कहा जाता है कि होनी को कोई टाल नहीं सकता । आदमी कितना भी चाहे, लाख कोशिश क्यूँ न कर ले, मगर वक्त की आहट को रोक नहीं पाता । अपने प्रारब्ध में जो लीखा होता है उसे भुगतना पडता है, और भुगतने से ही प्रारब्ध-क्षय होता है । हाँ, ईश्वर या तो ईश्वरी कृपा-प्राप्त महापुरुष इस क्रम में हस्तक्षेप कर सकते है मगर वे भी बिना वजह हस्तक्षेप करना पसन्द नहीं करते । अतः हरएक आदमी को अपने कर्मों का फल भुगतना पडता है । प्रारब्धवश आदमी विभिन्न व्यक्तिओं के परिचय में आता है और विभिन्न जगहों पर जाता है । किसी अज्ञात संस्कारवश होकर परमात्माने मुझे फिर हिमालय के पुण्यक्षेत्र में लाकर खडा कर दिया । शायद उसने मेरे जीवन का पथ हिमालय के साथ जोडना निर्धारित किया था । उसकी जो भी मरजी हो, मुझे हिमालय की पुण्यभूमि में कदम रखते हुए बडी प्रसन्नता हुई ।
मगर मेरी प्रसन्नता ज्यादा देर तक न टिकी । ऋषिकेश स्टेशन पर उतरने के बाद मैं सीधा देवकीबाई धर्मशाला की ओर चल पडा । वहाँ जाकर देखा तो हालात मेरी अपेक्षा की तुलना में उलटे निकले । देवकीबाई जब अपनी जिन्दगी के आखिरी दिन गिन रही थी तब लक्ष्मीबाई नामक एक महिला ने उनकी बडी सेवा की थी । देवकीबाई के चल बसने के बाद लक्ष्मीबाई ने धर्मशाला में अपना अधिकार स्थापित कर दिया था । उसका तो कहेना था की देवकीबाई ने स्वयं उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसे यह धर्मशाला सुपरत की है । इतना कम था कि उसको ऋषिकेश के तीन-चार पंडाओ का साथ मिल गया । बस, फिर तो क्या कहेना ? पंडाओ के समर्थन से उसकी ताकत और हिंमत दुगुनी हो गई । धर्मशाला के बाहर कुछ दुकानें थी जिसका किराया वो खुद वसूल करती थी मगर ट्रस्टीओं को कुछ बताना जरूरी नहीं समजती थी । एसे हालात में ट्रस्टीयों ने मुझे धर्मशाला का मेनेजर नियुक्त करके वहाँ भेजा था ।
लक्ष्मीबाई करीब साठ साल की विधवा औरत थी । उसका शरीर कुछ ज्यादा ही भारी था । जब मैं वहाँ पहूँचा तो वो धर्मशाला के बाहर अपनी बैठक जमाये बैठी थी । मैंने उसको अपना परिचय दिया । साथ में ट्रस्टीओं की दि हुई चिठ्ठी प्रस्तुत की । वो ज्यादा पढ़ नहीं सकती थी इसलिए चिठ्ठी में क्या लिखा है उसकी परवाह किये बगैर मुझ पर भड़क उठी । उसकी आँखें क्रोध से लाल हो गई ।
गुस्से में आकर उसने बकना शुरू किया, मैं किसी ट्रस्टी-ब्रस्टी को नहीं जानती । मुझे उनसे कोई लेना-देना नहीं है । मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ की यह धर्मशाला देवकीबाई की है और उसने स्वयं इसे मेरे हवाले की है । अब इस धर्मशाला पर सिर्फ मेरा अधिकार है, किसी ट्रस्टी का इससे कुछ लेनादेना नहीं है । जब देवकीबाई बिमार थी तो आपके ट्रस्टी कहाँ मर गये थे ? मैने दिन-रात महेनत करके जी-जान से देवकीबाई की सेवा की है । मेरी सेवा से प्रभावित होकर देवकीबाईने यह धर्मशाला मेरे नाम कर दी है । अब यहाँ रहने से मुझे कौई रोक नहीं सकता । मैं देखती हूँ की तुम्हारे ट्रस्टी मुझे यहाँ से कैसे बाहर निकालते है ?
लक्ष्मीबाई का रौद्र रूप देखकर मै हैरान परेशान हो गया । मुझे भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण के रौद्र रूप को देखकर भयभीत हुए अर्जुन की याद आयी । अपने आपको सम्हालकर मैंने हो सके इतनी शांति से उत्तर दिया, आपको यहाँ से बाहर निकालने के लिए मैंने थोड़ा कहा है ? आप यहाँ खुशी से रह सकती है मगर मालकिन बनकर नहीं । देवकीबाई ने ट्रस्टीओं की नियुक्ति की थी इसलिए वे धर्मशाला के संचालन के हकदार है । देवकीबाई किसी ओर व्यक्ति को यह धर्मशाला कैसे दे सकती है ? आपने देवकीबाई की सेवा की, अच्छा किया, मगर अब आप उसका गलत फायदा उठा रही है । ये तो धर्मादा संस्था है और एसी संस्था पर अपना बेबुनियाद हक जताना कोई अच्छी बात नहीं है ।
मेरी बात को सुनने की और समजने की उसे परवाह नहीं थी । अपना रौद्र रुप बनाये रखते हुए उसने कहा, मैं सब समझती हूँ । मुझे समझाने की जरूरत नहीं है । जब तक जिन्दा हूँ, यहीं पर रहनेवाली हूँ । धर्मशाला को छोडकर कहीं नहीं जाउँगी । देखती हूँ ट्रस्टीओ मुझे कैसे निकाल बाहर करते है ।
और फिर लक्ष्मीबाई ने ट्रस्टीयों के लिए जो गालियाँ मन में भर रखी थी, उगालनी शुरू की । यहाँ उसका वर्णन न करना ही उचित होगा ।
लक्ष्मीबाई के साथ मेरे शाब्दिक आदानप्रदान को सुनकर धर्मशाला में निवास कर रही दो-तीन गुजराती बहनें वहाँ आ पहूँची । ट्रेन से उतरकर यहाँ आने के बाद मैं खडाखडा सब बातें कर रहा था । पानी पीना या बैठना तो दूर की बात थी । मेरे सन्मुख के कक्ष में से देवकोरबेन नामक एक बहन ने मुझे बुलाया और प्यार से दो बातें कही । लक्ष्मीबाई की गालियाँ अभी जारी थी । क्रोधावेश की अवस्था में लक्ष्मीबाई को कुछ भी कहने में समजदारी नहीं लगी । अतः देवकोरबेन के आग्रहवश होकर मैं उनके साथ गंगा किनारे टहलने निकला । आपसी बातचीत से पता चला की देवकोरबेन का स्वभाव बहुत मायालु और परगजु था । वो नासिक की रहनेवाली थी । उसकी उम्र कुछ खास नहीं थी । वो सुखी-संपन्न परिवार की सदस्य थी मगर कुछ सालों से विधवा हुई थी । इसलिए यहाँ आकर धर्मानुष्ठान में अपना जीवन व्यतीत करती थी । ट्रस्टीओं से उसकी अच्छी जानपहचान थी । उसने मुझे धर्मशाला की वर्तमान परिस्थिति से अवगत कराया और हिम्मत दी । धर्मशाला में कुल मिलाकर छ गुजराती बहेनें निवास कर रही थी । इसके अलावा मंदिर के पूजारी और एक अन्य पुरुष वहाँ रहते थे । उनका स्वभाव अच्छा था ।
देवकोरबेन मुझे नेपाली क्षेत्र के व्यवस्थापक चोतराम के पास ले गई । चोतराम देवकीबाई का विश्वासु आदमी था । उसने मुझे अपनी ओर से पूरी सहायता का आश्वासन दिया । दूसरे दिन उसने धर्मशाला में आकर लक्ष्मीबाई को समजाने की कोशिश की मगर वो नाकामियाब रही । ऋषिकेश के दो-तीन पंडो का साथ मिलने से लक्ष्मीबाई की हिंमत बुलंदी पे थी ।
मेरा किस्मत अच्छा था की लक्ष्मीबाई ने मेरे लिए धर्मशाला का एक कमरा खोल दिया । धर्मशाला का मकान वैसे अच्छा था । चारों ओर रहने के लिए कमरे थे और बीच में खुला चोक था । चोक में छोटा-सा शिवमंदिर था । हवापानी की कोई कमी नहीं थी । मंदिर के पास कुआ था और उसके पास दो-तीन पेड़ लगे थे । चोक में जाकर खडे रहने से चारों ओर फैली हुई पहाडों की चोटियाँ दिखाई देती थी ।
देवकीबाई कच्छ की रहेनेवाली थी । अपने गाँव से तथा आसपास के इलाकों से पैसा जमा करके उसने ऋषिकेश में यह धर्मशाला बनवाई थी । गाँव की एक अनपढ़ नारी ने सेवाधर्म को उजागर करके यहाँ आम आदमी के लिए सुविधा उपलब्ध करवाई थी । जब तक ऋषिकेश रहेगा तब तक देवकीबाई की सेवाभावना की मिसाल कायम रहेगी ।
प्रतिकूल माहौल में मेरा धर्मशाला में प्रवेश हुआ था । हालात को मध्येनजर रखते हुए मन दुविधा में पड गया । वैसे धर्मशाला में कुछ खास काम नहीं था । लक्ष्मीबाई अपना हक छोडने के मूड में नही थी । मैंने ट्रस्टीओं को हालात से अवगत कराने हेतु विस्तृत पत्र भेजा । प्रत्युत्तर में ट्रस्टीओंने मुझे ट्रस्टडीड की कोपी भेजी । लक्ष्मीबाई पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडा । कोर्ट में दावा करने के अलावा इस प्रश्न का कोई समाधान नजर नहीं आया । अब फैंसला करने की जिम्मेवारी ट्रस्टीओं की थी ।
यहाँ लक्ष्मीबाई की गालियों का प्रवाह बरकरार था । मैं उसे शांतिपूर्वक सुनता रहेता । ईश्वर मेरी कसौटी करना चाहता था । विपरित हालातों में भी मैंने ईश्वर की कृपा का दर्शन किया । मेरा हृदय वैराग्य और ईश्वरप्रेम से भरा था । ऋषिकेश की पवित्र भूमि में आकर मैंने अपना सारा ध्यान साधना में जुटा दिया । कमरे में एक अलमारी थी, उसकी बगल में मैंने रामकृष्ण परमहसंदेव तथा विवेकानंद की तसवीरें चिपका दी । भिक्षु अखंडानंद ने वो तसवीरें मुझे भेंट की थी । इसका जीक्र मैं पूर्व प्रकरणों में कर चुका हूँ । सुबह-शाम उन स्वरूपों के सामने बैठकर मैंने जप, प्रार्थना और ध्यान करना शुरु किया । एकांत का अभ्यास मुझे बंबई से था इसलिए यहाँ कोई खास दिक्कत नहीं आई । दिन का अच्छा खासा वक्त साधना में निकल जाता था । सप्ताह में दो दफा – सोमवार और गुरुवार को मैंने मौनव्रत रखना प्रारंभ किया । साधनाहेतु सुन्दर वातावरण उपलब्ध कराने के लिए मैंने ईश्वर का तहे दिल से शुक्रिया अदा किया ।