अर्जुन का हृदय कितना सरल था यह तो हमें उसके उपरोक्त शब्दों से ही ज्ञात हो जाता है । उसे लड़ने की इच्छा नहीं है । स्वजनों के साथ युद्ध उसे तनिक भी पसंद नहीं । ऐसा कहने के बाद भी अंतिम निर्णय का कार्य वह अपने पर नहीं, किन्तु भगवान कृष्ण पर छोड़ देता है । भगवान पर उसे कितनी श्रद्धा है इसका संकेत हमें उसके शब्दों ही से मिल जाता है । इस श्रद्धा की प्रेरणा ही से तो उसने भगवान को सारथि के रूप में पसंद किया है । वह अगर चाहता तो वह कह सकता था कि मेरे रथ को युद्ध क्षेत्र से दूर हटा लीजिए । अब मैं किसी तरह भी नहीं लड़ सकता । युद्ध सभी प्रकार में भयानक और अमंगल है, लेकिन ऐसा कहने के बदले, ‘मैं नहीं लडूँगा’ यह कहकर वह चुप हो जाता है और अपना सब भार भगवान पर छोड़ देता है । इस बात से जैसे उसकी श्रद्धा भक्ति का परिचय मिलता है वैसे ही उसकी अनिश्चय की मनोदशा का भी मिलता है । युद्ध से अभी तक वह पूर्ण रूप से विरक्त नहीं हुआ था । अगर ऐसा होता तो वह किसी से सलाह लेने की परवाह नहीं करता और अशोक की भाँति अहिंसक बनकर कुरुक्षेत्र के मैदान से चला जाता, लेकिन गीताकार हमें बताना चाहता है कि ऐसा मत मान लेना कि अर्जुन का वैराग्य इतना तीव्र हो गया है । लड़ने की वृत्ति अभी तक निःशेष लुप्त नहीं हुई, इसलिए तो वह शस्त्रों को धारण करके आया था । यह जो ज्ञान और वैराग्य के छींटे उसके मुँह से उड़े है उसका मुख्य कारण यह था कि स्वजनों के साथ लड़ाई उसे पसंद नहीं है ।
अच्छा, अर्जुन ने तो बहुत सुन्दर दलीलें करके एक कुशल वकील की भाँति अपना पक्ष पेश कर दिया, लेकिन परिस्थिति इस हद तक पहुँच जाने पर भी भगवान शांत चित्त से मुस्कुरा ही रहे हैं । अर्जुन ने अपनी बात इस तरह कही कि सुनने वाले को भी वैराग्य एवं विषाद हो जाय । लेकिन भगवान पर तो उसका कोई असर नहीं हुआ । गीता के पाठक को तो क्षणभर के लिए ऐसा लग सकता है कि पांडवों के प्राण जैसे अर्जुन के पाँव तो लड़खड़ा गए इसलिए अब बाज़ी खत्म हुई, लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है । यह तो अभी शुरुआत है । सारी बाजी तो श्रीकृष्ण के हाथ में है । वे जानते हैं कि अर्जुन का यह आलाप क्षणिक है । सच्ची बात तो यह है की वह युद्ध के बिना रह ही नहीं सकेगा । अतः वे शान्त मूर्ति बनकर बैठे रहे । जिनको सारे संसार की व्यवस्था करनी है वे यदि बात-बात में अशांत हो जाऐं तो काम कैसे चल सकता है ? अपने और दूसरों के जीवनरथ को चलाने की जिम्मेदारी जिनके सर पर है, उनको हरएक प्रतिकूल या अनुकूल परिस्थिति में ऐसे ही शांत रहना चाहिए । लेकिन शांत रहने के बाद भी ज्यादा समय तक मौन रहना क्या उचित है ? यह तो संकट कालीन परिस्थिति है । पल-पल की यहाँ कीमत है, इसीलिए भगवान ने अर्जुन को संबोधित कर बोलना शुरू किया ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)