ज्ञान की बात बताने के बाद भगवान कहते हैं – हे अर्जुन ! मैं अब तुजे योग बुद्धि के बारे में समजाता हूँ वह सुन । इस बुद्धि से क्या लाभ होगा ? भगवान उत्तर देते हैं कि इससे कर्म के बंधन का नाश होगा । कर्म में बुद्धि जोड़ देने से अर्थात कर्म को कुशलता से करने से, कर्म खाली कर्म नहीं रहता, बल्कि कर्मयोग बन जाता है । अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि कर्म और कर्मयोग में क्या अंतर है और किस प्रकार की कुशलता से कर्म को कर्मयोग में परिणत किया जा सकता है ?
सामान्य कर्म वही है जो भोगेच्छा से या स्वार्थसिद्धि के लिए किए जाते हैं । संसार में अधिकांश लोग ऐसे ही हैं जो अधिक से अधिक भोग प्राप्त करने के लिए ही काम करते हैं तथा स्वर्ग जैसे किसी सुखमय लोक में अपना स्थान रिज़र्व कराने की इच्छा रखते हैं और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वेदोक्त यज्ञों या वैसे ही अन्य साधनों का आश्रय लेते हैं ।
गीता ने ऐसे लोगों को उत्तम कोटि का नहीं माना है। गीता की दृष्टि से ऐसे लोग कृपण हैं, अदूरदर्शी हैं, क्योंकि जो विनाशी हैं ऐसे इहलोक या परलोक के भोगों की इच्छा को अज्ञान नहीं तो और क्या कहेंगे ? बाँधनेवाली जंजीर तो जंजीर ही है चाहे वह सोने की हो या लोहे की । जहर पीतल के प्याले में पिया जाय या चाँदी के, वह घातक ही सिद्ध होता है । इसी प्रकार जो काम भोगप्राप्ति के लिए किए जाते हैं, वह चाहे कितने भी अच्छे हों, मनुष्य के लिए बंधनकारक साबित होते हैं । जो काम एकाग्रता से, पूरी शक्ति लगाकर और दक्षता के साथ ईश्वरप्रीत्यर्थ, समाजसेवा या जन-कल्याण के लिए किए जाते हैं वे कर्मयोग बन जाते हैं । वे बंधनकारक नहीं होते, क्योंकि उनमें मनुष्य का कोई निजी स्वार्थ नहीं रहता । संसार एवं स्वर्ग के नश्वर पदार्थों की लालसा रखकर अनेक प्रकार कर्म करने की प्रवृति अज्ञान से ही उत्पन्न होती है ।
अगर इच्छा रखनी ही है तो जो विनाशी है, उसकी इच्छा क्यों रखनी चाहिए ? एक ओर कौड़ी हो और दूसरी ओर मणि तो कौड़ी को कौन पूछेगा ? किन्तु जिसे किसी भी प्रकार की कामना नहीं है, उसे मणि से भी क्या काम ? कामना से परे होना कठिन है किन्तु ईश्वर की कृपा से वह भी हो सकता है । इसके लिए मनुष्य को परमात्मा की शरण लेनी चाहिए । उपनिषद में नचिकेता की कथा आती है । नचिकेता बालक था, किन्तु संसार एवं स्वर्ग के सभी सुखों को तुच्छ एवं अनित्य मानकर उसने परमात्मा की ही कामना की । मनुष्य-मात्र को भी परमात्मा से ही प्रीति करनी चाहिए तथा उसकी ही कामना करनी चाहिए ।
कर्म की कुशलता में योग निहित है । अकेला कर्म पर्याप्त नहीं होता । उसे कुशलतापूर्वक करके योगमय बनाना चाहिए । कर्मयोग की यह साधना मनुष्य को बंधन से मुक्त करके उसका उद्धार करती है । अब यहाँ पर कर्मयोग के उपयोगी अंगों की समज लेनी चाहिए ।
पहली बात तो यह है कि प्रत्येक काम को यथाशक्ति सुचारूरूप से करना चाहिए । पूरे मन और पूरी योग्यता को उनमें लगाना चाहिए । पुस्तकों, दूसरे लोगों तथा अपने अनुभव का लाभ उठाकर अपनी कार्यक्षमता और निपुणता की श्रद्धा बढ़ाते रहना चाहिए । हर कार्य का सम्पादन समय पर और किफ़ायत से करना चाहिए । जैसे जली हुई रोटी या कच्ची दाल भोग में भगवान के आगे नहीं रख सकते, उसी तरह यह भी समज लेना चाहिए कि जो कार्य अशुद्धियों से भरा है, जो विलम्ब या बेपरवाही से किया गया है या जिसके पूरा करने में धन और शक्ति का अपव्यय हुआ है, ऐसा बुरी तरह से किया हुआ काम कर्मयोग कदापि नहीं बन सकता । ऐसे काम से तो न दुनिया में सफलता मिल सकती है न परलोक में सिद्धि । मनुष्य को आगे बढ़ाने में वही कार्य सहायक हो सकता है, जो पूरी तत्परता, जिम्मेदारी और शक्ति से किया जाय ।
कर्म को कर्मयोग बनाने की दूसरी शर्त यह है कि जिन भावनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य किसी काम में संलग्न होता है उन्हें धीरे-धीरे पवित्र और उदात्त बनाया जाय । जैसे जैसे मनुष्य बुरी इच्छाओं का त्याग करता चलेगा, जैसे जैसे वह अपने स्वार्थ को घटाकर परार्थ की भावना को बढाता जायगा, वह कर्मयोग के मार्ग पर प्रगति करता चलेगा । निष्काम कर्म का यही अर्थ है ।
तीसरी बात यह है कि मनुष्य का जो कर्तव्य है, जिसको करने योग्य समजकर उसने अपने हाथ में लिया है, उसके करने में चाहे कितने विघ्न बाधा आए, उसे अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होना चाहिए, बल्कि काम में जुटा ही रहना चाहिए । सुख, दुःख, हानि लाभ, मान अपमान, सफलता, असफलता, हार जीत आदि द्वंद्व तो जीवन में आते ही रहते है, पर उनके कारण मन को उद्विग्न नहीं होने देना चाहिए । सुख, सफलता या पुरस्कार मिलने पर होना तो यह चाहिए कि मनुष्य अपने काम को दुगने उत्साह से करे, पर वास्तव में अक्सर यह देखने में आता है कि ऐसी अवस्था में मनुष्य विलासिता में फँस जाता है या यह समजकर परिश्रम कम कर देता है कि मुझे अब कुछ भी करना बाकी नही रहा । इसी तरह असफलता, दुःख या बिमारी का भी प्रभाव मनुष्य पर ज्यादातर बहुत बुरा पड़ता है, जिससे वह अपना साहस, धैर्य और मन का संतुलन खो बैठता है और अपने काम के प्रति उदासीन हो जाता है ।
यह दोनों ही बातें गलत हैं । सुख दुःख आदि के जोड़ तो मनुष्य की परीक्षा लेने को आते हैं और उनका उद्देश्य यही होता है कि मनुष्य अपने पुरषार्थ, दृढ संकल्प, कार्य कुशलता और अध्यवसाय को और भी उन्नत करे । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि हर प्रकार की परिस्थिति में अपने मन को शांत और स्वस्थ रखकर अपने कार्य को सदा अदम्य उत्साह के साथ करता रहे । इसी को समत्व कहते हैं, जो कर्मयोग का एक अनिवार्य अंग है ।
कर्मयोग का चौथा अंग यह है कि काम के परिणाम स्वरूप जो कुछ फल या वेतन मिले उसका त्याग करना चाहिए । गीता में जगह जगह पर त्याग का उपदेश दिया गया है, और इसी बात पर जोर दिया गया है कि सच्चा त्याग भीतरी या मन का होता है । बाहर के त्याग करने का कोई विशेष महत्व नहीं रहता अगर मन से लालसा और आसक्ति को न निकाल दिया जाय । जब गीता कर्मफल त्याग की शिक्षा देती है तो यह न समजना चाहिए कि केवल मानसिक त्याग से काम चल सकता है ।
अगर मनुष्य अपने कर्म के फलस्वरूप प्राप्त धन को मन से तो त्याग देता है पर सारे के सारे को अपने ही उपभोग में लाता है, तो यह तो त्याग नहीं, बल्कि त्याग का उपहास हुआ । त्याग शब्द का अर्थ दान भी होता है और गीता में जहाँ जहाँ कर्मफल त्याग का उपदेश दिया गया है वहाँ त्याग का अर्थ दान ही लेना चाहिए । बहुत से विचारकों ने कर्मफल त्याग का अर्थ फल की इच्छा या आसक्ति का त्याग – ऐसा लिया है पर यह ठीक नहीं । जब तक फल अपने हाथ में नहीं आता तब तक उसकी इच्छा का त्याग किया जा सकता है, पर जब काम का फल, वेतन या पुरस्कार अपने को प्राप्त हो गया तब उसकी इच्छा का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? अतएव फल के त्याग करने का मतलब यह है की जो फल मिलता है उसे भगवान की देन समजकर भगवान को ही अर्पित कर देना अर्थात भगवान की प्रसन्नता के लिए उनकी स्मृति की सेवा में उसका उपयोग करना ।
अपना ज्ञान, धन, बल तथा ऐश्वर्य सभी कुछ मनुष्य को केवल अपने ही सुख के लिए नहीं, किन्तु देश, समाज और लोकहित के लिए उपयोग करना चाहिए । अपने को जो कुछ भी मिलता है वह अनेक व्यक्तियों के सहयोग से ही मिलता है । उस पर केवल अपना ही नहीं, बल्कि सभी का अधिकार है । सभी के साथ मिल बाँट कर उसका उपभोग करना चाहिए । इसी बात पर जोर देते हुए गीता में कहा है कि जो केवल अपने लिए भोजन पकाता है वह चोर है ।
गीता में सिखाए हुए कर्मफल त्याग का सच्चा अर्थ यही है कि अपने सुख, सम्पत्ति, ज्ञान और ऐश्वर्य का लाभ जितना भी हो सके, दूसरों को दिया जाय । कर्मफल त्याग कर्मयोग का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को तुरंत ही परम शांति का अनुभव होने लगता है, जैसाकि कृष्ण भगवान ने बारहवें अध्याय में बताया है ।
कुछ लोगों को यह शंका हो सकती है कि “गीता में कर्म करने के लिए कहा है, किन्तु फल की इच्छा न रखना – ऐसा भी उपदेश दिया है । अतएव यदि कोई व्यक्ति ईश्वर की इच्छा रखकर कर्म करे तो क्या यह उचित है ? भगवान के दर्शन की इच्छा रखना भी तो इस दृष्टि से त्रुटीग्रस्त है, क्या ऐसा नहीं लगता ? इसके बारे में आपकी क्या राय है ?”
इस संबंध में मेरी यह राय है कि फल की इच्छा रखकर मनुष्य कर्म करे, इसमें कोई हर्ज नहीं है । मेरे मतानुसार गीता उनका विरोध नहीं करती । कर्म के फल की इच्छा न रखने से क्या लाभ होगा ? इच्छा न रखने पर भी फल तो उसे मिलेगा ही । साधारण मनुष्य तो फल की इच्छा रखकर ही काम कर सकता है । फल की इच्छा रखने से उसकी समग्र शक्ति उसके ध्येय की सिद्धि पर केन्द्रित हो जाती है और काम भी अच्छी तरह होता है ।
गीता के कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य कर्मफल की इच्छा में डूब न जाए । ऐसा होने से सफलता तथा असफलता दोनों ही की प्रतिक्रिया उसके ऊपर बड़ी भयानक हो सकती है । जैसे कभी-कभी कोई विधार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने से आत्महत्या तक करने को तैयार हो जाते हैं या कभी-कभी अपने शिक्षकों को ही पीट डालते हैं ।
जिस बात पर गीता बहुत जोर देती है वह है समत्व अर्थात् सुखदुःख तथा मान अपमान में मन को स्वस्थ और शांत रखना और इसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि मनुष्य अपने कर्म के फल की प्राप्ति के लिए मतवाला न बने । अगर इस बात का ध्यान रखा जाए तो मनुष्य के लिए फल की इच्छा रखकर काम करना हानिकर नहीं, बल्कि कुछ लाभदायक ही है । विशेषकर भगवान के दर्शन की इच्छा रखना तो मनुष्य के लिए अत्यंत ही कल्याणकारी है । पांच वर्ष के बालक ध्रुवजी क्या भगवान के दर्शन की इच्छा के बिना ही मधुबन में तप करने के लिए गए थे ? वाल्मीकि, तुलसीदास तथा समर्थ रामदास की तपस्या क्या भगवान श्री राम के दर्शन के लिए नहीं की गई थी ?
ईश्वर कहिए, आत्मिक उन्नति या शांति कहिए, साधना का लक्ष्य यही है । वह लक्ष्य प्राप्त होने पर ही साधना पूरी होती है । अतः साधना की सिद्धि या भगवान के दर्शन का फल निरंतर नजर के सामने रखकर साधना की सिद्धि में विलम्ब हो तो भी हिम्मत हारकर प्रयास नहीं छोड़ना चाहिए ।
यह सब समजने एवं उसका आचरण करने के लिए ज्ञानदृष्टि या विवेक की आवश्यकता है । विवेक द्वारा मनुष्य यह समज सकता है कि वेदोक्त कर्मकांड करके मनुष्य चाहे कितने ही भोग पदार्थों की प्राप्ति करे, फिर भी उसे शांति नहीं मिल सकती । जो लौकिक एवं पारलौकिक सुखों की इच्छा से कर्म करते हैं तथा आत्मिक विकास को भूल जाते हैं, वे गीता के अनुसार निम्न कोटि के साधक हैं । ऐसे लोगों की बुद्धि भोगपरायण हो जाती है, उनका मन चंचल बना रहता है । उन्हें परमात्मा का खयाल ही नहीं आता और अगर कभी आता भी है तो उनका मन परमात्मा को प्राप्त करने के प्रयास में नहीं लग सकता । सिर्फ वही मन परमात्मा में जुड़ सकता है जो परमात्मा के रंग से रंगा हो, उसके लिये तड़पता हो । जो मन संसार के रंग-बिरंगे पदार्थों से परे होकर प्रभु के प्रेमरस के आस्वाद के लिए प्यासा और आतुर बना हो, उसी मन को प्रभु के ध्यान का आनंद आसानी से मिल सकता है । ऐसे ही मन मन्दिर में प्रभु का निवास होता है । यह बात याद रखने योग्य है ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)