प्रथम अध्याय में हमने अर्जुन विषाद की चर्चा की । विषाद के इस सिलसिले में एक दूसरा प्रसंग याद आता है । जैसे अर्जुन को वैसे राम को भी विषाद हुआ था । उन्होंने भी संसार के प्रति अपना विषाद अच्छी तरह से प्रकट किया था । जैसे अर्जुन को जीवन सारथि के रूप में भगवान श्री कृष्ण मिले वैसे ही राम को महर्षि वशिष्ट । परिणाम दोनों का एक-सा हुआ । अर्जुन और राम दोनों सच्चा ज्ञान प्राप्त करके अलिप्त भाव से कर्म करने की कला सिख सके और संसार को दो ग्रन्थ रत्नों की प्राप्ति हुई, गीता और योग वशिष्ट । दोनों भारत के महान वारिस ग्रन्थ हैं और मनुष्य मात्र के लिए सर्वत्र और सदा प्रेरणा तथा शक्ति और प्रकाश के स्त्रोत हैं । भारतीय ऋषिवरों की जीवन के प्रति क्या भावना थी, इसका परिचय इन ग्रन्थों से भली-भाँति मिलता है । फ़र्ज और जीवन के व्यवहार से भागने की वृत्ति का त्याग वे सिखाते हैं । वैराग्य या विषाद के क्षणिक आवेश में आकर मनुष्य को अपना विवेक नहीं गँवाना चाहिए । यह इन दोनों ग्रन्थों का उपदेश है । उसकी बात हम आगे करेंगे । यहाँ तो अर्जुन के विषाद का क्या हुआ, यह देखना है ।
एक बार मैं साबरमती नदी के तट पर बैठा हुआ था । शाम का वक्त था । गाँव की ओर से फूस से भरी हुई बैल-गाड़ियों का एक जलूस आया । सभी बैल हट्टे कट्टे दीखते थे । सड़क समतल थी और बैल दौड़े चले आ रहे थे । नदी के अंदर से जाता हुआ वह जलूस बहुत सुहावना लगता था । छः सात गाड़ियाँ नदी के पर वाले किनार पर जा पहुँचीं और वहाँ से शुरु होनेवाले ढाल पर चढ़कर आगे बढ़ने लगीं, लेकिन इसके बाद ही एक हृदयस्पर्शी घटना हुई । एक गाड़ी में बैलों की क्षमता से ज्यादा बोजा लदा हुआ था । इसलिए नदी पार करके ज्योंही चढ़ाई शुरु हुई, उस गाड़ी के बैल बैठ गए । पीछे की सभी गाड़ियाँ रूक गई । गाड़ीवालो को जल्दी थी क्योंकि ऊन्हें रात में ही चलकर शहर में पहुँचना था । इसलिए उनका धैर्य छूट गया । हाथ में रक्खे हुए कोड़े के ब्रह्मास्त्रको उन्होंने बैलों पर आज़माना शुरू किया । और भी कितने प्रयोग किये, पर बैल लाचार थे । उन पर बेहद बोजा डाला गया था जिसके विरूद्ध वे इस प्रकार मूक शिकायत कर रहे थे, लेकिन उनकी शिकायत सुननेवाला कौन था ? उनके सत्याग्रह को मदद भी कौन दे ? अंत में एक बैल को निकाल कर उसके स्थान पर दूसरा बैल जोता गया, तब कहीं गाड़ी चल पाई और गाड़ीवालेने भी राहत की साँस ली ।
कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों की विशाल सेना रुपी नदी के तट पर आकर अर्जुन को जो शोक हुआ, उसका विचार कर मुझे वह पुरानी घटना याद आ गई । गाड़ीवाले किसान के आगे जो समस्या आई थी, उससे भी अधिक गंभीर समस्या भगवान कृष्ण के सामने आ गई थी, किन्तु उसे सुलज़ाने का साधन भी उनके पास था । इस साधन का संकेत उन्होंने आगे चलकर अर्जुन को और उसके द्वारा सारे संसार को दिया है ।
उन्होंने अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में बताया – “हे अर्जुन, तुम्हारा यह मोह और संशय अज्ञान से उत्पन्न हुआ है । इसलिये यह उचित नहीं है । ज्ञानरुपी तलवार से उसे काट डालो और लड़ने के लिये तैयार हो जाओ ।” अर्जुन का मोह अज्ञान से उपन्न है यह तो इसी वाक्य से स्पष्ट हो जाता है । उसे दूर करने के लिये भगवान स्वयं कैसे साधनों का उपयोग करते हैं और दूसरों को सिफ़ारिश करते हैं, यह भी अच्छी तरह से समज में आ सकता है । ज्ञानरूप शस्त्र का प्रयोग करने की भगवान ने सिफारिश की है । उस शस्त्र का प्रयोग करके भगवान ने अर्जुन के मृत उत्साह और विवेक को पुनः जीवित कर दिया और उसे सच्चे अर्थ में वीर बना दिया । गीता का उपदेश यही वीरता की शिक्षा है या कहिए कि मृतप्राय या मृतकों के लिये संजीवनी है ।
गाड़ीवालों की भाँति भगवान भी हतोत्साह नहीं हुए । उनके मुख पर तो वैसी ही मुस्कुराहट बनी रही । फिर भी थोड़ा-सा गंभीर होकर उन्होंने अर्जुन से कहा – ” हे अर्जुन, ऐन वक्त पर इस अपयश प्राप्त करानेवाले शोक ने तुम्हें कहाँ से आ घेरा ? युद्ध ही जब तुम्हारा प्रिय व्यवसाय है तो तुम्हें इस युद्ध में जबकि शंखनाद हो रहा है, नहीं लड़ने का विचार ही कैसे आया ? रणभूमि में खेलनेवाले क्षत्रिय को यह विचार शोभा नहीं देता । अतः इस कायरता को छोड़कर युद्ध करने के लिये उठ खड़े हो । ”
इतने ही उपदेश से अर्जुन का समाधान कहाँ होनेवाला था ? उसका शोक गहरा तो था ही, जिसके लिये भगवान के कितने ही उपदेश वचनों की आवश्यकता थी । उसने तो पहले ही अध्याय में छेड़ा हुआ राग फिर से शुरू कर दिया । उसके हृदय में से एक ही स्वर उठ रहा था – “यह मान लिया की युद्ध मेरा प्रिय व्यवसाय है और क्षत्रिय होने के नाते मेरा धर्म भी है, लेकिन उसकी भी कोई मर्यादा तो होती ही है न ? किसके साथ युद्ध करना है, इसका भी तो विचार करना चाहिए न ? इस युद्ध में भीष्म और द्रोण जैसे पूज्य पुरुषों के साथ लड़ना है । उन पर तीर चलाने का दिल ही कैसे हो ? ऐसे पूज्य पुरुषों को मारकर सुख और शांति कैसे मिलेगी ? उनको मारने से तो हमारे हाथ लहू से सन जायेंगे । हमारा अन्तस्थल ग्लानि से भर जायेगा । ऐसी अवस्था में हमें प्राप्त हुआ राज्य सुख भी कैसे अच्छा लगेगा ? स्वजनों को मारने से हमारे दिल में सदा के लिये डंख रह जाएगा और जीवन में दुःख और अशांति का साम्राज्य फैल जाएगा । अतएव उनको मारने में किसी तरह भी हमारा हित नहीं । इसलिये अमंगल के मूल जैसा यह युद्ध करने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं होती । इस हालत में मुझे क्या करना चाहिए ? मुझे युद्ध के मैदान से चला जाना चाहिये या नहीं, यह निर्णय भी मैं नहीं कर सकता, क्योंकि मेरे मन की अवस्था मूढ समान है । कर्तव्य की स्पष्ट प्रेरणा उसके भीतर प्रकट नहीं हो सकती । अतः मैं आपकी ही शरण आया हूँ । आप ही मेरे प्रकाशदाता गुरुदेव हैं । जो उचित हो वह उपदेश दें ।
- © श्री योगेश्वर