मा की प्राप्ति के लिए व्रत लेना । तप का मानी है हरेक क्षण ईश्वर के लिए प्रार्थना, जप आदि में गुज़ारना । तदुपरांत गीता में जिन तीन प्रकार के तप का उल्लेख किया है उसका आचरण करना । शरीर, मन या वाणी से संयम का पालन करना उसका नाम ब्रह्मचर्य । ज्यादा से ज्यादा संग्रह छोड़कर अपने जीवन की रक्षा हेतु विश्वास रखना यह अपरिग्रह ।

इसके बाद का सोपान है नियम । इसमें भी पाँच वस्तुएँ हैं । शरीर व मन की पवित्रता यानि शौच । ईश्वर जिस भी हालत में रखे उसमें प्रसन्न रहना और लोभ वृत्ति को छोड़ देना वह सन्तोष । अस्तेय अर्थात् किसीके हराम का न लेना या न खाना । इसका समावेश यम में भी होता है और उसके बदले में तप का समावेश नियम में किया जाता है । तत्पश्चात् स्वाध्याय अर्थात् ईश्वरप्राप्ति का उपाय और ईश्वर की लीला और महात्माओं के जीवन, कार्य और धार्मिक पुस्तकों का नियमित पठन-पाठन और उनके उपदेशों का जीवन में यथाशक्ति आचरण । ईश्वर की नवधा भक्ति में से किसी भी प्रकार की भक्ति करना इसे ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं ।

इन दो व्रतों के पालन से व उसके यथाशक्ति आचरण से हृदय के मैल धुल जाते हैं और आसन की विधि होती है । किसी एक स्थान में शांतिपूर्वक दीर्घ समय तक बैठ़ने का नाम आसन है । तदनन्तर श्वासोश्वास की शुद्धि एवं प्राण की शुद्धि प्रक्रिया का नाम प्राणायाम है । मन की भिन्न भिन्न वृत्तियों को एकाग्र करने की क्रिया को प्रत्याहार कहा जाता है और मन को एक वस्तु में ईश्वर के नामरूप या शरीर के किसी अंग में एकाग्र करने का नाम धारणा है । इसके बाद ध्यान आता है ।

ऐसे अति मूल्यवान ध्यान को आप प्रारंभ में ही करने लगे तो उसमें कामियाब कैसे बनेंगे ॽ इसलिए सबसे पहले अधिक ध्यान हृदयशुद्धि की ओर दीजिए, सात्विकता प्राप्त करे, सत्संग से मन को पवित्र करे और दुर्गुण एवं व्यसन को नष्ट करे और बाद में शांति से ध्यान का प्रारंभ करें । इस तरह प्रबंध करने से आपकी शिकायत दूर हो जाएगी इसमें कोई सन्देह नहीं । बुनियाद को मजबूत करने में जितना अधिक समय लग जाए उतना ही आपकी साधना का निवनिर्माण अच्छा होगा, एवं मजबूत होगा । जल्दी करने की अपेक्षा जो भी करे वो सोत्साह और सुचारु रुप से करें ।

- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)

 

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