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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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शरीर की माया और शरीर के अध्यास में केवल सामान्य मनुष्य ही नहीं फँसे हैं बल्कि वे लोग, भी उसमें डूबे हुए हैं जो विद्वान, पण्डित और नेता कहलाते हैं, जो समाज में प्रतिष्ठित होकर घूमते हैं और दूसरों को उपदेश देते हैं । ज्यादा उम्र के लोग अनेक प्रकार के अनुभव पाकर समजदार बन जाते हैं, पर इस बारे में तो उम्र भी अपवाद नहीं है । बड़ी उम्र के मनुष्यों में भी शरीर की ममता और अहंकार दिखाई देता है ।

चांगदेव महान योगी था । कहते हैं की उसने १४०० साल तक योगबल द्वारा अपने शरीर को टिकाया हुआ था । इतने लम्बे अर्से के बाद उसे संत ज्ञानेश्वर की खबर मिली । ज्ञानेश्वर की शक्ति अपार थी । उन्होंने पन्द्रह साल की ही अवस्था में गीता पर एक प्रसिद्ध टीका लिखी और केवल २१ वर्ष तीन महीने और पंद्रह दिन की आयु में जीवित समाधि ले ली ।

उस संतपुरुष की मेघा और योगशक्ति कितनी महान और अलौकिक रही होगी । उनसे ज्ञान पाकर शांति प्राप्त करने का विचार १४०० साल के चांगदेव को आया । वह योगी, किन्तु अभिमानी था । उसे अपनी शक्ति का बड़ा गर्व था, जिसका प्रदर्शन करने के लिए वह बाघ पर सवार हुआ । साँप का कोड़ा बनाया और ज्ञानेश्वर से मिलने चला, लेकिन ज्ञानेश्वर ऐसे कहाँ हार माननेवाले थे । चांगदेव को दूर से आते देख ज्ञानेश्वर ने उनके स्वागत का विचार किया । वे अपने भाई बहन के साथ एक टूटे हुए घर की दीवार पर बैठे हुए थे । उस दीवार को उन्होंने चलने के लिये आज्ञा की तो दीवार चलने लगी । इस अलौकिक चमत्कार को देखकर चांगदेव का अभिमान उतर गया । उसने सोचा कि मैं अगर जीवित प्राणी को वश में कर सकता हूँ तो वे जड़ पदार्थों को भी वश में ला सकते हैं और चलने की शक्ति प्रदान कर सकते हैं । इसलिए उनकी शक्ति महान है ।

अभिमान उतर जाने पर वह बाघ पर से उतर पडा । उसने महायोगी संत ज्ञानेश्वर के चरणों में अपना सर रख दिया । १४०० साल की उम्र में इस तरह उसकी ज्ञानेश्वर से मुलाक़ात हुई । उन्होंने उसको बताया कि तेरा गुरु बनने की सच्ची योग्यता तो मेरी बहन मुक्ताबाई ही में है । मुक्ताबाई की अवस्था बहुत छोटी थी फिर भी ज्ञानेश्वरजी की आज्ञानुसार चांगदेव ने नौ दस साल की मुक्ता बाई के पास जाना स्वीकार किया । मुक्ता बाई अपनी सहज निर्दोष प्रकृति के अनुसार उस समय नग्नावस्था में स्नान कर रही थी । उसे देखकर चांगदेव को संकोच हुआ और वह वहाँ से पीछे हट गया । मुक्ताबाई यह देखकर तुरंत बोल उठी – यह तो कोई निगुण है ।

बाद में चांगदेव ने उन शब्दों का रहस्य पूछा तो उत्तर मिला - घर की दीवार में जैसे अलग-अलग छेद होते हैं, वैसे ही इस देह में भी अलग-अलग छेद और आकार रहते हैं । उसे देखकर मनुष्य को मोह होता है, यह आश्चर्य की बात है । जिसे सद्गुरु का उपदेश मिला हो वह कूड़े की पेटी जैसी इस नश्वर देह में प्रीति और माया कैसे कर सकता है ? वह तो शरीर और आत्मा को अलग जानता है, इसलिए आत्मानंद में मगन रहता है और शरीर के अध्यास से छूट जाता है ।

चांगदेव को पता चला कि यधपि मुक्ताबाई की उम्र कम है, फिर भी उसका ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा है तथा ज्ञानेश्वर के कथनानुसार वह गुरु बनने के लिये सर्वथा योग्य है । संसार अच्छी तरह जानता है कि वृद्ध योगीपुरुष भी विकार वासना एवं देहभावना की दृष्टि से जवान होते हैं । देह भावना को निकालने का कार्य कठिन है । ईश्वर की कृपा हो तभी मनुष्य उसमें सफल हो सकता है ।

शरीर के आकर्षण एवं मोह से जिसने मुक्ति प्राप्त नहीं की, उसे सच्चे अर्थ में पंडित, ज्ञानी या तत्वदेत्ता नहीं कहा जा सकता । गीतामाता का यही मंतव्य हैं । उसकी उपेक्षा करने की आवश्यकता नहीं । शरीर के आकर्षण को वश होकर कुछ वयोवृद्ध ज्ञानीपुरुष भी शादी कर लेते है । इसका मूल कारण उनकी विषयासक्ति एवं शरीर के भोगों की भूख ही है । अपने को ज्ञानी मानने या मनवानेवालों के लिये यह बात लज्जास्पद है ।

आत्मा के आलोक का परिचय मनुष्य ने नहीं किया तथा वह अपने को शरीर ही मान बैठा है, इसीलिए वह मृत्यु से डरता है, व्याधि एवं वृद्धावस्था से काँपता है, तथा शरीर की सुविधा एवं यातना का विचार करके अपने सच्चे सिद्धांतो को तिलांजलि दे देता है । आत्मा के आलोक को पहचानने से मनुष्य सब परिस्थितियों में तथा सभी प्रकार से निर्भय बनता है तथा शरीर के असर से अलिप्त बन जाता है ।

आत्मा अमर है, अविनाशी है, इस विचार की दृढ़ता के कारण कई लोगों ने सत्य के लिए बड़े से बड़े बलिदान दिए हैं, जिसकी गवाही इतिहास भी देता है । सिख गुरु के पुत्र ज़िंदा दीवार में चुने गए, फिर भी धर्म परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए और चितौड़ की राजपूत रमणियाँ अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अग्नि में कूद पड़ीं । इसके अतिरिक्त सत्यवादी हरिश्चंद्र, राजा शिवि तथा राजा दिलीप के उदाहरण भी हमारे सामने हैं । सुकरात ने जहर का प्याला पीते हुए भी आनंद का अनुभव किया तथा ईसा मसीह हँसते-हँसते सूली पर चढ़ गए । इतना ही नहीं सूली पर से भी क्षमा एवं दूसरों के मंगल के बारे में बोले । क्या ये सब इस तत्व की ओर इशारा नहीं करते कि आत्मा की अमरता में उन्हें दृढ विशवास था और परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने से उन्हें अक्षय आनंद की प्राप्ति हुई थी ?

एक संत के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वे रातदिन आत्मा के आनंद में ही मग्न रहते थे । अपने भीतर एवं बाहर सब जगह परमात्मा का आलोक व्याप्त है, यह अनुभव उन्हें हो चुका था, तथा इसी से भय, राग, द्वेष एवं भेदभाव सदा के लिए उनके हृदय से दूर हो गये थे । आत्मा के आनंद में डूबे हुए वे एक समय किसी जंगल से गुजर रहे थे कि एकाएक एक शेर ने उन पर हमला किया । उनकी जगह अगर कोई साधारण आदमी होता तो उसके छक्के छूट जाते, किन्तु वे संतपुरुष तो हँसने लगे और ‘शिवोहम, शिवोहम’ मन्त्र का उच्चारण करने लगे । शेर ने उनके शरीर को फाड़ खाया, फिर भी उन्होंने भागने की या किसीको मदद के लिये पुकारने की कोशिश नहीं की । शेर में भी वे ईश्वर ही को निरखते रहे । वे शरीर के असर से परे थे । फिर उनके लिये भय करने का कोई कारण नहीं था । शरीर से परे होने की इस अवस्था को प्राप्त करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है ।

इसीलिये तो भगवान ने अर्जुन से कहा है – “हे अर्जुन, तू आत्मज्ञान एवं आत्म भाव में स्थित हो जा, आत्मा को कदापि एवं किसी साधन से नष्ट नहीं किया जा सकता । इस बात की समज लेने से तुजे स्वजनों के नाश का शोक नहीं होगा । मनुष्य का मूल स्वरुप तो आत्मा है, शरीर तो अलग ही वस्तु है । शरीर नष्ट होता है, आत्मा नहीं । यह समज लेने से भी शोक नहीं होगा और यह ही मान लें कि आत्मा का जन्म होता है और मृत्यु भी होती है, तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं ।

जन्म एवं मरण संसार की स्वाभाविक घटनाएँ हैं । जो जन्मता है वह अवश्य मरता है तथा जो मरता है वह जन्मता भी है । यह संसार का नियम हैं । इसे कोई रोक नहीं सकता । इसलिए मृत्यु का शोक करने से कुछ फायदा नहीं । इस संसार में भिन्न-भिन्न जीवों का समागम कर्म के नियम या ऋणानुबन्ध के अनुसार होता रहता है । कर्म का संबंध पूरा होते ही शरीर का संबंध भी पूरा हो जाता है । ये संबंध स्थायी या सनातन नहीं है किन्तु थोड़े समय के लिये होते हैं । जैसे आसमान में बादल आते हैं और चले जाते हैं तथा नदी का पानी भी बिना रुके आगे को बढ़ता चला जाता है, उसी तरह यह संबंध भी शुरू होते है और कुछ समय बाद समाप्त हो जाते हैं ।

यह बात निश्चित और अटल है, फिर संसार के भिन्न-भिन्न नातों से मनुष्य को मोह क्यों करना चाहिए ? जो वस्तु अपनी नहीं है तथा कोई उपाय करने से भी अपनी नहीं बनी रह सकती; उसमें ममता रखने से क्या फायदा ? मनुष्य को यह समज लेना चाहिए कि इस संसार में एक ईश्वर के सिवा उसका कोई नहीं है । एक मात्र ईश्वर ही की सगाई सच्ची है । ईश्वर से ही स्नेह रखने में लाभ है । इस बात को भूलकर वह संसार के पदार्थों से ममता प्रीति जोड़ लेता है और इसीसे वह सुखी एवं दु:खी होता है तथा शोक, मोह एवं परिताप का शिकार बनता है ।

रेल गाडी में लोग इकठ्ठे होते हैं, बातें करते हैं और कभी कभी परस्पर प्रीति भी करते हैं, किन्तु यह मिलन एवं प्रीति कहाँ तक टिकते हैं ? अपना अपना स्टेशन आने पर लोग अपना अपना असबाब ले कर उतर जाते हैं मानो कुछ भी न हुआ हो । इसी तरह जीवन की रेलगाड़ी को भी समज लेना चाहिए । जीवन की रेलगाड़ी में यात्रा करनेवाले लोग जमा होते हैं, पस्पर प्रेम करते हैं और बातें करते हैं, जैसा की होना ही चाहिए, पर जब अपना स्टेशन आने पर कोई उतर जाए तो उसमें शोक क्यों होना चाहिए ? स्टेशन आने पर उतर जानेवाले के पीछे दिनों, महीनों एवं वर्षों तक कुहराम क्यों मचाना चाहिए ? तथा उतरनेवाले की भी जीवन गाडी में सवार संबंधीजनों को छोड़ते हुए क्यों दु:खी होना चाहिए ? होनी तो होकर ही रहेगी, चाहे शोक करो या न करो । तब फिर शोक करके दुःख को बढ़ाना एव अज्ञान का प्रदर्शन करना क्या उचित है ?

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)

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