अब अर्जुन का शोक दुर करने के लिए भगवान ने कुछ दूसरी युक्तियाँ पेश की । उन्हें संक्षिप्त में हम स्वधर्म की विचारधारा कह सकते हैं । भगवान कहने लगे, “हे अर्जुन, अपने स्वधर्म का विचार कर । तू क्षत्रिय है । क्षत्रिय का धर्म क्या है ? अधर्म का नाश और धर्म की रक्षा करना । उसके लिए युद्ध तक करना पड़े तो उसके लिए तैयार रहना चाहिए : धर्म की रक्षा के लिए और धर्मयुक्त साधनों से किये जानेवाले युद्ध से क्षत्रिय का शुभमंगल होता है । धर्म के लिए लड़ने की वृत्ति तुजे विरासत में मिली है । धर्म की रक्षा के लिए युद्ध क्षेत्र में उतरने का और मर मिटने का सुअवसर उन्हींको प्राप्त होता है जो भाग्यशाली होते है तथा जिन पर देवताओं की कृपा होती है । इस धर्मयुद्ध का अनादर करके अगर तू शोक के साथ वापिस चला जाएगा तो परिणाम कितना बुरा होगा । यह तुझे मालूम है क्या ?
बुद्धिमान मनुष्य स्वयं जो कुछ करते हैं उसका शुभाशुभ परिणाम पहले से ही सोच लेते हैं । तू भी जो करना चाहे उसका विचार पहले से ही तथा शांत मन से और अच्छी तरह कर ले जिससे बाद में पछताना न पड़े । तूने दलीलें तो बहुत सी दीं । इस युद्ध का आश्रय लेने से पाप लगेगा, ऐसा भी तू कहता है । लेकिन तुजे मालूम नहीं कि तू यदि युद्ध नहीं करेगा तो तेरे लिए यही सबसे बड़ा पाप और अपराध होगा ।
हर एक मनुष्य अगर तेरी तरह स्वधर्म को छोड़ दे और मनमानी करने लगे तो परिणाम कितना भयंकर होगा ! संसार की व्यवस्था और सुरक्षा का अंत हो जायगा । तू तो विचारशील और धर्म की मर्यादा का पालन करनेवाला है, वीर है । अगर तू इस मैदान से बिना युद्ध किए निराश होकर वापिस जायगा तो तेरी वीरता को बट्टा लगेगा । तेरे निर्मल यश में अपयश की कालिख लग जायगी । लोग तेरी निंदा करेंगे और कहेंगे कि तू कायरता के कारण रण से भाग गया ।
गाण्डीव धारण करके तथा भगवान को अपना सारथी बनाकर रणक्षेत्र में तो तू आया बड़े उत्साह से, लेकिन अपने स्वजनों को देखकर तेरे पांव उखड गए और तू अपना कर्तव्य छोड़कर लड़ाई से मुंह मोड़कर चल दिया । तेरा यह अपमान क्या वह तुजे अच्छा लगेगा ? स्वाभिमानी आदमी के लिए बेइज्जती मृत्यु के समान है । लोग तुजे वीर समजते हैं लेकिन जब तू बिना युद्ध के वापिस लौटेगा तो वे सब कहेंगे कि तू डर से रणक्षेत्र को छोड़ गया । बड़े बड़े योद्धाओं और महारथियों के शंखनाद और गगनभेदी गर्जनाओं को सुनकर तू डर गया । ऐसी ऐसी बातें रणक्षेत्र में फैलेंगी और जो तुझे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं उनकी नज़रों में तू नीचे गिर जायेगा । तेरी कीमत कम हो जायेगी । तेरे विचार कैसे ही ऊँचे क्यों न हों, संसार के मुख पर कोई ढवकन थोड़ा ही लगा सकता है ? तेरी बेइज्जती के वचन संसार में फ़ैल जायेंगे । इन सब बातों को भी तूने सोचा है क्या ? तेरी तो पाँचो उंगलियाँ घी में हैं, यानी दोनों ओर से तुजे लाभ ही लाभ है । धर्मरक्षा के इस युद्ध में या तो तू जीतेगा या हारेगा । कोई तीसरा परिणाम नहीं होनेवाला है । अगर तू जीतेगा तो राज्य प्राप्त करके सुख भोगेगा और अगर हारेगा तो मरकर स्वर्ग पाएगा, क्योंकि धर्मयुद्ध में मरनेवाले को स्वर्ग मिलता है । इस तरह तू दोनों दशाओं में सुखी होगा और स्वधर्म पालन का संतोष भी तुजे मिलेगा । अगर तू ऐसा नहीं करेगा तो बाद में, जब विवाद के बादल तेरे मन से हट जायेंगे पछताएगा । स्वधर्म का आचरण न किया इस बात को याद करके तुजे दुःख होगा और इस तरह अशांति और असंतोष का कीड़ा तुजे सदा खाता रहेगा । पश्चाताप की अग्नि में तू जीवनभर जलता रहेगा । क्या तुजे यह ठीक लगता है ? अतः मन को स्थिर और शांत कर । अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है । गाँडीव को फिर से धारण कर और युद्ध कर ।
अर्जुन द्वारा शुरू में की गई दलीलों का भगवान ने इस तरह उत्तर दिया । इसका मुख्य स्वर एक ही है और वह यह कि मनुष्य को स्वधर्म का पालन प्रत्येक संजोग में करना चाहिए । जीवन में आनंद और सफलता तथा समाज में सुव्यवस्था के लिए इसकी जरूरत है । हरएक मनुष्य का अपना अपना स्वधर्म होता है । स्वधर्म को निश्चित करने के लिए ज्यादा विवाद की आवश्यकता नहीं । ईश्वर की कृपा से मनुष्य संसार में जन्म लेता है, और संसार की सामग्री का उपभोग करके जीता है । जीवन यात्रा में उसे कितने ही लोगों से सहायता लेनी पड़ती है । इस सब ऋण को चुकाना उसका सहज धर्म हो जाता है । ईश्वर को प्रेम करने का और पहचानने का और संसार के लिए जैसे भी हो सके उपयोगी बनने का धर्म उसे विरासत ही में प्राप्त है । जो दैवी शक्ति उसकी तथा समस्त जीवों को जीवन देती है, जिसने उसके जन्म से पहले ही उसकी माता के शरीर में दूध की व्यवस्था कर दी थी, उस परमकृपालु शक्ति की दया को सदा याद रखना और उसके प्रेम तथा अनुग्रह को जीतने का प्रयास करना ही स्वधर्म है । उस स्वधर्म को लेकर ही वह इस जगत में आता है । जिस इश्वर ने उसे इस संसार में भेजा है उसके पास वापिस जाने के लिए प्रयत्नशील रहना और उसके आदेशों का पालन करना स्वधर्म है ।
इसके अतिरिक्त अन्य कुछ स्वधर्मों की प्राप्ति भी जन्म के साथ ही हो जाती है । माता पिता जो उसका लालन पालन करते हैं, उनके प्रति भी उसका स्वधर्म होता है । जिस घर में वह जन्म पाता है उसके सदस्य, उस गाँव के नागरिक एवं समाज के प्रति भी उसका उत्तरदायित्व है । संसार में जिस पर किसीका अधिकार नहीं, उस पर ईश्वर का अधिकार है । मनुष्य हवा, पानी, सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्रों के प्रकाश का उपयोग करता है । इस धरती पर वह विहार करता है । इन सबके बदले में संसार की कुछ सेवा करने का धर्म उसे विरासत में मिलता है । यह प्रकृति या ईश्वर द्वारा पाया तथा शरीर के साथ मिला हुआ स्वधर्म है, किन्तु ज्यों ज्यों मनुष्य बड़ा होता जाता है, उसे अन्य कुछ धर्म भी प्राप्त होते रहते है । उन धर्मों का भी पालन करने के लिए उसे सदा तैयार रहना चाहिए, किन्तु कर्तव्य के पालन का मार्ग कठिन होता है । उस मार्ग पर चलने में साधारण मनुष्य को अनेक बाधाओं, प्रलोभनों तथा अपने ही प्रमाद का सामना करना पड़ता है । कभी कभी स्वधर्म का पालन करनेवाला मनुष्य मित्र, स्नेही या स्वजनों को देखकर अपनी निष्ठा में से च्युत हो जाता हैं; तथा सिद्धांतों को छोड़ बैठता है । इसका नाम है पामरता और जूठा मोह ।
अधिकारी वर्ग के मनुष्यों के लिए कभी-कभी शिकायत सुनी जाती हैं कि वे अपने मित्र तथा रिश्तेदारों को पैसे दिलाते हैं और बड़े-बड़े ओहदों पर भी बिठा देते हैं । कितने रिश्वत लेते है और कर्तव्यपालन से प्रमाद करते हैं या लापरवाही दिखाते हैं । इस सबका कारण क्या है ? स्वधर्म की समज का अभाव । गीता इसके लिए रामबाण उपाय बताती है । मनुष्य को अपने कर्तव्य को प्राण से भी अधिक प्रिय मानना चाहिए तथा जीवन में उसका आचरण करने में जुट जाना चाहिए । यदि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लोग स्वधर्म का विचार करे तथा तदनुसार आचरण करे तो उनका खुद का तो कल्याण होगा ही देश एवं दुनिया का चेहरा भी बदल जायगा ।
व्यापारी ग्राहक के प्रति, सरकार प्रजा के प्रति, शिक्षक विध्यार्थियों के प्रति, मजदूर मालिक के प्रति तथा ग्राहक, प्रजा, विधार्थी और मालिक क्रमशः व्यापारी, सरकार, शिक्षक एवं मजदूर के प्रति अपना अपना कर्तव्य समज ले तथा समाज के सभी क्षेत्रों में स्वधर्म के इस महान देवता की प्रतिष्ठा एवं पूजा हो तो संसार नंदनवन बन जाए और कितने रोग तथा दुःखदर्दो का अंत हो जाय ।
स्वधर्म की इस महत्वपूर्ण बात पर गीतामाता ने बहुत ही जोर दिया है । गीता के इस उपदेश को हमे कभी न भूलना चाहिए । अर्जुन को हुए बरसों बीत गए, किन्तु उसको दिया हुआ स्वधर्म का उपदेश सनातन है तथा आज भी वह उतना ही आवश्यक है । जब तक संसार में मनुष्य विद्यमान रहेगा, तब तक स्वधर्म का यह उपदेश उसके लिए वैसा ही प्रेरणात्मक और आशिष समान बना रहेगा ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)