गीता के प्रारम्भ में ही आतुर धृतराष्ट्र युद्ध के समाचार जानने के लिये संजय से पूछते हैं – “धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा रखनेवाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया ?”
इसके उत्तर में संजय युद्ध के प्रारम्भ का थोड़ा इतिहास तथा श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया हुआ गीतोपदेश व्यक्त करते हैं । इस सम्बन्ध में एक विद्वान ने मुझसे कहा – “क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि गीता में कई शंकास्पद बातें हैं ? यह सच है की गीता का उपदेश सरल है, किन्तु उतना ही गूढ़ है और कुछ जगहों पर तो समजने एवं स्वीकार करने में कठिनाई होती है ।”
मैंने पूछा – “क्यों ? उदाहारण दे सकते हैं आप ?”
उन्होंने उत्तर दिया – “उदाहरण तो मैं बहुत से दे सकता हूँ, पर फ़िलहाल तो गीता के प्रारम्भ की ही दो बातें बताता हूँ जो शंकास्पद हैं । कुरुक्षेत्र में कौरव एवं पांडव लड़ने के लिये एकत्रित हुये । अठारह अक्षौहिणी सेनाओं का नाश हुआ । काफी बड़ी हिंसा हुई । लहू की नदियाँ बही । उस भूमि को गीता के प्रारम्भ में ही धर्मक्षेत्र कहा गया है । यह कैसे उचित है ? जिस मैदान का प्रत्येक इंच लहू से सना हुआ है और जहाँ मानव ने क्रोध एवं बैर की प्रतिमूर्ति बनकर हिंसा की भयानक लीला की, उस भूमि को क्या पावन कहा जा सकता है ? इसलिए यह बड़े आश्चर्य की बात है कि गीता में उसे धर्मक्षेत्र कहा गया है ? इस बारे में आपकी क्या राय है ?
मैंने उत्तर दिया – “आपकी बात को मैं समज सकता हूँ, पर वह ठीक नहीं है । महाभारत के युद्ध से पूर्व कुरुक्षेत्र की भूमि पावन एवं धर्मभूमि मानी जाती थी या नहीं, पहले इसका विचार कीजिए । यह भूमि महाभारत के युद्ध से पहिले भी पवित्र भूमि थी । वहां अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान होते रहते थे । इसी कारण गीता में उसे धर्मक्षेत्र कहा गया है । गंगा पवित्र है और कितने ही वर्षों से पवित्र मानी जाती है । कोई उसके पानी में स्नान करता है, संध्या गायत्री करता है, तो कोई जप ध्यान करता है, किन्तु इसी तरह यदि कोई वहाँ खड़े होकर गाली गलौच करे या लड़ाई ज़गड़ा करे या गन्दगी पैदा करे, तो क्या गंगा की पावनता दूर हो जायगी ? क्या वह अपवित्र बन जायेगी ? इसी तरह हिमालय की भूमि को भी दैवी एवं तपोभूमि माना जाता है । पुरातन काल से उस भूमि में वीतराग, साधक एवं सिद्ध ऋषि मुनियोंने निवास किया है और साधना की है । आज भी इस भूमि में सर्वत्र साधु संत ही रहते हैं और साधना एवं धार्मिक कार्य ही करते हैं, ऐसा मानने की आवश्यकता नहीं है । प्रपंच, चोरी, छल कपट करनेवाले आदमी एवं साधक भी इसमें मिलते हैं । कुछ लोग इस भूमि में या गंगा के किनारे रहकर अधर्म करते हों, इससे क्या इस दिव्य भूमि का तथा पतितपावनी गंगा का महत्व कम हो जाता है ? गंगा एवं हिमालय की भूतकालीन पवित्रता एवं महत्ता है वह तो सदा कायम रहेगी । इसी प्रकार कुरुक्षेत्र की भूमि को समजना चाहिये । इस मैदान में कौरव पांडवों ने युद्ध भले ही किया हो, किन्तु वहाँ धर्म के भी अनेक कार्य हुये थे । इसके अतिरिक्त पांडव जो युद्ध करने निकले थे वह धर्म की रक्षा के लिये था । इसी लिये तो गीताकार ने उसे धर्मक्षेत्र कहा है । इसमें सन्देह करने की आवश्यकता नही ।
एक और बात है । धर्मक्षेत्र या तीर्थस्थान में लोग प्रायः पुण्यकार्य करने को इकट्ठे होते हैं । वहाँ के वातावरण में आदमी सात्विक बन जाते हैं और प्रभु की लीला के रहस्य का ज्ञान प्राप्त करते हैं । ऐसे पवित्र स्थान में भी यदि किसी को लड़ने की इच्छा हो तो क्या समजना चाहिये ? या तो उसे लड़ना या अधर्म करना भाता होगा या लड़ने या अधर्म करने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होगा, इसीलिये धर्मक्षेत्र में भी कौरव पांडव लड़ने को तैयार हुये यह कहकर गीताकार बताना चाहते है कि ईर्ष्या, क्रोध एवं स्वार्थ से मनुष्य कितना अँधा हो जाता है । कौरव इसी तरह अंधे हो गये थे, इसलिए धर्मभूमि में भी उनका दिल न बदला । यह सच है कि पांडव धर्मपरायण थे, किन्तु लड़ाई किये बिना उनके लिए कोई चारा न था ।” इन दो प्रकार के संकेतों से कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र का नाम देना उचित साबित होता है ।
- © श्री योगेश्वर