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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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इसी उलजन में अर्जुन भिक्षु या संन्यासी बन जाने की बात कह डालता है । स्वजनों से लड़ने की अपेक्षा त्यागी होकर पेट भरना और जीवन बसर करना उसको श्रेयस्कर लगता है । वस्तुतः त्यागी बनने की असली भूमिका पर वह अभी नहीं पहुंचा था । वह क्षत्रिय था और क्षत्रिय के अनुरूप व्यवहार उसे करना था । उसके जमाने में जो शास्त्रिय प्रणाली प्रचलित थी, उसके अनुसार उसे अभी, इच्छा होने पर भी, त्यागी बनने में देर थी । फिर भी युद्ध करके धर्म की रक्षा व अधर्म का प्रतिकार करने के अपने धर्म को त्यागकर संन्यासी बनने की इच्छा उसे हुई, यह दृढ़ वैराग्य व विचार के कारण नहीं था । वह तो एक उफान था, श्मशान वैराग्य का स्वरुप था और वह भी सच्चा स्वरुप न था ।

श्मशान में किसी की चिता को जलती देख मनुष्य कभी-कभी फ़िलासफ़र बन जाता है और संसार की असारता की बातें करने लगता है, किन्तु यह सब कहाँ तक ! श्मशान में जब तक है तभी तक और वहाँ तक भी शायद ही । बर्तन में दूध उबलता हो तो उसमें अग्नि की तेज़ी के कारण उफान आ जाता है, लेकिन लकड़िया खींच लेने पर या अग्नि कम कर देने पर वह उफान शान्त हो जाता है । इसी तरह श्मशान के दृश्य को आँख से देखने पर कभी-कभी मनुष्य को संसार के मिथ्यापन और सब कुछ छोड़कर ईश्वर स्मरण में लग जाने का विचार आता है, किन्तु घर आने पर सब रंग ग़ायब ।

कभी कभी तो विधुर भी एक ओर चिता जलती देख अर्जुन की भांति भिक्षु धर्म स्वीकार करने की बात करते-करते शादी के नये रिश्ते की बात भी छोड़ देता है, किन्तु ऐसा वैराग्य कहाँ तक टिक सकता है ? मान लीजिए कि श्मशान वैराग्य के क्षणिक आवेश में आकर पुरुष कदाचित संन्यासी बन जाय तो भी उसका संन्यास कहाँ तक सार्थक हो सकता है या टिक सकता है ? ग़म से, हानि से या ऐसे किसी धक्के के कारण से उत्पन्न त्याग की महत्ता में कौन विश्वास कर सकता है ?

श्मशान वैराग्य के कारण मनुष्य त्याग करता है, फिर भी त्याग का हेतु उससे सिद्ध नहीं होता । त्यागी बने अनेक मनुष्यों के सम्बन्ध में यही सत्य है । अर्जुन को सच्चा वैराग्य नहीं उत्पन्न हुआ था । उसकी भारती तो ममता के रंग से रंगी थी । अभी तक वह त्याग के सच्चे स्वरुप को नहीं पहचान पाया था । अगर वह अच्छी तरह समज सका होता तो अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करके भी त्याग का आनन्द उपलब्ध कर लेता, किन्तु उसकी गुरु कुँजी उसके पास नहीं थी ।

प्रत्येक परिस्थिति में स्वधर्म का पालन करना मनुष्य मात्र के लिए नितान्त आवश्यक है । परिस्थिति अच्छी हो या बुरी, अनुकूल हो या प्रतिकूल, कभी भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ना चाहिए । स्वधर्म कितना भी उलज़ा हुआ या कठिन हो, तथा दुसरे का धर्म कितना ही सरल या अच्छा लगता हो, फिर भी मनुष्य को चाहिए कि अपने धर्म का पालन करे । धर्म का मतलब है अपने को विरासत में मिला हुआ कर्म । उसके पालन ही में मनुष्य का कल्याण है । समाज की व्यवस्था भी उससे ही स्थायी रह सकती है । जमीन पर पैर रखकर चलने का धर्म मनुष्य को सहज ही प्राप्त है । उसको छोड़कर अगर वह बिना किसी सहारे के हवा में उड़ने का प्रयत्न करे तो उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो जाय, इसमें शंका का स्थान कहाँ है ? इसी प्रकार मछली जल में और मनुष्य बाहर जीते है । इससे विपरीत अगर मनुष्य पानी के भीतर जीने का प्रयत्न करे तो वह सफल कैसे हो सकता है ?

कतिपय माली संन्यास ले लेते हैं, किन्तु माली जीवन के संस्कार अमिट होने के कारण संन्यासी बनने के बाद भी फ़ल फूल पेड़ों की रखवाली में भांति-भांति की तरकारियाँ उगाने में बराबर आनन्द लेते रहते है । लड़ाकू वृतिवाले मनुष्य संन्यासी होकर भी हाथ में लकड़ी और पत्थर धारण करते हैं और कानन के मासूम प्राणियों को सताने से बाज नहीं आते । अर्जुन ने अगर संन्यास ले लिया होता तो भी वह संन्यासी जीवन को किस प्रकार व्यतीत करता ? मान लीजिए कि संन्यास धर्म का पालन वह ठीक से कर लेता तो भी क्या अपने स्वाभाविक कर्म का त्याग करना उसके लिए उचित होता ? नारायण हरि कहके पेट भरना कदाचित आसान है, किन्तु इसी लिए उसका आश्रय ग्रहण करने की तत्परता रखना आवश्यक नहीं है ।

अपने पास आया हुआ कार्य, जो कर्तव्य आपको सामने खड़ा होकर पुकार रहा है, वह चाहे सरल हो या कठिन, उसे जी जान से तथा पूरी कुशलता के साथ करना चाहिए । सन्तान की रक्षा करने का दुष्कर कार्य विधाता ने माता को सौंपा है । उसका त्याग किस प्रकार हो सकता है ? अगर त्याग करना ही है तो सम्पूर्ण संयम का पालन करके किया जा सकता है । अगर यह नामुमकिन है तो फिर ऐसी कला सिख लेनी चाहिए जिससे सन्तान रक्षा का कार्य अच्छी तरह किया जा सके और भार समान न लगे ।

इस प्रकार अपने को प्राप्त फ़र्ज कठिन हो तो भी उसका पालन करना ही मनुष्य के लिए उत्तम है । स्वधर्म या कर्तव्य के आचरण की कला प्रत्येक मनुष्य को सीख लेनी चाहिए, जिससे कठिन कार्य भी उसके लिए आसान हो जाए, सारा काम उत्कृष्ट ढंग से पूरा हो और इतने पर भी उसके लिए बंधनकर्ता या बोज के समान न हो जाये ।

अर्जुन के मन में एक दूसरा विचार आ गया, जिसने उसके मन को अत्यधिक प्रभावित किया । उसे विषाद-ग्रस्त करने तथा उससे धनुष बाण त्याग करवाने में उसका योगदान कम नहीं था । वह विचार क्या था ? स्वजनों की ह्त्या करने से सुख तो नहीं मिलेगा, बल्कि पाप ही हाथ आयेगा और नरक की यातना भुगतनी पड़ेगी । इस विचार ने उसके मन को और भी विषादमय बना दिया ।

पाप और पुण्य का विचार अत्यन्त प्राचीन है । उसके निष्कर्ष को निरूपित करते हुए महर्षि व्यास ने लिखा है कि दूसरों कि सहायता करना, जो सबसे उत्तम है उस परम कृपालु परमात्मा के लिए जीवन-यापन करना, यही पुण्य है; तथा दूसरों को कष्ट या हानि पहुँचना और भगवान के नीति नियमों के विरुद्ध आचरण कर उनके तथा जगत के लिए बोज या पीड़ा बनना – यही पाप है ।

परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥

शास्त्रों ने इसमें कहीं-कहीं सुधार या परिवर्तन का सुजाव दिया है, फिर भी धर्म की यह व्याख्या तो अमर सत्य है । मनुष्य स्वयं इस व्याख्या को जानता है, तो भी हमेशा पाप व पुण्य का विचार वह नहीं कर सकता । पाप और पुण्य का विचार करते समय कर्म के बाह्य स्वरुप को ही देखकर निर्णय लेना समुचित नहीं । कर्म के पीछे निहित भावना को भी परखना होगा । इस बात की गहराई में जाने की यहाँ आवश्यकता नहीं ।

हाँ, तो यह सभी जानते हैं की युद्ध कर्म हिंसायुक्त है । इसमें अनेक जीवों की हत्या होती है । अर्जुन भी इस बात से परिचित था, पर उसका विषाद इस कारण न था । युद्ध तो उसे प्यारा था, परन्तु इस युद्ध में तो उसे स्वजनों के साथ लड़ना था । अतः उसे पाप का विचार तंग करने लगा । युद्ध करने से सुख नहीं मिलेगा, ऐसा भय भी उसी से उत्पन्न हुआ । फलतः उसका विषाद और भी बढ़ गया ।

- © श्री योगेश्वर

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