अर्जुन की दशा कैसी थी ? लड़ने के लिए सजकर तो निकला था । इससे पूर्व कई युद्ध वह जीत चुका था । युद्ध की कला में वह अत्यन्त प्रवीण था । फिर भी उसका उत्साह शिथिल हो गया, जोश ठंडा हो गया और लड़ने से इनकार करके वह रथ में बैठ गया । इसका कारण क्या है ? क्या युद्ध से उसे वैराग्य हो गया ? क्या युद्ध में होनेवाले भीषण संहार की कल्पना से वह काँप उठा था ? या उसका दिल ज्ञान के स्पर्श से सहसा बदल गया ?
कहा जाता है कि कलिंग देश को जीतने के बाद अशोक को वैराग्य उत्पन्न हुआ था । उसने सोचा कि जिस युद्ध के कारण असंख्य मानव ओर अन्य प्राणियों की हत्या होती है उसे हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए ओर उन्होंने यह करके भी दिखा दिया तथा बौद्ध धर्म के उपयोगी उपदेशों के प्रचार की ओर ध्यान दिया । यह तो युद्ध का महान प्रसंग है, किन्तु कभी कभी तो छोटे हिंसक प्रसंगों से भी मनुष्य को ज्ञान हो जाता है ।
एक आदमी लापरवाही से पानी की पिचकारी छोड़ रहा था । पानी की धार सामने की दीवार पर जा रही थी । यह एक बिलकुल साधारण सी बात थी, किन्तु एक या दो मिनट में तो उसका समग्र व्यवसाय बन्द हो गया । वह निचे बैठकर कुछ देखने में तल्लीन हो गया और देखते ही देखते उसकी आँखे भर आईं ।
उसके दोस्तों को अचम्भा हुआ और उन्होंने इसका कारण पूछा । उत्तर में उसने ज़मीन की ओर इशारा किया वहां एक चींटी गिरी पड़ी थी । उस सज्जन ने कहा – “भाई, इसमें दुःख की क्या बात है ?“ तो उसने प्रत्युत्तर दिया – “मुज से जो बहुत बड़ी भूल हो गई है, उसका मुझे बहुत रंज है । यह चींटी दीवार से गुजर रही थी, मेरी पिचकारी से वह निचे गिरकर मर गई ।“ किन्तु इसमें इतना दुःखी बनने की क्या आवश्यकता ? ऐसा ही बल्कि इससे भी भयंकर पाप मनुष्य से कभी कभी हो जाता है । कई चींटियां मर जाती हैं । एक चींटी अगर मर भी गई तो इसमें इतना शोक ?
उस सज्जन के मन में तो एक चींटी की जिन्दगी का कुछ भी मूल्य नहीं था, किन्तु उसका मित्र तो अब भी दुःखी था । उसने कहा – “नहीं, प्रत्येक प्राणी को अपनी जान प्यारी होती है । जगत के एक जीव की हत्या का अपराध मुझसे हो गया है, इसी से मैं दुखी हूँ ।” आश्चर्य तो यह है कि उस आदमी ने अपने शेष समस्त जीवन में पिचकारी चलाना ही छोड़ दिया ।
प्रसंग अत्यन्त छोटा-सा है, किन्तु उसका रहस्य बहुत बड़ा है । यही फिलासफी अशोक के हृदय परिवर्तन में भी काम कर रही थी । छोटी बातों की उपेक्षा करना उचित नहीं है । उनका भी जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव हो सकता है । मानसिक संस्कारों का सरोवर छोटी-छोटी बातों की बूँदों ही से आखिर में भर जाता है । जो लोग ऐसी छोटी बातों पर ध्यान नहीं देते, वे बड़ी बातों पर भी विचार करने में असमर्थ रहते हैं । यह सूक्ष्म हिंसक मनोवृत्ति आगे चलकर पल्लवित होती है और मनुष्य गाय, बैल, बाघ, सिंह, हिरन इत्यादि का शिकार करने लगता है । निर्दोष भोले भाले पंछियों को बंदी कराने या मारने में उसे बड़ा मज़ा आता है । इतना ही नहीं, बल्कि वह गौरव का अनुभव करता है, यहां तक कि वह बाद में आदमियों का खून करने में कहाँ हिचकिचाता है । उसके पाशवी और भयंकर कार्य के प्रति यदि आप विरोध उपस्थित करेंगे तो वह कहेगा –“इसमें क्या ?” मतलब यह कि किसीकी हत्या करना उसके लिए मामूली बात है । इसी का नाम है राक्षसी बृति । जहाँ जहाँ भी आप इस वृति को देखें वहाँ मानव के रूप में दानव के वंशज ही विचर रहे हैं ऐसा बेखटक मानिए ।
छोटी-छोटी चीजों की ओर असावधानी मत रखिए । गुजरात के लोकप्रिय प्रेमकवि कलापी के एक काव्य में ऐसा ही प्रसंग आता है । एक बार टहलते हुए उन्हों ने किसी पंछी पर पत्थर फेंका । यह एक बिलकुल साधारण बात थी, किन्तु उसका उन पर बड़ा असर हुआ । वे लिखते हैं कि ज्यों ही उन्होंने पंछी पर पत्थर फेंका, उनका दिल दहला उठा । कवि की समस्त करुणा जाग उठी । उन्होंने उस पक्षी के साथ संवेदना महसूस की । वेदना का अनुभव करके वे बैठे ही न रहे, बल्कि पंछी को आराम पहुंचाने का प्रयत्न भी उन्होंने किया । उस पर पानी छिड़का, किन्तु सब व्यर्थ ।
भले ही ऐसा हुआ हो, किन्तु कवियों एवं पाठकों को इससे एक सुन्दर, छोटा होने पर भी बड़ा प्रेरणा गीत प्राप्त हुआ । हाथ में बन्दूक या गुलेल लेकर कितने ही लोग बिना कारण के पशु पक्षियों का निशाना बाँधते हैं या उन्हें मारने में गौरव का अनुभव करते हैं । उनके मन में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि संसार के इन भोलेभाले जीवों को मारने का उन्हें क्या अधिकार है ? पराई पीड़ा को जाननेवाले और जीवन के मूल्य को समजनेवाले मनुष्य आत्मवत दूसरों को प्रेम की दृष्टि से देखेंगे और दूसरों के जीवन के घात की बात तो क्या, वह ऐसा विचार भी शायद ही कर सकेंगे ।
मनुष्य को अपने स्वाभाव में अभी बहुत सुधार करना बाकी है । सामूहिक तथा वैयक्त्तिक युद्ध मानव की शर्म है । मनुष्य को चाहिये की उनका त्याग करे । आज मानवों का बड़ा समुदाय ऐसे ऐसे साधनों का अविष्कार करने में लगा है जिनके द्वारा लाखों लोगों का आसानी से विनाश किया जा सके और सारे संसार में आतंक फैलाया जा सके ।
आतंक फ़ैलाने की यह भावना मनुष्य के दिल में कहाँ से पैदा होती है ? वह बाहर से नहीं आती, वरन अंदर ही से उत्पन्न होती है । छोटी चीजों की अवज्ञा करने से कालान्तर में बड़े संस्कारों का प्रबल स्तर पैदा होता है, फलत: ऐसी निर्दय और विनाशकारी इच्छा उत्पन्न होती है । ऐसे मनुष्यों के जीवन में कोई भारी प्रभावोत्पादक प्रसंग उपस्थित होता है तब उनका परिवर्तन होता है । तो क्या आज तक जऱा भी संकोच किए बिना युद्ध करनेवाले अर्जुन का मन भी युद्ध के विनाश के विचार से एकाएक बदल गया था ? उसके जीवन मे क्या अहिंसा का नया अध्याय शुरु हुआ था ?
गीताकार कहते हैं कि ऐसा मत मानिए । युद्ध के विनाश से अर्जुन के पैर शिथिल नहीं हुए और न उसका दिल हिल उठा । उसकी शिथिलता, खिन्नता व विषाद का कारण तो कुछ और ही है । वह खुद कहता है – इतने सारे स्वजनों के साथ मैं कैसे लडूँ ? उसके मनोमंथन का मूल रहस्य यही है । लड़ने से उसे इनकार नहीं किंतु स्वजनों के साथ लड़ने में उसे संकोच है । गुरुजन तथा बुज़ुर्गो के साथ युद्ध किस प्रकार किया जाय ? ऐसा युद्ध तो पापकारी है । यही उसकी असली उलज़न है । इस गुत्थी के कारण ही उसे मोह हुआ है, किसी ज्ञान या वैराग्य के कारण नहीं । मित्र, गुरुजन, एवं स्वजनों के प्रति उसे ममता थी । इसीलिए उसने धनुष बाण का त्याग किया, यह समज़ लेने की आवश्यकता है ।
- © श्री योगेश्वर