मामूली लोग ऐसी विजय प्राप्त नहीं कर सकते । उनके लिए गीता एक सुंदर मार्ग दिखाती है । गीता का कथन है कि मृत्यु स्वाभाविक एवं अवश्यम्भावी है अतः उसकी चिंता या शोक व्यर्थ है । अगर मनुष्य इतनी ही सिद्धि प्राप्त कर ले तो भी काफी है । अगर वह मृत्यु से भयभीत न हो, मृत्यु का शोक न करे तथा समय आने पर बिना कष्ट या विषाद के हँसते हुए देहत्याग कर सके तो भी पर्याप्त है । मृत्यु उसके लिये नवजीवन के द्वार समान एवं ईश्वरी दूत के समान बन जाय तो यह भी कम महत्वपूर्ण सिद्धि नहीं मानी जायगी । इसके लिये उसे इसी जीवन में ऐसा कर्म करना चाहिए, ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए कि मृत्यु उसके लिये उलज़न न बनकर उत्सव स्वरूप हो जाए ।
शकुन्तला को ससुराल विदा करते समय कण्व ऋषि कृतार्थ हुए थे । पराई अमानत लौटाते हुए आनंद और संतोष होता है, उसका अनुभव उन्होंने किया । शकुन्तला को वह बहुत चाहते थे । अपने पूरे अस्तित्व से वे उसे प्यार करते थे । शकुन्तला उसके जीवन में ओतप्रोत हो गई थी । फिर भी उसे यही शोभा देता है, यह मानकर उसे ससुराल भेजते हुए उन्होंने अपने को ऋण मुक्त समजा ।
मनुष्य को भी देह त्यागते वक्त उसी तरह माया मुक्त बन जाना चाहिए । ईश्वर की अमानत ईश्वर को ही लौटा देने की भावना मन में रखनी चाहिए । जो जिसका है उसे उसीको देते हुए शोकग्रस्त क्यों होना चाहिए ? अन्य द्वारा दी गई जायदाद पर अपना स्वामित्व स्थापित करने का मोह क्यों रखना चाहिए ? अतः दूसरे के द्वारा दी गई अमानत योग्य समय आने पर वापिस देने में आनाकानी नहीं करनी चाहिए ।
शरीर पर भी मनुष्य को स्वामित्व का अभिमान करने की आवश्यकता नहीं । यह अभिमान व्यर्थ है तथा उससे मनुष्य का पतन होता है । शरीर ईश्वर की धरोहर है ऐसा माननेवाला व्यक्ति जब ईश्वर शरीर की माँग करेगा तब देते हुए हिचकिचाएगा नहीं । महात्माओं, आचार्यों तथा महापुरुषों की दशा ऐसी ही होती है । कबीर कहते हैं – “यह पंच महाभूत से बनी शरीररुपी चादर मैं प्रभु को जैसी उन्होंने दी थी, वैसी ही बेदाग़, समर्पित करना चाहता हूँ ।”
महापुरुषों के लिए तो यह बिल्कुल स्वाभाविक है । मृत्यु का समय आता है तब महापुरुष फूले नहीं समाते । अपने प्यारे प्रभु के पास पहुँचने का प्रसंग आ पहुंचा है इस ख्याल से वे हर्षित होते हैं । शरीर का आवरण दूर होने पर अपनी जीवात्मा परमात्मा के साथ एकाकार हो जायगी, इस विचार से वे प्रसन्न होते हैं । इसीलिये वे मृत्यु को आशीर्वाद मानते हैं और प्रियतम की भाँति उसे गले लगाते हैं । उनकी मृत्यु मंगलमय होती है । वे हँसते हँसते संसार से विदा हो जाते हैं, किन्तु साधारण लोगों की दशा इनसे भिन्न होती है । मृत्यु के समय से पहले ही वे कुहराम मचा देते हैं तथा शोक में डूब जाते हैं । लम्बे अर्से से जिस शरीर को अपना मानकर प्रीतिपात्र बना रखा है, इसे छोड़ते समय वे डर जाते हैं और अनेक प्रकार के तर्क वितर्क करने लगते हैं । फिर भी मृत्यु के आगे उनकी दाल नहीं गलती । मृत्यु के जाल में उन्हें फँसना ही पड़ता है ।
मृत्यु के समय ऐसी दुर्दशा न हो तथा मृत्यु के भय पर सदा के लिए विजय पाने के लिए मनुष्य को पहले से तैयारी करनी चाहिए । मृत्यु किसी भी काल या स्थल पर त्यौहार बन जाए, ऐसी तैयारी करने की आवश्यकता है । जीवन में सदैव उत्तम कर्म करते रहना चाहिए । जो जीवन को उत्सवमय बना सकेंगे, उनके लिए मृत्यु महोत्सव के समान बन जाएगी, इसमें संदेह नहीं । इसके साथ ही मनुष्य को समज लेना चाहिए कि मृत्यु शोक करने की चीज नहीं । एक न एक दिन संसार से जाना ही पडेगा । अतः मृत्यु का आलिंगन करने की तैयारी करनी चाहिए ।
मृत्यु का अनुभव मनुष्य को दैनिक जीवन में हो सकता है । हम जब सो जाते है तब शरीर व संसार का होश चला जाता है । यह छोटी मृत्यु है । दूर देश में प्रवास पर गया हुआ व्यक्ति अपने स्नेही सम्बन्धियों से दूर चला जाता है । भिन्न भिन्न देशों में वह घूमता है, पर अपने घर या परिवार से बिछड़ा रहता है । यह भी एक प्रकार की मृत्यु ही है, किन्तु वह ज़िंदा मौत है । इस हालत में आदमी परदेश में रहने पर भी अपने स्वजनों के समाचार प्राप्त कर सकता है तथा इच्छा होने पर उनसे मिलने भी जा सकता है । सच्ची मृत्यु में कोई अवकाश नहीं रहता । मरे हुए आदमी के समाचार उसके प्रियजनों को नहीं मिलते तथा वे लोग भी अपने समाचार उसके पास नहीं पहुँचा सकते ।
तात्पर्य यह कि व्यवहारिक जीवन में ही मनुष्य को मृत्यु की तालीम लेनी चाहिए । इस संसार से विदा होने की शक्ति धीरे-धीरे हासिल करनी चाहिए । अगर ऐसा हो तो मृत्यु के भय से मुक्त होने का कार्य उसके लिए आसान बन जाएगा ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)