मनुष्य ने तो मृत्यु को बहुत ही अशुभ मान लिया है । मानो मृत्यु ईश्वर का आशीर्वाद नहीं, बल्कि अभिशाप ही हो । इसलिए वह उसके विचार ही से कांप उठता है । मरनेवाला या देह छोड़नेवाला मृत्यु के समय रो ही उठता है, लेकिन जो जीते है उनकी दशा तो देखिए । किसीकी मौत को देखकर इस बात को याद करना चाहिए कि मृत्यु सबके लिए अनिवार्य है । संसार से माया और ममता को कम करना चाहिए और जीवन को अधिक से अधिक उज्जवल बनाने का प्रयास करना चाहिए ।
मृत्यु आने से पहले के समय में सत्कर्मों का पाथेय बांधकर जीवन सार्थक करने का संकल्प करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय मनुष्य इकठ्ठे होकर मृत मनुष्य के पीछे रोने धोने लगते हैं । यह विलाप अधिकतर तो जूठ ही होता है । रूलाई न आती हो तो भी दूसरों को दिखाने के लिए भी वे रोते हैं और दूसरों को रुलाते हैं । रोने धोने की यह प्रथा बिलकुल व्यर्थ है और समजदार मनुष्यों को उसे त्यागना चाहिए । यदि किसीकी मौत हो गई तो उसके पीछे आप कितना ही शोक करें, रोएँ या छाती पीटें, यह हरगिज वापिस नहीं आ सकता । इतना ही नहीं, बल्कि कभी-कभी तो ज्यादा छाती या सर पीटने से कोई रोग लग जाता है । इसलिए ज़ाहिर में रोने या छाती कूटने की प्रथा का अंत होना चाहिए । जिसे हार्दिक दुःख है उसे बाहरी दिखावा करने की क्या जरूरत है ?
मृत्यु के समय अपनी भावना को कुछ लोग दूसरी पद्धति से व्यक्त करते हैं । वे मृत मनुष्य के शरीर को सजाते हैं और आनंद से उत्सव मानते हैं । वैसे ही नाचते गाते, कीर्तन करते श्मशान यात्रा में शरीक होते हैं । एक जीव भगवान के दरबार में जाने के लिए विदा होता है, उसे बहुत प्रेम से विदा करना चाहिए और उस शुभ समय पर शोक या विषाद नहीं वरन उत्सव करना चाहिए, ऐसा उनका कहना है ।
यह कथन भी ठीक है । वह पद्धति भी अच्छी है, लेकिन इससे अलग एक दूसरी पद्धति भी हो सकती है, जिसके अनुसार मृत्यु का प्रसंग न तो विषाद या शोक करने का है और न उल्लास का । वह तो रहस्यमय और गंभीर प्रसंग है । इसलिए उसे गंभीरता एवं शांति से मनाना चाहिए । यह पद्धति सबसे उत्तम लगती है, इसमें संशय नहीं ।
कुछ भी हो, लेकिन मनुष्य को मृत्यु का भय त्यागना चाहिए यह निश्चित है । मनुष्य स्वयं मरे या न मरे, लेकिन मृत्यु ही मर जाय, इस प्रकार जीना चाहिये । गुजरात के आदि कवि भक्त श्री नरसिंह मेहता ने एक पद रचा है, जिसका अर्थ है : ‘मृत्यु की ही मौत हो गई’ इस तरह गाने की और अनुभव करने की शक्ति सबको हासिल करनी चाहिये । इस संसार में कोई चिरंजीव या अमर नहीं है । आज तक इस धरा पर कितने प्राणी हो गये और होते ही रहेंगे । यह संसार है ही परिवर्तनशील । इसमें कौन सी चीज़ एक-सी या स्थिर रह सकती है ?
इस धरा पर जन्म लेनेका जो अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ है, उसका अच्छी तरहसे उपयोग करके मनुष्य को अपना हित साधना चाहिये । मृत्यु को मारकर मृत्यु के पति और सृष्टि के स्वामी विश्वनियंता को पहचानने का प्रयास करना चाहिए । गीतामाता की यही शिक्षा है । वह पूछती है - ´मेरे प्यारे बच्चो, क्या तुम मौत से डरते हो ? अपने या दूसरों के जन्म मृत्यु पर शोक करते हो ? अगर डरते हो या शोक करते हो तो याद रक्खो कि यह ठीक नहीं ।” मृत्यु के भय और शोक के पीछे जो अज्ञान छिपा है, उसे दूर करना चाहिए ।
भगवान उपदेश देते हैं कि, “हे अर्जुन, जो मृत्यु स्वाभाविक है, उसके लिये तू शोक करता है । यह देखकर मुझे आश्चर्य होता है । बुद्धिमान मनुष्य मृत्यु का शोक कभी नहीं करते । मृत्यु का शोक करने का काम तो कायरों का है । अतः मृत्यु का भय और शोक छोड़कर तू निर्भय बन और लड़ने के लिये तैयार हो जा ।”
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)