दुर्योधन के बाद तुरन्त ही व्यास एक दूसरा किन्तु उससे भिन्न पात्र हमारे सामने उपस्थित करते हैं । पात्र वैचित्र्य एवं उनकी अभिव्यक्ति की कला व्यास की अपनी है । उसका परिचय हमें यहाँ मिलता है । वह पात्र अर्जुन का है, उसके चित्रण में कला निहित है । गीता के रचयिता ने सबसे प्रथम दुर्योधन के पात्र को उपस्थित किया है और बाद में अर्जुन के पात्र को । इसीसे हमें दोनों पात्रों की तुलना करने का अवसर प्राप्त होता है ।
हाँ, तो फिर गांडीवधन्वा वीर अर्जुन की तस्वीर अपने कल्पनापट पर बनाइए । कृष्ण और अर्जुन भारतवासियों के प्राणप्रिय पात्र हैं । उनकी तस्वीर तो भारतवासियों के हृदय में बसती ही है, फिर भी कल्पना को जरा और तेजस्वी बनाइये और कुरुक्षेत्र के मैदान की ओर ले जाइए, जहाँ पांडवों एवं कौरवों की सेनाएं भयंकर युद्ध के लिए सुसज्जित होकर एक दुसरे के सामने खड़ी हैं ।
अर्जुन के रथ के घोड़ों की लगाम पकड़े हुए भगवान श्री कृष्ण भी युद्ध के मैदान में शोभायमान हो रहे हैं । सारी सृष्टि और खास कर अर्जुन जैसे भक्तो के तन मन तथा समस्त प्राणियों के जीवन के रथ की बागडोर पकड़नेवाले भगवान सारथि के वेष में कितने प्यारे लगते हैं । अर्जुन भी इस सौन्दर्य को निहार रहा है, किन्तु यह तो लड़ाई का मैदान है । इस तरह केवल सुन्दरता के पान से क्या होता है ? युद्ध के लिये तैयारी करनी चाहिए । तभी तो अर्जुन भगवान से कहता है – “इस रथ को दोनों सेनाओं के बिच में लाकर खड़ा कर दीजिए । दोनों पक्ष में युद्ध के लिए जो इकठ्ठे हुए हैं उन सब योद्धाओं को मैं जरा देख तो लूँ ।”
बस, यहाँ से अर्जुन के मन के कार्यक्रम की शुरुआत हो जाती है और फलतः गीता की जरूरत आ खड़ी हुई । अर्जुन कौरव पक्ष के योद्धाओं को देखने लगा । गुरुजन, ताऊ, चाचा, दादा, मामा, ससुर, लड़के पोते तथा अन्य सम्बन्धी लोग खड़े थे । वह दृश्य देखकर अजीब भावनाएँ उत्पन्न होने लगीं । यह देखकर कि उसके साथ लड़नेवाले उसके स्वजन ही हैं उसके मन में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ । उनके साथ लड़ना क्या उचित या वांछनीय है ? और यह युद्ध किस लिए ? एक तुच्छ राज्य या सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए ? ऐसे मामूली प्रयोजन के लिए हम एक दूसरे का गला काटने के लिए तैयार हो गये हैं, यह क्या उचित है ? नहीं, कदापि नहीं । उससे तो बेहतर है की सबकुछ छोड़कर भिखारी बन जायें ।
ऐसे-ऐसे विचार उसके मस्तिष्क में लहराने लगे और उनका प्रभाव उसके शरीर पर भी पड़ने लगा । उसके अंग शिथिल होने लगे, शरीर में पसीना आ गया, शोक और चिन्ता के कारण रोंगटे खड़े हो गए, तथा जिसके कारण उसकी त्रिभुवन में ख्याति थी और जो उसके जीवन का मानों प्राण था, वह गांडीव उसके हाथ से गिरने लगा ।
ये सब आसार अमंगलसूचक हैं, ऐसा उसे महसूस होने लगा । अपने और बाह्य जगत के किंचित चिन्हों या निमित्तों से मंगल या अमंगल की कल्पना करने की वृति आजकी नहीं, बल्कि गीता के जमाने की सी पुरानी लगती है । अर्जुन के मुख में महर्षि व्यास ने जो शब्द रखे हैं, उनसे यह स्पष्ट दिखाई देता है, किन्तु उसकी चर्चा में हम और गहरे नहीं जायेंगे । यहाँ तो हम अर्जुन और दुर्योधन के पात्रों के बिच के विरोध की ओर दृष्टिक्षेप करेंगे ।
दुर्योधन ने भी अर्जुन की ही भांति दोनों पक्ष के योद्धाओ को देखा, किन्तु उसके हृदय के भाव अर्जुन के भाव से साध्य नहीं रखते । वह तो अपनी बलवान सेना को देखकर हर्षित हुआ है । उसके पैर शिथिल नही हुए, बल्कि और भी दृढ़ हुए है । उस पर अहंकार एवं बैर भावना का नशा छाया है । सभी लक्षण उसे अपने अनुकूल और मंगलमय दिखाई पड़ते हैं । इन दोनों विरोधी पात्रों का चित्रण करके गीताकार हमें बताना चाहते हैं कि कौरव और उनके नेता दुर्योधन का प्रयोजन है लड़ना और पांडवो को निर्मूल करना । अर्जुन जिन्हें चाचा, मामा या गुरु मानता है वे भी विवेकशून्य होकर लड़ने के लिए तत्पर हो गए हैं । अच्छा, लेकिन बात तो बहुत आगे बढ़ गई । अर्जुन ने अपने मन की बात मन ही में न रखी । उसने तो अपना धर्मसंकट कृष्ण भगवान के आगे पेश किया, क्योंकि वे उसके सारथि थे । सारथि भी केवल युद्ध रथ के नहीं, बल्कि जीवन रथ के भी ।
अर्जुन ने यथाशक्ति सभी दलीलें उपस्थित कीं, जिनका सारांश यही था कि स्वजनों के साथ लड़ना उचित नहीं है । इस प्रकार के युद्ध से पाप लगता है, इससे चारों ओर से विनाश होता है । राज्य के लिये लड़ने से संन्यासी बन जाना ही श्रेयकर है । लड़ने से मेरा कुछ भी कल्याण न होगा । इससे बेहतर तो यह होगा कि कौरव मुज़ निःशस्त्र को युद्ध में मार डालें । उससे मेरा मंगल तथा कल्याण होगा ।
यह सब कहकर अर्जुन ने धनुष बाण त्याग दिये और रथ के पिछले भाग में जा बैठा । इस समय का उसका दृश्य कितना अच्छा लगता है । जब वह लड़ने के लिए तैयार होकर आया था, उसके मन में उत्साह था, पैरों में शक्ति थी, किन्तु अब ? सभी उत्साह और बल पर पानी फिर गया, क्योंकि उसके मन में तूफान शुरू हुआ । श्री कृष्ण के सामने कितनी विकट समस्या आ खड़ी हुई, इस बात को सोचिये । फिर भी वे तो शान्त हैं । वे तो जानते ही हैं कि यह दशा तो अस्थायी है । उनकी कसोटी का समय अब आ गया । नाटक का अन्त अत्यंत करुण आ गया । अब उसको किस प्रकार पलटना चाहिए ?
कृष्ण इसे अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि वे अदभुत तथा प्रवीण वैद्य हैं । उनकी कुशलता तो अब दिखाई देगी । फिल-हाल तो अर्जुन ही कुशलता लुप्त हो गई है । तत्सम्बन्धित श्लोक हैं प्रथम अध्याय का अंतिम श्लोक । वह अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रथम अध्याय का सम्पूर्ण सार इसमें समाविष्ट हो गया है । इसी श्लोक, को पढ़ना और सोचना काफी होगा । इसका अर्थ है – रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया ।
- © श्री योगेश्वर