जो परमात्मा के साथ एकता स्थापित करके महान या स्थितप्रज्ञ बन गया है, क्या उसे मोह हो सकता है ? विकास की अंतिम दशा को प्राप्त करके क्या उसका पतन हो सकता है ? जो मुक्त हो गया है, क्या वह फिर से बंधन में जकड़ा जा सकता है ? बुद्धिमान लोग समज जायंगे कि ये प्रश्न अनुचित है । अधुरी या अपूर्ण दशा में मोह या पतन का अवकाश रहता है । मगर परमात्मा को प्राप्त करके पूर्ण होने के बाद उनका अवकाश नहीं रहता । लोहे का टुकड़ा पारस से स्पर्श होकर सोना बन गया, फिर लोहा होने का भय कहाँ रहा ? बालक छोटा हो और चलना सीख रहा हो तब उसके गिरने का भय रहता है, किन्तु बड़ा हो जाने पर, पग प्रवीण हो जाने पर उसे भय कहा रहता है ? छोटे पौधे को भेड़ बकरी तोड़ सकते हैं, किन्तु जब वह बढ़कर मजबूत हो जाता है तो भेड़ बकरियाँ उसका क्या बिगाड़ सकती हैं ? इसी प्रकार पूर्ण दशा को प्राप्त करने पर मोह या पतन का कोई भय नहीं रहता । जीवन के अंत समय में भी मनुष्य यदि स्थितप्रज्ञ हो जाय तो सब तरह मुक्त हो जाता है यह गीतामाता की पुकार है ।
अर्जुन को स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्यों बताए गए, कुछ लोगों के दिल में यह प्रश्न उठ सकता है । उसका उत्तर यह है कि जीवन का तत्व-ज्ञान क्या है, यह जानने तथा लक्ष्य प्राप्त पुरुषों की पहचान के बारे में जानने की इच्छा तो खुद अर्जुन ने ही भगवान के सामने प्रकट की थी । अर्जुन को कर्म करना था, किन्तु वह कुशलता से करना था, यानि अपनी बुद्धि को स्थिर बनाकर करना था । कर्म करके वह महान और अनासक्त हो जाय, तथा कर्म करते हुए भी उसकी प्रज्ञा शांत और स्थिर कैसे बनी रहे, यह कला उसे सीखनी थी । स्थितप्रज्ञ की शिक्षा आज भी उतनी ही उपयोगी है, जितनी अर्जुन के समय में थी । जीवन को सफल बनाने के अभिलाषी सभी लोगों को उसका लाभ उठाना चाहिए ।
इस अपूर्व उपदेश को सुनकर अर्जुन को कितना आनंद हुआ होगा ? हज़ारों साल बीत जाने पर भी इसे पढ़ने और सुननेवालों को कितना आनंद होता है । फिर अर्जुन को तो स्वयं भगवान ने उपदेश दिया था । भगवान के स्वरुप का आस्वाद लेते हुए और उनका शब्द संगीत सुनते हुए अर्जुन हर्ष से फूला नहीं समाया होगा । उसकी कल्पना करके हम भी आनंद प्राप्त कर सकते हैं । कल्पना में भी आनंद का स्त्रोत छिपा है ।
भगवान द्वारा कहे गए स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का भावार्थ इस प्रकार समज सकते हैं -
(१) स्थितप्रज्ञ पुरुष समस्त कामनाओं का त्याग करके मन को उसके मूलभूत स्वरुप से सदा के लिए जोड़ देता है, जिससे उसे परमानंद की प्राप्ति होती है । वह सदा आत्मानंद में मग्न रहता है ।
(२) चाहे आसमान टूट पड़े तो भी वह न तो दुःखी होता है और न परेशान होता है । सुख और संपत्ति पाकर भी वह न तो इतराने लगता है और न पुरुषार्थ में किसी प्रकार की कमी करता है । वह भय, क्रोध एवं राग द्वेष से मुक्त होता है ।
(३) परमात्मा में ही वह आनंद मानता है । वह अपनी समस्त शक्ति और समय ऐसे ही कामों में लगाता है जिससे ईश्वर प्रसन्न हो । किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले वह अपने से पूछता है कि ईश्वर इस काम के करने से प्रसन्न होगा या नहीं । इस प्रकार अपने कार्य को निर्धारित करके वह उसमें अपनी पूरी योग्यता और शक्ति को लगा देता है और फिर चाहे हानि हो या लाभ, सुख आए या दुःख, वह न तो अपने कर्तव्य से विचलित होता है और न परमात्मा के प्रेम में किसी प्रकार की कमी आने देता है ।
(४) किसी प्रकार के खतरे का संकेत मिलने पर कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ लेता है । इसी तरह जब किसी तरह का खतरा सामने आता है, जब प्रलोभन, क्रोध, भय आदि के प्रसंग आते हैं, तो स्थितप्रज्ञ अपनी इन्द्रियों को बाह्य पदार्थों से खींच लेता है और स्थिरता तथा शांति का अनुभव करने लगता है ।
(५) प्रथम तो वह विषय से दूर रहता है और संयम धारण करता है । इसलिए उसका विषयरस क्षीण हो जाता है, पर जब तक विषयभोग की सूक्ष्म रसवृत्ति उसके दिल में रहती है, तो संग-प्रसंग आने पर उसके प्रबल हो जाने का भय बना ही रहता है । परमात्मा का दर्शन करने पर वह रसवृत्ति मूलतः दूर हो जाती है और मनुष्य पूर्णतया पवित्र हो जाता है ।
(६) वह मन को वश में रखता है । मन की गुलामी का नाश कर देता है । राग और द्वेष से मुक्त होकर वह अपने मन पर काबू रखता है ।
(७) विवेकी होकर वह इन्द्रियों से विषयों को भोगता है और दूसरे आवश्यक कर्म करता है, पर वह भोग पदार्थो में लिप्त नहीं होता । उसे परमात्मा की कृपा प्राप्त होती है और वह प्रसन्नता का अनुभव करता है ।
(८) उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं । उसकी चिंतायें मिट जाती हैं । उसकी बुद्धि सदा स्थिर रहती है । जो परमात्मा के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं करता एवं मन तथा इन्द्रियों पर काबू नहीं रखता, उसे शुद्ध बुद्धि प्राप्त नहीं होती, तथा उत्तम भावना भी उसमें नहीं जागती । बिना उत्तम भावना के शांति मिलना मुश्किल है और जहां अशांति है वहां सुख कहाँ से होगा ? रवि और रजनी दोनों एक जगह नहीं रह सकते । स्थितप्रज्ञ को विवेक एवं सुख शांति की प्राप्ति हो चुकी होती है ।
(९) मामूली लोग संसार के क्षणभंगुर पदार्थों में आनंद लेते हैं और आसक्त हो जाते हैं । वे आंखे होते हुए भी अंधे हैं और जागने पर भी सोए हुए हैं । स्थितप्रज्ञ की दशा उनसे विपरीत होती है । विषयों के रस को छोड़कर वह परमात्मा के प्रेमरस का अनुभव करने की इच्छा रखता है । परमात्मा का अनुभव करते हुए वह ज्ञान की दुनिया में सदा जागता ही रहता है । एक पल का भी प्रमाद नहीं करता ।
(१०) जैसे सागर में नदी नालों तथा वर्षा का जल कोई विकार पैदा किये बगैर समा जाता है, इसी तरह कामनाएँ स्थितप्रज्ञ में विलीन हो जाती हैं, पर उसके मन को चंचल या अशांत नहीं बनातीं ।
(११) वह किसी भी प्रकार की स्पृहा से रहित होता है । वह किसी की व्यर्थ परवाह या खुशामद नहीं करता । वह मातम और अहंता से परे होता है । अभिमान तो उसे छु भी नहीं सकता । वह शिशु की भाँति सरल एवं नम्र होता है ।
(१२) किसी भी परिस्थिति में किसी भी कारण से उसे मोह नहीं होता है । वह माया के फंदे में नहीं फँसता । उसके अंतर में स्थित ज्ञान की ज्योति उसे सदा प्रकाश देती रहती है ।
(१३) वह जीवन मुक्त हो जाता है । दुनिया में रहते हुए तथा प्रवृत्ति में संलग्न रहते हुए भी वह किसी प्रकार की लालसा या ममता में नहीं फँसता । शरीर छूटने के बाद उसे पुनः शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)