गीता की यह ज्ञानगंगा कितने मधुर ढंग से बह रही है । आओ, हम भी उसके अमृत को अन्जली भर पियें और कृतार्थ बने । गीता के मनमोहक संगीत के स्वरों को सुनें । इससे सब दुःख दूर हो जायेंगे तथा चारों और आनन्द ही आनन्द फैल जायेगा । अक्षय है गीता का रस । जैसे नदियाँ वर्षा में भर जाती हैं, तथा गर्मी में सूख जाती हैं, कुएँ भी भर जाते हैं और खाली हो जाते हैं और तलाबोंकी भी यही दशा होती हैं, किन्तु गीता का अमृत (अ+मृत) रस कदापि रिक्त नहीं होगा । करोड़ों लोग हजारों बरसों से उसका पान करते हैं । और भविष्य में भी करेंगे, किन्तु फिर भी इसका स्वाद कम नहीं होगा और उसके प्रति अरुचि भी नहीं होगी ।
एक ही वस्तु बार बार इस्तेमाल करने से उसका आकर्षण कम हो जाता है, ऐसा कहा जाता है, पर गीता के विषय में यह सच नहीं है । जैसा की एक संस्कृत श्लोक में कहा है - सुवर्ण को बार बार साफ़ करने से उसकी कान्ति बढ़ती है तथा चन्दन को बार बार घिसने से उसकी सुगन्ध बढ़ती है, उसी तरह गीता का पठन-मनन बार बार करने से उसमें दिलचस्पी बढ़ती है ।
कुछ लोगों के बारे में यह कहा जाता है कि वे शुरू में भूखे नहीं होते, पर यदि उन्हें आग्रह करके खाने को बिठाया जाय तो उनकी भूख बढ़ती ही जायगी, यहाँ तक कि शायद उन्हें आसन से जल्दी उठा लेना भी मुश्किल हो जायगा । इसी प्रकार जिन्हें गीता में कोई रूचि नहीं है वे भी यदि इस ग्रन्थरत्न की अमृतरस का एक स्वाद ले लेते है, तो इन्हें उसका ऐसा चसका पड़ जाता है तथा रस की ऐसी अमिट भूख पैदा हो जाती है, जिसे तृप्त करना अत्यन्त कठिन हो जाता है । फिर तो वह गीता का परमानुरागी बन जाता है ।
जैसे जैसे गीता का अभ्यास बढ़ता जाता है उसके रस में वृध्धि होती जाती है, यहाँ तक कि रसास्वाद की इच्छा, भूख या प्यास शान्त हो जाने के बाद भी बनी रहती है । गीता तो अक्षय पात्र है । तालाब एवं छोटी नदियाँ तो सुख जाते हैं, किन्तु गंगा सदा भरी हुई रहती है । गीष्म की प्रखर धूप में भी उसका पानी तन मन एवं आत्मा को शीतल करता है । युग-युग से पृथ्वी के प्रवास पर निकला हुआ उसका प्रवाह सदा बहता रहता है, कभी भी नहीं थकता । गीता की अमृतगंगा भी ठीक इसी भाँति अविनाशी एवं पतितपावनी है । वह किसी भी जगह एवं किसी भी काल में मनुष्य को शान्ति प्रदान करने में समर्थ है । उसका नाम ही अमरता है । गीता तो अमरता की मूर्ति है ।
संसार में साहित्य के दो प्रकार है । एक क्षणजीवी साहित्य और दुसरा सर्वकालीन या सनातन साहित्य । क्षणजीवी साहित्य किसी विशेष समय ही में प्रकाश एवं प्रेरणा देता है, हर काल में नहीं, पर सनातन साहित्य भूत, वर्तमान एवं तीनों कालों के लिये प्रेरणादायक होता है, तथा मानव जाति जब तक जीवित रहेगी, तब तक वह भी जीवित रहेगा ।
गीता का साहित्य सनातन साहित्य है और इस मैं आश्चर्य ही क्या है कि मानव जाति उसमें से किसी भी समय प्रेरणा और प्रकाश प्राप्त कर सकती है । प्रभु स्वयं शाश्वत हैं । उन्हें जरा, व्याधि और मृत्यु छू तक नहीं सकती, फिर उनकी वाणी को भी जरा, व्याधि या मृत्यु कैसे हो सकती है ? गीता तो उन्हींकी भारती है ।
इसके अतिरिक्त उसका सम्पादन तो प्रभु के प्रेमी भगवान व्यास ने किया है । जैसे प्रभु वैसे ही उनके भक्त होते हैं तथा उनकी वाणीरुपी रचना भी वैसी ही सनातन होती है, ऐसा समज़ना चाहिए । इसमें भी यह रचना तो विशिष्ट महत्वपूर्ण है । व्यास ने ब्रह्मसूत्र एवं महाभारत जैसे पुराणों की रचना की, किन्तु गीता में तो सब का सार समाविष्ट कर दिया है ।
गीता के रूप में मानो ज्ञान का अर्क ही निकालकर रख दिया है । गीता का ज्ञान तो नवनीत के समान है । जिस प्रकार कोई कुशल वैध जंगल जंगल घूमकर अनेक प्रकार की औषधियाँ संचित करे और बाद में जनहितार्थ उन सबका रस तैयार करे, उसी तरह महर्षि व्यास ने भी वेदों एवं उपनिषदों के विशाल जंगल में घूम घमकर सत्यरूपी औषधियों को एकत्र किया है ।
संसार के जन्म मरण के महान रोग एवं अन्य रोगों के लिए व्यास की यह दवाई रामबाण है । रसके महात्म्य में ठीक ही कहा गया है कि गीता संसार के सब प्रकार के मैल को दूर करने वाली है । जो उसकी आजमायश करना चाहे, वह कर सकता है तथा अपनी मलिनता को दूर करके भीतर एवं बाहर से स्वच्छ या निर्मल बन सकता है । भारतीय धर्म में प्रस्थानत्रयी का महत्व विशेष है । प्रस्थानत्रयी में उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गीता का समावेश होता है, किन्तु इन तीनों के सार स्वरुप या प्रतिनिधि स्वरुप ग्रन्थ कौन है ऐसा यदि कोई पूछे तो बिना ज़िजक के कहा जा सकता है कि गीता ।
गीता भारतीय ज्ञानधारा का परिपूर्ण प्रतिक है । भारत के आध्यात्मिक उधान का सर्वोत्कृष्ट पुष्प है, इसमें संदेह नहीं । महाभारत के युद्ध में या ग्रन्थ में दोनों में गीता प्राण समान है । दुसरे ग्रंथो में तो भगवान व्यास का मस्तिष्क या बुद्धिधन व्यक्त होता है, किन्तु गीता में तो एक और ही निराली चीज अभिव्यक्त होती है और वह है उनका हृदय । जो भावना एवं जीवन की फिलासफी उनको अधिक प्रिय थी, जो उनके जीवन में आशा, प्रकाश एवं प्रेरणा प्रदान करती रहती थी, वही उसमें प्रस्तुत की गई है । जो गीता रुपी सागर मे गोता लगाता है उसे ज्ञान रुपी मोती अवश्य मिलता है ।
गीता की महत्ता उसके रचयिता के लिए कितना अधिक है उसका आभास गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में लिखे गए शब्दों से मिलता है । और वह है श्रीमद् भगवद्गीता सूपनिषत्सु । इस वाक्य में यह बताया गया है कि भगवद्गीता एक उपनिषद् है । गीता के सभी आलोचकों एवं विचारकों ने इस बात का स्वीकार किया है । हम भी कहेंगे कि गीता सब उपनिषदों का निचोड़ है, उपनिषदों का प्रतिनिधित्व करनेवाला तथा उनके स्थान पर अधिकारपूर्वक बोलनेवाला ग्रन्थ है ।
जो व्यक्ति गीता की शरण लेता है, उसकी शिक्षा का जीवन में आचरण करता है, उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं और उसे शांति, सन्तोष, तथा मानसिक प्रसन्नता की प्राप्ति होती है । इस अर्थ के अनुसार गीता को उपनिषद् कहना ठीक ही है और हम भी इसको स्वीकार करते हैं और सहर्ष करते हैं ।
- © श्री योगेश्वर