अब हम एक दूसरा महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत करते हैं, जिसकी ओर गीता के पाठक साधारणतया बहुत कम ध्यान देते हैं । इस विचारणा को समज़ाने के लीये उसको दो विभागों में बाँट देना अनुपयुक्त न होगा ।
१. अच्छी या बुरी किसी भी परिस्थिति में दिल बहलाने, वक्त काटने या किसी भी कारण से जुआ नहीं खेलना चहिये, क्योंकि जुआ सदा ही अनिष्टकारक है । जुए के ही कारण पाँडवों को राज्य से हाथ धोना पड़ा, बनवास में अनेकों कष्टों का सामना करना पड़ा और अंत में कौरवों से युद्ध तक करना पड़ा । युधिष्ठिर यदि दुर्योधन के साथ जुआ न खेलते तो कई समस्याएं पैदा ही न होतीं और महाभारत कथा का इतिहास वह न होता जो आज है । जुआ खेलने की सम्मति देकर युधिष्ठिर ने एक महान भूल की थी । ऐसी ही बड़ी भूल दुर्योधन ने की जब उसने द्रौपदी को राजसभा में खिंच लाने की आज्ञा की और दुःशासन ने भी की जब उसने दुर्योधन की आज्ञा का पालन किया । ‘पर-स्त्री माता के समान है’ इस नियम का उल्लंधन कौरवों के लिए भयंकर साबित हुआ । फलतः ऐसी यादवास्थली की नींव डाली गई, जिसे संसार ने न कभी देखा है न सुना है । जुआ खेलने से तथा परस्त्री को माता के समान न मानने से कितना भयंकर नतीजा होता है, उसका पता महाभारत से होता है ।
२. महाभारत के युद्ध से एक और शिक्षा मिलती है वह यह कि परस्पर ज़गड़ो से कितना अनिष्ट होता है । कौरव पांडव भाई-भाई होने पर भी मिलजुल कर न रहे । उनमें संप का अभाव उत्पन्न हुआ । कौरवोंने तो पांडवों को सताने में कोई कसर बाकी न रखी । उन्होंने ईर्ष्या, बैर एवं शत्रुता के बीज अपने हाथों बोए और जानते हैं उसका नतीजा क्या निकला ? उनका विनाश हो गया ।
इस शिक्षा को समज़ने एवं उसके अनुरूप आचरण करने की आवश्यकता है । महाभारत की रचना हुए अनेक साल बित गए, किन्तु लगता है कि मानव जाति ने इस महत्वपूर्ण शिक्षा की ओर बहुत कम ध्यान दिया है । कुसंप और बैर से कुटुम्बों तथा जातियों का नाश हो जाता है । इस बात की और मनुष्य का ध्यान अभी तक नहीं गया है, अन्यथा क्रोध, बैर एवं ईर्ष्या की आग से मानव जाती मुक्त हो गई होती किन्तु सचमुच ऐसा नहीं हैं । जिस प्रकार वह आदमी जो अभी अभी विधुर हुआ है उसको शादी से वैराग्य उत्पन्न हो और बाद में वह शादी के उत्सव में शरीक हो जाय, उसी तरह मनुष्य ने युद्ध तथा उसके लिए आवश्यक तैयारियाँ जारी ही रक्खी हैं ।
युद्ध एवं विनाश का डर अभी तक संसार से दूर नहीं हुआ है । घर में, गांव में, समाज में, राष्ट्र में, बल्कि सारे संसार में कुसंप बढ़ता ही जा रहा है । अगर मनुष्य सुखी बनना चाहता है तथा शांति को प्राप्त करना चाहता है तो उसे संप, सच्चाई तथा परस्पर प्रेम के मंत्र को अपनाना होगा । दुर्योधन की भाँति दूसरों के अधिकार छीन लेने तथा जो अपना नहीं है उसे हड़प लेने की वृति को छोड़ना होगा तथा सत्य सहकार की महिमा को समजना होगा ।
इस मंत्र का अनादर करने से संसार में कई लड़ाईयां छिड़ी और जान और माल की हानि हुई । कई देश पराधीन हो गए हैं । अतः अब तो यह नितान्त आवश्यक है कि मानव जाती इस शिक्षा को सदा याद रक्खे । विशेषतः भारतवासियों को, जो धर्म के लिए नाज़ करते हैं और संस्कृति की जननी माने जाते हैं, उनको तो इस शिक्षा की मूर्ति ही बनना चाहिए तथा इस देश में से कुसंप, ईर्ष्या, शोषण तथा अतिशय वासनासक्तता का नाश करना चाहिए । सब को देश के उत्कर्ष में जुट जाना चाहिए ।
इसी तरह जुए की बुरी आदत से बचना चाहिए । कुछ लोग कहते हैं समय गुजारने या दिल बहलाने के लिए जुआ खेल लें तो क्या हर्ज है ? वे यह नहीं समजते कि वक्त ऐसी तुच्छ चीज नहीं है जिसे जुआ खेलने में गुजार दिया जाय । वक्त गुजारने के तथा दिल बहलाने के दुसरे भी अनेक अच्छे उपाय हैं । ऐसे ही साधनों को अपनाइए जिनसे आपको कोई हानि न हो और वक्त भी गुज़र जाए । जिस तरह जानने की कला होती है उसी तरह अवकाश के समय का उपयोग करने की भी कला होती है । जो दिल बहलाने के लिए जुआ खेलने लगता है, वह दूसरा क्या कर्म नहीं कर सकता ? वक्त आने पर वह चोरी, खून तथा ऐसे ही अन्य कुकर्म करने को भी तैयार हो सकता है ।
यह सच है की जीवन में सुख और मनोरंजन का भी स्थान है, पर उनके लिए मार्ग होना चाहिये । धर्म एवं नीति की मर्यादा का तथा समाज-व्यवस्था की सुरक्षा और स्वास्थ्य का । मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार अपने या दुसरे के लिये उत्तम या अधम मार्ग अपना सकता है । इसी कारण तो उसें संसार में श्रेष्ठ माना जाता है । इस विवेक को ही यदि वह तिलांजली देदे तो उसका काम कैसे चल सकता है ? अतः दिल बहलाव की एवं वक्त गुजारने की पंगु दलील का अंत होना चाहिए ।
- © श्री योगेश्वर