if (!window.top.location.href.startsWith("https://swargarohan.org/") && window.top.location.href != window.self.location.href) window.top.location.href = window.self.location.href;

Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

Danta Road, Ambaji 385110
Gujarat INDIA
Ph: +91-96015-81921

मेरी बात से उस विद्वान सज्जन को सन्तोष हुआ । उन्होंने कहा – “यह बात तो समज में आ गई, किन्तु अब एक और बात याद आ रही है जो समज में नहीं आती । संजय धृतराष्ट्र को युद्ध का दिग्दर्शन कराता है तथा भगवान का गीतोपदेश भी सुनाता है किन्तु वह तो युद्ध भूमि से बहुत दूर था । वहाँ से युद्ध का दृश्य कैसे दिख पड़ा ? तथा गीतोपदेश उसे कैसे सुनाई दिया ? कहा जाता है की महर्षि व्यास ने उसे दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिसके कारण वह दूर बैठे हुये भी सब कुछ देख व सुन सका । तो क्या यह बात सत्य मानी जाय ? हमारी दुनिया में तो ऐसा नहीं होता । तो क्या यह केवल कपोल कल्पना है ?”

मैंने उत्तर दिया – “आपने भी खूब खबर लेनी शुरू की है, पर कोई बात नहीं । दिव्य दृष्टि देने की बात बिलकुल सच है । गीता के अठारहवें अध्याय में संजय ने स्वयं ही कहा है कि गीता का यह रहस्यमय उपदेश उसने व्यास की कृपा से सुना और उन्हीं की कृपा से श्री कृष्ण के विश्वरूप के भी दर्शन किए ।”

अतः यह कोई गप नहीं हैं । अल्लादीन के चिराग़ या परीयों की कथा के समान यह केवल लोगों के मनोरंजन के लिए नहीं लिखी गई है । वह तो नितांत सत्य है । हमारी दुनिया में यह होता है या नहीं, यह अलग बात है, किंतु आत्मिक शक्ति के ऐसे प्रयोग यदि आज की दूनियाँ में नहीं दिखाई देते तो इससे यह नहीं समजना चाहिये कि प्रयोग कभी हुये ही नहीं या उनके वर्णन जो मिलते है वह केवल मनगढ़त है । पुरातनकाल एवं आज से कुछ समय पहले हुई कतिपय वस्तुयें आज नहीं होती । भागवत के अनुसार कदम ऋषि ने अपनी संकल्प शक्ति से एक विमान तैयार किया था जो बैठनेवाले के इच्छानुसार चलता था । तथा बिना किसी के चलाये चलता था । वह विमान अनेक प्रकार के भोग्य पदार्थो से सम्पन्न था । रामायण में भी राम के पुष्पक विमान का उल्लेख है जो अदभुत था । राम को अयोध्या में उतारकर वह विमान स्वयं किसी के चलाये बिना ही वापिस लौट गया था ।

पुरातन समय की धनुर्विद्या भी कितनी बढ़ी चढ़ी थी । याद कीजिए चित्तोड़ को, उन राजपूत रमणियों को जो अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ीं थीं । ऐसी नारीयाँ आज विद्यमान नहीं या बहुत कम संख्या में हैं, तो क्या इससे प्राचीनकाल की क्षत्रिय नारियों के वे द्रष्टांत शंकास्पद हो जायेंगे ? आजकल ज्यादातर मनुष्यों के लिए हरिश्चन्द्र एवं रंतिदेव के मार्ग पर चलना मुश्किल है, किन्तु इससे उनके द्वारा आचरित सत्य व जीवदया तथा सेवा के मार्ग को शंका की दृष्टि से देखने की आवश्यकता नहीं है ।

पंचवर्षी ध्रुवजी को पाँच महीने के स्वल्प समय ही में प्रभु का दर्शन हो गया था । उसके लीये उन्होंने बड़ी भारी तपश्चर्या की थी । ऐसी तपस्या करने की शक्ति आज किसी मामूली आदमी में न हो और पाँच या सात साल की छोटी-सी उम्र में प्रभु के पथ पर चलनेवाले शायद ही कोई हों, किन्तु इसीसे क्या ध्रुवजी की सत्यता से इनकार किया जा सकता है ? आधुनिक युग में ही उत्पन्न महात्मा गाँधी ने सत्य, अहिंसा, एवं अभय के मार्ग पर चलकर कई चमत्कार कर दिखाए । अगर कोई सामान्य मनुष्य उनकी तरह उस मार्ग पर न चल सके तो क्या यह मानना उचित होगा की सत्य, अहिंसा एवं अभय का पूर्णतः आचरण इस युग में अशक्य है ?

इसी प्रकार पुराने जमाने के ऋषि मुनियों में साधना की अदभुत शक्तियाँ थीं, जिनका वर्णन पतंजली के योगदर्शन में मिलता है । आज का मानव सांसारिकता तथा विषयों के रसास्वाद में ही निमग्न हो और ईश्वर एवं आध्यात्मिक विकास के प्रति उदासीन हो तो क्या केवल इसीसे उस वर्णन को निराधार कह सकते हैं ?

विज्ञान की सहायता से आज मनुष्य दूर-दूर के शब्दों को सुन सकता है और बोलनेवाले को भी देख सकता है । प्राचीन काल में भी ऐसी वस्तु नहीं होगी, क्या ऐसा माना जा सकता है ? आज भी अगर मनुष्य चाहे तो वैसी शक्ति क्यों नहीं प्राप्त कर सकता ? आज विज्ञान ने जो शक्ति बाहय प्रकृति की सहायता से प्राप्त की है और सर्वसाधारण के लिए सुलभ कर दी है, वैसी ही शक्ति ऋषियों तथा योगियों ने ईश्वरकृपा तथा अन्तर प्रकृति के अनुसंधान के द्वारा प्राप्त की थी । व्यास ने तो उस शक्ति का साधारण परिचय ही संजय को दिया था । उसे दूरदर्शन और दूरश्रवण भी कहा जाता है । अतः उस सम्बन्ध में तनिक भी शंका करने की आवश्यकता नहीं है ।

मनुष्य यदि चाहे तो आज एवं किसी काल में भी इससे भी अधिक चकित करनेवाली शक्तियाँ प्राप्त कर सकता है, किन्तु इसके लिए अनवरत साधना एवं उपासना की आवश्यकता है । भारत धर्मपरायण देश है । ईश्वर की खोज के लिए सर्वस्व का बलिदान करनेवाले और संन्यास लेनेवाले व्यक्ति पुरातन समय से लेकर आज तक यहाँ पैदा होते आये हैं । आध्यात्मिक रहस्यों को खोलने की इच्छा रखनेवाले तथा आत्मिक शक्तियों के विकास के लिए प्रयत्नशील पुरुष भी इस देश में प्रत्येक युग में कम या अधिक संख्या में होते रहे हैं । इसी प्रकार आत्मिक शक्तियों से संपन्न पुरुष भी यहां समय-समय पर पैदा होते रहे हैं ।

आज के विकृत यंत्रमय तथा आध्यात्मिकता से विमुख वातावरण में भी कभी-कभी ऐसे आत्मवीरों के दर्शन हो जाते हैं । यह सच है की सर्व साधारण मनुष्य आत्मिक शक्ति को न प्राप्त कर सकते हैं न समज सकते हैं, क्योंकि ऐसी शक्ति को प्राप्त करने के लिए महान त्याग एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता है तथा मनुष्य को सदा ईश्वरपरायण बनकर जीना पड़ता है या सतत आत्मा के अनुसंधान में ही निमग्न रहना पड़ता है ।

सभी इसके लिए तैयार नहीं हैं । ज्यादातर लोग तो इन्द्रियों के रस में ही डूबे रहते हैं । उनके लिए सांसारिक भोग ही जीवन का सर्वस्व है । उन्हें ईश्वर, आत्मा या आत्मिक बल की भूख नहीं होती । शरीर, इन्द्रिय और मन से पर होने पर जो आनंद मिलता है उसकी उन्हें चाह नहीं होती । ऐसे लोग आध्यात्मिक प्रदेश की अदभुत शक्तियों को क्या समझेंगे ? उनकी विशेषताओं का भी ख्याल उन्हें कैसे आ सकता है ?

मानव शरीर कितना समर्थ है तथा जीवन शक्ति का उचित उपयोग करके मनुष्य कैसी-कैसी अदभुत शक्तियाँ अपने में पैदा कर सकता है ? दूरदर्शन एवं दूरश्रवण की शक्तियाँ तो केवल नमूना मात्र है । यह बात हमारे लिये भी फायदेमंद तथा प्रेरणादायक है । मनुष्य ने अपने विकास के लिए कितना छोटा-सा दायरा बना लिया है और उसके बिच पंगु होने पर भी अपने को विराट समजकर बैठ गया है । अगर यह बात दिल में बैठ जाय तो कूपमंडूकता का अन्त हो जाय और मनुष्य उत्तरोत्तर महान, समृद्ध एवं शांति सम्पन्न बन जाय ।

हमारे उपनिषदों ने पुकार-पुकार कर कहा है – “हे मानव, तू कूपमंडक बनकर क्यों बैठा है ? सागर की खोज कर । सरिता का स्वाद लेने की इच्छा कर । नये नये अनुसंधानों में लोकहित के कर्मो में, तथा विकास में, अधिक से अधिक दिलचस्पी ले । जो अल्प है उससे तुझे सुख या संतोष कैसे मिल सकता है ? सुख तो आत्मा अथवा विराट ईश्वर में है । उस ईश्वर की खोज कर, केवल दुनिया ही में नहीं, बल्कि आत्मा के जगत में भी । तभी तू अनंत एवं अखण्ड सुख का साज़ेदार बन सकेगा । विकास के इस एकमात्र मंत्र से तू जीवन को उच्च बना सकेगा । अतः उठ ! आलस का त्याग कर, समय की महत्ता को समज तथा कमर कसकर उन्नति की विराट साधना में लग जा ।”

- © श्री योगेश्वर

We use cookies

We use cookies on our website. Some of them are essential for the operation of the site, while others help us to improve this site and the user experience (tracking cookies). You can decide for yourself whether you want to allow cookies or not. Please note that if you reject them, you may not be able to use all the functionalities of the site.