अपना विकास करके अल्प से महान बनने का कार्य कठिन है । गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताए गए हैं । उनको जीवन में व्यवहृत करना कठिन है लेकिन यदि चाहे तो आदमी कठिन को सरल बनाकर महान बन सकता है । इस संसार में कठिन कहे जानेवाले कितने काम मनुष्य ने अपने पुरुषार्थ से आसान बना लिये हैं । भयंकर उछलते हुए सागर पर वह सफ़र करता है, हवा में उड़ता है, बड़े-बड़े पर्वतों को लाँघ जाता है और ऐसा करने में गौरव का अनुभव करता है । मनुष्य बड़े-बड़े काम करके विकास करता है । उसके द्वारा जो लाभ होता है वह अपार है, फिर उसमें वह प्रमाद क्यों करे ?
भारतीय इतिहास में शंकर, शुकदेव और जड्भरत स्थितप्रज्ञ गिने जाते हैं । दत्तात्रेय और जनक भी वैसे ही माने जाते हैं । उनके जीवन का विचार करके मनुष्य यदि प्रयत्न करे तो खुद भी वैसा बन सकता है । संसार के किसी भी व्यक्ति के लिए स्थितप्रज्ञ बनने का द्वार खुला है । महानता का मार्ग सबका स्वागत करता है । जिसे भी इच्छा हो वह उस पर अग्रसर हो सकता है ।
महान बनने का या सच्चा इन्सान बनने का पुरुषार्थ जो करेगा, उसके मार्ग में बाधाएँ तो आएंगी ही । बहते पानी का भी मार्ग सदा सरल नहीं होता । हिमालय प्रदेश में जगह-जगह झरने दिख पड़ते हैं । वे अत्यंत वेग से बहते हैं, मानो गंगा से मिलने के लिए दौड़ रहे हों, किन्तु उनके मार्ग में क्या होता है ? कंकड़ और पत्थर । उनमें से रास्ता निकालते हुए, कभी-कभी उन्हें ढकेलकर बहा ले जाते हुए तथा उन्हें तोड़ फोड़ कर वे आगे बढ़ते हैं ।
इस तरह महानता को हासिल करने के लिए विघ्न बाधाओं का सामना करके आगे ही आगे बढ़ते रहना चाहिए । ऐसा नहीं समजना चाहिए कि यह विघ्न केवल बाहरी ही होते हैं । बाह्य विघ्नों के साथ ही आंतरिक विघ्न भी होते हैं और वे बहुत ही प्रबल होते हैं । बाहरी विघ्नों पर विजय प्राप्त करनेवाला पुरुष भी कभी-कभी आंतरिक विघ्नों से हार जाता है । मनुष्य का मन भिन्न-भिन्न विषयों के रस में रमने का अभ्यस्त रहता है । इन्द्रियाँ उसको जिधर चाहती हैं ले जाती हैं ।
मनुष्य को मन तथा इन्द्रियों दोनों को वश में करना है । मन को मर्कट के समान कहा गया है । इस पर नियंत्रण प्राप्त किये बिना महान बनना संभव नहीं । संसार में विद्यावान, धनवान एवं बलवान को महान माना जाता है, किन्तु इस बारे में गीता की राय अलग है । जिसने मन और इन्द्रियों पर काबू कर रखा है, जिसकी बुद्धि निर्मल है, जिसका हृदय विशाल है, जो परमात्मा से प्रीति करता है और उसकी प्रसन्नता इसी में है ऐसा समजकर सब भूतों के हितार्थ कार्य में लगा रहता है, वह महान एवं पूज्य है । महानता इस भांति मनुष्य के भीतर से आती है; दैवी गुणों और कर्मों का विकास करने से पैदा होती है ।
ऐसी महानता हासिल करने के अभिलाषी के लिए भगवान ने महापुरुष के जो लक्षण बताए हैं, वे प्रेरणादायक हैं । उन लक्षणों के द्वारा मनुष्य अपनी जांच कर सकता है और समय-समय पर यह पता लगा सकता है कि उसने कितनी और किस प्रकार की प्रगति की है ।
बचपन ही में जब मुझे आध्यात्मिक विकास की इच्छा हुई, तब गीता मेरे लिए अति उपयोगी हो गई । उसमें भी स्थितप्रज्ञ के लक्षणों ने मुझे सबसे अधिक प्रेरणा दी । उन लक्षणों को पढने से मुझे लगा कि स्थितप्रज्ञ पुरुष सब तरह की लौकिक कामनाओं का त्याग करता है और आत्मानंद में मग्न रहता है, किन्तु मेरे मन में तो कामनाएँ उठती हैं । उन्हें छोड़कर मुझे आत्मानंद में तल्लीन होना चाहिए ।
स्थितप्रज्ञ पुरुष न तो सुख में हर्षित होता है और न दुःख से विचलित । इसे भय और क्रोध नहीं सताते । सिवाय परमात्मा के वह दूसरे किसी में अनुराग नहीं रखता । क्या मेरी दशा ऐसी है ? सुख व दुःख तथा अच्छी या बुरी परिस्थिति से क्या मेरा मन स्वस्थ व स्थिर रहता है ? काम व क्रोध से मैं पूर्णतया मुक्त हुआ हूँ क्या ? क्या उनसे छुटकारा पाने के लिए मैं निरंतर प्रयत्न कर रहा हूँ ? अँधेरे में अकेले चलने फिरने या सोने में क्या मुझे भय नहीं लगता ? उस भय को दूर किये बिना महापुरुष कैसे बना जाएगा ।
मुझे सद्गुणी बनना चाहिए, शांत चित्त होना चाहिए और अन्य सब पदार्थों के रस का त्याग कर परमात्मा के रस का ही अनुरागी बनना चाहिए । तभी परमात्मा की कृपा होगी और मैं महान बन सकूँगा । फिर मैंने अपनी दुर्बलताओं तथा त्रुटियों को दूर करने और उत्तम गुणों को ग्रहण करने में अपने को लगा दिया । इस प्रकार कोई भी मनुष्य कर सकता है । जो अपने आत्म-विकास के काम में तन मन से लग जायेगा, उसे कम या अधिक आनंद अवश्य प्राप्त होगा और अंततः लाभ ही होगा । व्यवहार में या एकांत में जहां भी रहता हो, मनुष्य को इसके लिये प्रयत्न करना चाहिए, सुख व संपत्ति से मनुष्य को गर्व से इतराना नहीं चाहिए और दुःख से व्यथित नहीं होना चाहिए तथा काम, क्रोध और भय पर भी आधिपत्य प्राप्त करना चाहिए । साथ ही उसे भगवान की शरण लेना चाहिए । इस प्रकार वह अपने जीवन को उज्जवल बना सकता है ।
महात्मा गाँधीजी की प्रार्थना में स्थितप्रज्ञ के श्लोक रोज बोले जाते थे । अब भी कई जगह बोले जाते हैं – किन्तु बोलने मात्र से अपना हेतु सिद्ध नहीं होगा । उन श्लोकों को जीवन में उतारना है, उनके अनुसार आचार व्यवहार करना सीखना है । तभी उनका यथार्थ लाभ मिलेगा । इसलिए प्रमाद छोड़कर पुरुषार्थ करने की जरूरत है ।
जीवन महा मूल्यवान है । समय बहुत कीमती है, वह तेजी से बह रहा है । इसलिए आलस नहीं करना चाहिए । अपने को पूर्ण व मुक्त करने के लिए आज से ही तैयार हो जाओ और पुरषार्थ करो । जो स्थिति अनेक खुशनसीब पुरुषों को प्राप्त हुई है वह आपको भी प्राप्त होगी । दुर्बलताओं को अपने में से निकालो तथा जो कुछ अच्छा समजो उसे करने में तुरंत लग जाओ । अपना जीवन पूरा होने से पहले ही पूर्णता प्राप्त करो और परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करके जीवनमुक्ति का रस भी लो ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)