महापुरुषों को पहचानने का सच्चा उपाय उनकी कृपा है । एक दूसरा भी उपाय है जिसका उल्लेख गीता में किया गया है । अर्जुन भगवान से पूछता है, “हे प्रभु, जो सचमुच महान हैं और जिसकी बुद्धि स्थिर है और जो समाधिनिष्ठ हैं, वह संसार में कैसे घूमता है, कैसे रहता है । उसे पहचानने की रीती क्या है ? अर्जुन के उत्तर में भगवान जो पद्धति बताते हैं, अब उस पर विचार करेंगे ।
महापुरुष शांति के साकार स्वरूप होते हैं । परमात्मा शांति का सागर है । उसको प्राप्त करनेवाले महापुरुष सहज ही शांतिमय बन जाते हैं । उनके पास जानेवालों की तथा बैठनेवालों को कम या अधिक अनुपात में शक्ति प्राप्त हो जाती है । गंगा सदा शीतल है । उसमें स्नान करनेवाले को शीतलता स्वतः मिल जाती है । चन्दन की शीतलता भी मशहूर है । उसका उपयोग करने से भी शीतलता मिलती है । संतो की शीतलता उससे भी बढ़कर है, क्योंकि संतो के समागम से न सिर्फ़ शरीर की, बल्कि मन की भी शांति मिलती है । उनकी खुद की दशा कैसी दैवी होती है । कैसे भी अशांत वातावरण में रहना हो, फिर भी उनकी शांति भंग नहीं होती । चारों और शोर या कोलाहल हो या प्रवृत्ति का साम्राज्य हो, तो भी स्थितप्रज्ञ महापुरुष शांत ही रहता है और न तो उसके काम में उसकी एकाग्रता भंग होती है और न ईश्वर की ओर से उसका मन हटता है ।
उसकी निराली स्थिति का वर्णन करने में गीतामाता सागर की उपमा का प्रयोग करती है । जैसे सागर में नदी नाले आकर गिरते हैं तथा वर्षा का जल भी गिरता है, फिर भी वह सदा गंभीर और शांत रहता है । न तो अपनी जलराशि के कारण मदोन्मत्त होता है न और अधिक पानी के लिए लालायित होता है । अपनी मर्यादा का कभी उल्लंधन नहीं करता । उछलते हुए हृदय से सबका स्वागत करता है और सबको अपने में समाविष्ट कर लेता है ।
क्या अपने कभी बंबई चौपाटी के सागर को देखा है ? सौराष्ट्र में सागर के किनारे शांत हैं, पर चौपाटी में ऐसा नहीं है । चौपाटी में सागर के पास तो रात दिन हजारों की संख्या में मोटरें और भीमकाय बसें दौड़ा करती हैं और पैदल मनुष्यों का यातायात भी चलता रहता है । विशेषतः शाम के समय तो यहाँ लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है । कोई बैठता है तो कोई टहलता है, कोई गाता है तो कोई नहाता है । इन सब प्रवृत्तियों के बीच भी सागर की दशा कैसी रहती है ? बाहर की परिस्थिति से उसकी शांति का भंग होता है क्या ? कोलाहल व अशांति का महादेव के समान हमेशा के लिए पान करके, यह एकरस, शांत व मंगलमय ही रहता है ।
उसका संगीत सदा जारी रहता है । कितना सतत व संवादमय होता है उसका संगीत । महीनों और बरसों से उसकी वही गर्जन, वही आलाप । महापुरुष भी शांति के सागर के समान अपने में मस्त रहते हैं । बाहर से देखो तो वह प्रवृत्ति में लगे दिखाई देते हैं, पर उनको भीतर से निहारो तो पता चलेगा कि उनका मन सदा शांत और प्रसन्न रहता है । अच्छा या बुरा बातावरण उनकी अन्तस्थ शांति का भंग नहीं कर सकता । संसार की कामना, भय, क्रोध आदि के आवेग उसमें जाकर ऐसे ही विलीन हो जाते हैं जैसे समुद्र में सरिताएँ । इन आवेगों के कारण न तो वह अपने कार्य से विचलित होता है और न उसके मन में किसी प्रकार का क्षोभ पैदा होता है ।
सागर के पास कोई भी जा सकता है । वहाँ अमीर, गरीब, पापी पुण्यवान, मूर्ख विद्वान किसी के लिए भेद भाव नहीं । अमीर या धर्मात्मा का स्वागत करने के लिए सागर अपनी मर्यादा छोड़कर आगे नहीं बढ़ता और गरीब या पापी को देखकर पीछे भी नहीं हटता। इसी प्रकार महापुरुष भी भेदभाव रहित होते हैं । अपनी महानता और विशेषता से वह अभिमानी नहीं बनते, बल्कि और भी अधिक नम्र हो जाते हैं । वे महान है ऐसा खयाल और उससे उत्पन्न गर्व, इनको छूता तक नहीं है । उनके पास जाकर यदि कोई कहे कि आप बहुत महान हैं, संत हैं, तो तुरंत उत्तर देंगे कि नहीं । महान तो एक ईश्वर ही है यहाँ । मैं तो उसके चरणों की रज हूँ । उसके चरणों के दास समान संतपुरुषों का भी मैं दास हूँ । तथा उनकी चरणरज को सिर पर चढ़ाता हूँ । ईश्वर का प्यारा बनने का मेरा प्रयास है । संतो की कृपा प्राप्त करने की मेरी अभिलाषा है । मैं तो एक मामूली प्राणी हूँ ।
बात सच है । संतो की दशा बालक की भांति नम्र, निर्दोष व निर्मल होती है । किसी बालक से कहा जाय कि वह निर्दोष है तो उसको कुछ विचित्र-सा जान पड़ेगा, क्योंकि संसार में उनके लिए निर्दोषता के सिवाय और कुछ है ही नहीं । इसी तरह महापुरुषों की भी वह मान्यता रहती है कि यदि मनुष्य निष्पाप बन जाय, नम्र बन जाय, तथा ईश्वर की कृपा प्राप्त कर परिपूर्ण व धन्य हो जाए तो यह तो उसका कर्तव्य ही है । उसमें वह कौन-सी अद्भुत बात कर रहा है कि उसको महान कहा जाय और प्रशंसा के पारितोषिक के लिये प्रमाणित माना जाय ? यह उनकी समज में नहीं आता ।
वर्षा ऋतु आती है और बारिश होने पर नदी नाले पानी से छलक जाते हैं । उसी प्रकार विद्या और विशेषता पाकर मामूली आदमी छलक उठते हैं और संयम गँवा बैठते हैं, पर महापुरुष तो समुद्र के समान होते हैं, वह अपनी शांति को सुरक्षित रख सकते हैं और अपनी निष्ठा में निमग्न रहते हैं ।
इस दशा की प्राप्ति आसान नहीं है । साधारण आदमी की तो बात ही क्या, महान माने जानेवाले लोग भी बहार की प्रवृत्ति से तंग आ जाते हैं । एकांत में रहने के अभ्यस्त साधक जब किसी कारणवश बस्ती में आते हैं तब दुखी और अशांत हो जाते हैं । इससे उनकी निर्बलता का पता चलता है । उनकी मानसिक शांति की पूँजी व्यवहार के कोलाहल में नहीं टिक पाती । मनुष्य को इस दशा से बहुत उपर उठना है और सब जगह तथा हर परिस्थिति में ईश्वर की लीला का दर्शन करके बुद्धि की स्थिरता को कायम रखना है ।
महापुरुष या स्थितप्रज्ञ वही है जो चित्त की स्थिरता को सदैव बनाए रखने में समर्थ है, जिसके मन की शांति और प्रसन्नता उसका साथ कभी भी नहीं छोडती । ईश्वर के प्रेमरस में डूबे हुए महापुरुषों को इस संसार या अन्य संसार के किसी भी पदार्थ की कामना नहीं होती । वे निष्कामता की मूर्ति होते हैं । जिसको प्राप्त कर लेने से सब कुछ प्राप्त हो जाता है और सब प्रकार की कामनाएँ शांत हो जाती है वह परमात्मा को प्राप्त करके वे कृतार्थ हो गए हैं । अब उनको किस प्रकार की इच्छा रह सकती है ? जब वे अक्षय सुख का आस्वाद लेकर सदा मग्न रहते हैं, तब उन्हें संसार के क्षणभंगुर सुखों की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ?
पुराणों में लिखा है कि भगवान विष्णु क्षीर सागर में नाग शैया पर लेटे रहते हैं, फिर भी उनको भय नहीं लगता । इसी प्रकार प्रभु के प्रेमसागर में स्थित संत को भय कैसे हो सकता है ? जिस अज्ञानरूपी सर्प के डंसने से मनुष्य विषमय होकर भ्रमते रहते हैं, इसको जिसने जीत कर वश में कर लिया, वह मनुष्य क्यों न निर्भय होकर शांति से जीवन व्यतीत करेगा ? उसके लिए किसका डर और क्या कामना रह जाती है ? उसका जीवन सफल हो गया, अरमान पूरे हो गए ।
संसार के मनुष्य जिस तरह विषयरस की प्राप्ति के लिए जागते रहते हैं, उसी प्रकार जन्म से ही महापुरुष परमात्मा की कृपा की प्राप्ति के लिए जगत में जागता रहता है । जब उसे परमात्मा की कृपा प्राप्त हो गई, तब उसको और किस वस्तु की कामना हो सकती है ? परमात्मा को प्राप्त करके वह प्रेम और समता की मूर्ति हो जाता है । ऐसा महात्मा संसार की शोभा बढ़ाता हुआ जीता है । वह सद्गुणों का सागर होता है । संसार की सेवा में लगा रहता है । समाज के लिए उसका जीवन कल्याणकारी होता है । ऐसे महापुरुषों के दर्शन जिसे प्राप्त होते हैं, उसके हजारों जन्मों के पुण्यों का उदय हुआ, ऐसा ही समजना चाहिए । अगर ऐसे महापुरुष स्वयं दर्शन न दें, तो उनको कौन देख सकता है ?
ऐसे महापुरुषों को हमारा कोटि कोटि वंदन है । उन महापुरुषों को वंदन है जो जीवन के संग्राम में विजयी हुए हैं और मोह नदी को पार करके प्रेम और शांति के धाम बने हैं, जिनके छोटे बड़े सब प्रकार के बंधन छूट गये हैं और परमात्मा के साथ स्नेह करके जो परमात्मामय बन गए हैं, उनका दर्शन हमें होता रहे । उनकी कृपा हम पर बरसती रहे जिससे हमारा जीवन भी उनका अनुसरण करके पुनीत, सेवामय, सफल और धन्य हो जाय, ऐसा आशीर्वाद हम उनसे माँगते हैं । वह तो दयालु और प्रेम सिन्धु हैं । अपनी कृपा जरूर बरसाएँगे ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)