स्वधर्म के निर्णय करने का काम आसान नहीं है । अपने कर्तव्य का निश्चय करने में मनुष्य कभी-कभी भूल कर जाता है या अर्जुन की तरह उलज़न में पड़ जाता है । जीवन के इस महान अमर क्षेत्र में कितनी बार अज्ञान और मोह वश होकर वह संन्यास लेने का मन्सूबा बाँधता है और कभी-कभी तो बात यहाँ तक बढ़ जाती है कि आत्महत्या करने के लिए भी तैयार हो जाता है ।
जीवन में असमंजस के प्रसंग आते ही रहते हैं । उस समय मनुष्य को क्या करना चाहिए ? क्या उसे नाहिम्म्त होकर बैठा रहना चाहिए या जीवन संग्राम में जुट जाना चाहिए ? क्या उसे विषादमग्न हो जाना चाहिए ? गीताकार भगवान कृष्ण ने अर्जुन के पात्र द्वारा इन सब प्रश्नों का सचेष्ट उत्तर दिया है । वे कहते हैं – जीवन की उन्नति के साधन में या कल्याण के कामों में विघ्न तो आएंगे ही । कठिनाइयों से जीवन घिरा हुआ ही रहेगा । इसके अतिरिक्त मनुष्य का ज्ञान पूर्ण तो है ही नहीं । भले बुरे का निश्चय करने में मनुष्य हर समय सफल हो सकेगा, ऐसा भी नहीं है । इसलिए जीवन में उलज़नें तो आती ही रहेंगी और कभी-कभी तो मनुष्य को अर्जुन की सी दुविधा का सामना भी करना पड़ेगा । धर्माधर्म या कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय करने में उसका मन कभी-कभी मूढ़ता की दशा का अनुभव करेगा । ऐसी समस्याएँ जीवन में बार-बार आती ही रहती हैं । इसलिए मानव को हमेशा के लिए प्रेरणा प्रदान करने के लिए अर्जुन के महान पात्र का उपयोग किया गया है और उसके द्वारा सबको सन्देश दिया है कि ऐसी किंकर्तव्य विमूढ़ता की दशा में तनिक भी घबराए बिना अपने अंतर के रथ में स्थित भगवान की शरण में जाना चाहिए ।
अच्छे और बुरे का निर्णय करने में जब बुद्धि असफल हो तब प्रभु से प्रार्थना करके उससे प्रकाश प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । यह प्रभु उसके एकदम नजदीक, उसके हृदय में ही विराजमान है । उसे खोजने के लिए कहीं भी जाना नहीं है । ब्रह्मांड में वह सर्वव्यापी है । वह कहाँ है यह प्रश्न नहीं, लेकिन कहाँ नहीं है यही तो प्रश्न है । सभी ज्ञानियों और भक्तों का यही मत है कि ऐसी कोई जगह नहीं, जहां भगवान मौजूद न हों ! इसलिए गीता कहती है कि कठिनाई के समय धैर्य और शांति धारण करके भगवान के पास पहुँच जाओ, उसे पुकारो, उससे प्रार्थना करो, विपत्ति के बादल अपने आप दूर हो जायेंगे, विघ्न हट जायेंगे ।
पूरब दिशा के अंधकार को भेदकर प्रातःकाल में सूर्य जब बाहर आता है, उस दृश्य को कभी देखा है ? सूर्य की किरणें धीरे-धीरे सब जगह फ़ैल जाती हैं । इसी तरह भगवान की कृपा से आपके अंतर के अंधकार भरे आकाश में विवेकरुपी सूर्य का उदय हो जाता है । चिंता, आपत्ति और कठिनाई के समय में भगवान से प्रार्थना करना और उसकी शरण जाना एक रामबाण उपाय है, लेकिन शर्त यह है कि मनुष्य को अर्जुन की तरह सरलता की मूर्ति बनना होगा या यों कहीए कि अपने जीवनरथ का सारथीपद भगवान को सौंप देना होगा । संकट या उलज़न में पड़ने के कारण उसे स्वधर्म पालन से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए । कर्तव्यपालन में वह अगर मिट भी जाय तो क्या ? फर्ज के लिए की हुई कुर्बानी का संतोष तो उसे मिलेगा ही । वह संतोष स्वर्ग समान सुखदायी है और अगर कर्तव्य पालन में सफलता मिल गई तो उसका जीवन धन्य बन जाएगा । इसलिए कर्तव्य परायणता का गुण प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में यत्नपूर्वक धारण करना चाहिए । गीता का यह महान संदेश है ।
कर्तव्य का पालन करने में चाहे हानि हो या लाभ, सुख हो या दुःख, हार हो या जीत, मनुष्य को विचलित या हताश नहीं होना चाहिए, बल्कि आगे ही आगे बढ़ते चला जाना चाहिए । कर्तव्य में ही एकरस बन जाना, गीता की शिक्षा है । जीवन के अनेक रंग हैं । संसार का स्वरूप भी विविध प्रकार का और रहस्यमय है । इसलिए जीवन में कभी सुख आयगा तो कभी दुःख । संसार बहुरूपी है । सागर में जैसे पानी, सींप, घोंघे, मछलियां, मोती इत्यादि अलग अलग पदार्थ रहते है; वैसे ही संसार में नाना प्रकार के नाम और रूपधारी पदार्थ है । पुराणों में समुद्रमंथन की कथा आती है । समुद्र का मंथन हुआ तब लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात, धन्वंतरि, चन्द्र और सबके साथ अमृत भी निकला । उसे देखकर देवता और असुर सभी खुश हुए । उसका आस्वाद करके अमर बनने के लिए सभी लालायित हुए । बाद में समुद्रमंथन करते करते विष निकला । उसे देखकर सब भागने लगे । अमृतपान के लिए सब इच्छुक थे, किन्तु विषपान करने की हिम्मत किसी ने नहीं की । विष था भी भयानक । सृष्टि में फैलता तो सारी सृष्टि का नाश कर देता । अंत में शंकर भगवान आगे बढ़े । संसार को बचाने के लिए उन्होंने विषपान कर लिया और इस तरह वह समस्या हल हो गई । शंकर योगीश्वर थे इसलिए जहर का उन पर कोई असर नहीं हुआ । यह बात ध्यान देने योग्य है ।
मनुष्य को याद रखना चाहिए कि संसार में अकेला सुख, शांति या लाभ ही नहीं है । अमृत के साथ जैसे विष आया वैसे ही सुख के साथ दुःख, शांति के पीछे अशांति, लाभ के साथ हानि तथा जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है । यह सब जानते हुए भी क्या मनुष्य को कायर, भीरु या हतोत्साह होना चाहिए ? जीवन की कठिनाइयों और कटुताओं से क्या उसे डरना चाहिए ? नहीं । कदापि नहीं । कायरता और भीरूता का गीता ने शुरू से ही विरोध किया है । अतः कल्याण का मार्ग तो यह है कि मनुष्य प्रेम, शांति और आनंद की मूर्ति बने । यानी शंकर या शिव (कल्याण) स्वरुप होकर जीवन के विषाद, ताप, आघात तथा अन्य प्रतिकूलताओं को सहन करता हुआ कर्तव्य के मार्ग पर हिम्मत तथा दृढ़ता से अग्रसर होता रहे । दुःख और दर्द का उसे पान करना है । मानापमान और लाभालाभ को पचाना है । संसार में जो अच्छा है, बुरा है, विषमय है, वह अमृतमय है । कुछ भी उसे चलायमान न कर सके, इसका ध्यान उसे सदा रखना है ।
सुख या सफलता के आस्वाद से अभिमानी या उन्मत न हो जाय और दुःख, दारिद्रय या व्याधि के आ जाने पर व्याकुल न हो जाये इसके लिए उसे सदा सावधान रहना चाहिए । जय या पराजय में चित्त की शांति को बनाए रखना होगा । कर्तव्य के क्षेत्र में अपने या पराये का विचार करके या अन्य किसी कारण से, किसी प्रकार की ढिलाई या त्रुटि नहीं करनी चाहिए । सत्य और न्याय का पक्ष लेकर जीवन में उसे हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए । भगवान द्वारा अर्जुन को दी हुई यह शिक्षा मानवमात्र के लिए महत्वपूर्ण है । भारत के महापुरुष सन्देश देते हैं – “बुरे को छोड़, अच्छे को छोड़ तथा त्याग के अभिमान का भी त्याग कर । मन और बुद्धि प्रभु को अर्पित कर ।” गीता में भगवान भी कहते हैं, “हे मनुष्य, अच्छे और बुरे में चित्त को स्थिर रख । अच्छे बुरे से परे होने के लिए मेरी शरण ले, मेरी कृपा की याचना कर ।”
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)