गीता के संगीत का आस्वाद लेने से पहले आओ, हम अतीत में उत्पन्न, वर्तमान में विद्यमान एवं भविष्य में होनेवाले गीता के अमृतमय संगीत के सभी रसिकों को, वंदन कर लें, स्वदेश विदेश के छोटे बड़े, विख्यात या कम विख्यात गीता के भाष्यकार, विचारक तथा प्रचारक गुरुदेवों को नमस्कार करें । गीता के संगीत को लोकप्रिय बनानें में उनका योगदान कम नहीं है ।
इसके साथ ही वन्दन करें हिमालयकी पवित्र ऋषिमुनी सेवित भूमि को, जो दान एवं शान्ति की जननी है तथा आध्यात्मिकता की प्रेरणा दात्री है और उस गंगा को भी वन्दन कर लें जो शुभ्रातिशुभ्र रंग से सुशोभित होकर बहती है, प्रेम एवं ज्ञान के प्रवास जैसी है, जो ज्ञानी एवं तपस्वी को आश्रय देती है तथा सबकी पवित्र एवं तेजस्वी माता है ।
इसके बाद कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि को भी वन्दन कर लें, जिनके हृदय पर गीता का अवतार हुआ है और जिसकी महिमा वृन्दावन से कम नहीं है । भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन को वन्दन किये बिना कैसे रहा जा सकता है ? उनके बिना गीता का आविर्भाव ही न होता । उन्हें हमारा बारम्बार वन्दन है । श्रीकृष्ण के ऋण से कोई मुक्त नहीं हो सकता । उन्हें तो हम हमेशा और हर स्थल में वन्दन करते रहेंगे । यदि वे गीता के संगीत का स्वाद लेने, तथा उनके उपदेशों को जीवन में चरितार्थ कर सकने की शक्ति दें, तभी हमारा काम सरल हो सकता है क्योंकि गीता के गूढ़ संगीत को समझना लोहे के चने चबाना जैसा है । जैसा कि रघुवंश के प्रारम्भ में महाकवि कालीदास ने कहा है, यह प्रयास महान समुद्र को एक छोटी-सी नाव द्वारा पार करने जैसा है ।
संगीत का स्वाद कौन ले सकता है ? एक उस्ताद या कोई संगीतकार । मुझमें इनमें से कोई भी योग्यता नहीं है, पर गीता के संगीत का खिचाव इतना प्रबल है की उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहा जा सकता । काम चाहे कितना भी अशक्य या कठिन हो भगवान की कृपा से सुगम एवं शक्य हो सकता है । उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता ? सागर का पान करने का कार्य कितना कठिन है । फिर भी भगवान की कृपा से आसानी से हो सकता है । प्रभु की कृपा हो तो अग्नि पर बैठ सकते है और अन्धा भी देख सकता है, इसमे कोई सन्देह नहीं ।
अतः उनकी कृपा की भिक्षा मांग कर तथा उन पर श्रध्धा रखकर यह काम शुरू करते हैं । वे जो बोले और बुलाये उसे हम बोलते है तथा जो वह लिखाएँ उसे लिखते है । जो काम उनका है उसे वे संभालेंगे और करेंगे । यह उनकी प्रतिज्ञा है, इसमें हमें श्रध्धा होनी चाहिए ।
- © श्री योगेश्वर