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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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“गीता का संगीत” यह शब्द सुनते ही कोई जिज्ञासु आश्चर्यचकित होकर बोल उठेगा - “क्या कहा, संगीत और वह भी गीता का? संगीत तो वीणा का होता है, बाँसुरी का होता है या अन्य वाद्यों का होता है । गीता तो एक ग्रन्थ है, उसका संगीत कैसा?” हम कहेंगे, “भाई, गीता का भी संगीत होता है । उसे सुनने की शक्ति तो हासिल करो, फिर उसका आस्वाद ले सकोगे । उस संगीत के गाने वाले हैं गौचारक गोपीवल्लभ भगवान श्री कृष्ण । संगीत की कला में तो वे अत्यन्त प्रवीण हैं । उनकी बंसी का पान जिसने किया है वही जानता है ।

कहा जाता है की बड़े-बड़े समाधिस्थ मुनिवरों के मन भी उसके प्रभाव से ज़ूम उठते थे । बड़े बड़े तपस्वी भी उसकी ध्वनी सुनकर मन्त्र मुग्ध हो जाते थे । इतना ही नहीं, बल्कि गोकुल और वृंदाबन की गायें भी उसके अमृतमय एवं देवों को भी दुर्लभ रसास्वाद से मानो समाधिस्थ होकर खड़ी रह जाती थी तथा अन्य पशु पक्षी एवं वनस्पति भी नवजीवन से प्रफुल्लित दिखने लगते थे, मुरली जड़-चेतन सबमें प्राणों का संचार करती थी ।

पूर्णिमा की सलोनी रात्रि के समय वृंदाबनकी पुण्य भूमि में एकाएक बाँसुरी बजी और परिणाम स्वरूप गोपी जागीं और फिर तो ऐसा रास रचाया कि जिसे संसार सदा याद रखेगा । रास के बीच में मुरली के मधुर अमृतमय आलाप से गोपी और भी मुग्ध हुईं और अपने प्रियतम, अपने प्राणप्रिय भगवान श्री कृष्ण के साथ तादात्म्य का आनन्द अनुभव करने लगी ।

धन्य है वह ब्रज, धन्य है वे कृष्ण और गोपी और धन्य है वह बांसुरी जो सबके हृदय तारों को एक करती है, किन्तु कृष्ण की वह मुरली उनके हृदय में ही समाविष्ट हो गई । वह उनके ज्ञान एवं प्रेम की मानो साक्षात प्रतिमूर्ति थी, परन्तु संगीतकार होने का उनका स्वभाव कैसे मिट सकता था? बचपन का वह शौक केसे छुट सकता था? बरसों बीत गये और वृन्दाबन की शरद पूर्णिमा की वह रासलीला एक अतीत कालीन स्मृति मात्र हो गई ।

श्री कृष्ण भी एक महापुरुष बन गए और पुनः एक बार कुरुक्षेत्र की पुण्य भूमि में रास हुआ, पर वह रास ज्ञान का था और उसमे भाग लेनेवाला था महावीर अर्जुन । गोपिकाओं की भाँती उसका रक्षण करनेवाले भी श्री कृष्ण ही थे । जिस प्रकार गोपियों के साथ भगवान ने गुह्यातिगुह्य रासलीला की थी, उसी प्रकार अर्जुन के साथ भी गुह्यातिगुह्य ज्ञान लीला की । अलबत्ता रात को नहीं, वरन दिन को वह लीला हुई ।

यह अद्भुत, अलौकिक एवं अभूतपूर्व रास किसी एकांत कुंज-निकुंज में नहीं, बल्कि भीषण युध्द के लिए तैयार होकर खड़े लाखों वीरों के बीच समरांगण में रचाया गया था । उसके प्रभाव से गोपिकाओं की भांति अर्जुन की सभी शंकाएँ दूर हो गई और उसे चिर शान्ति प्राप्त हुई । उस रासलीला में तो बाँसुरी ने केवल गोपिकाओं का मन हर लिया था, पर वह चैतन्यमयी ज्ञान बाँसुरी, गीता तो पढ़ने, सुनने तथा मनन करनेवाले सभी को मुग्ध करती है तथा प्रेम और शांति से सराबोर कर देती है । जड़ एवं मृतवत् मनुष्य को ही नहीं, बल्कि ज्ञानी को भी जीवन प्रदान करती है ।

कुरुक्षेत्र की भूमि में कृष्ण एंव अर्जुन दोनों की वृत्तियों का प्रारम्भ में रास खेला गया और अन्त में उसका रहस्य शब्दों से व्यक्त हुआ । वेद की ऋचा जैसे स्वर जो बांसुरी से निकलते थे, वे ही मानो अधिक सपष्ट, स्थूल एवं साकार बनकर बहने लगे । जो जगत के प्रेम देवता तथा गोपियों के प्राणाधार थे, वे एक नये अभिनय में अर्जुन के प्रकाशदाता और जगत के गुरु बन गए । श्री कृष्णकी अन्तर मुरली का वह अमर संगीत सुनकर अर्जुन को तो आनन्द हुआ ही, युध्द भूमि से दूर सुदूर बेठे हुए संजय को भी हुआ ।

हम कृष्ण, अर्जुन एवं कुरुक्षेत्र मैदान से दूर हैं तथा महाभारत काल को बीते हुए बहुत समय हो गया है और आधुनिक वैज्ञानिक युग में हम जीते हैं । फिर भी सोचिए, क्या हमें उस संगीत से आनन्द नहीं होता? गीता का सरल, स्पष्ट एवं प्रभावोत्पादक संगीत क्या हमें भी मुग्ध नहीं करता?

महर्षि व्यास का अहसान मानो कि वह शब्द संगीत सुनने का सौभाग्य हमें मिलता है । समस्त मानव जाति उनकी ऋणी है । उन्होंने गीता के अलग अलग स्वरों को संचित किया है, अथवा यों कहिए कि बिखरें हुए फूलों को एक कुशल माली की भांति इकट्ठा किया है और उन्हें एक सर्वमान्य सूत्र मे पिरोया है । ऐसे अनमोल हार का दान कर वे महान दानेश्वर बन गए । गीत को यदि ग्रन्थ मानें तो भी वह एक संगीतमय ग्रन्थ है, इसमें कोई सन्देह नहीं । उसके प्रत्येक विचार एवं शब्द में संगीत भरा है ।

 - © श्री योगेश्वर

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