जिस प्रकार पेट एवं मस्तक दोनों ही शरीर के आवश्यक अंग है, उसी तरह ज्ञान एवं कर्म दोनों ही मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक हैं । मनुष्य चाहे त्यागी हो या संसारी, कर्म की आवश्यकता सभी को रहती है, यह बात अच्छी तरह समज लेनी चाहिए । कोई मनुष्य यदि ज्ञानी बनना चाहता है और सब कर्मों को छोड़कर आलसी बन जाता है, तो क्या वह ज्ञानी हो सकता है? ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसे प्रखर परिश्रम करना पड़ेगा । ज्ञान की अपेक्षा रखनेवाला मनुष्य यदि सभी प्रकार की क्रियाओं और प्रवृत्तियों का त्याग करके दिनभर सोता रहेगा तो क्या उसे ज्ञान प्राप्त हो सकेगा? ज्ञान की इच्छा अगर है तो उसे नम्र होकर सद्गुरु या नामी पुस्तकों की शरण में जाना चाहिए और अपने भीतर जो साक्षात् ज्ञान स्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम परमात्मा है उसका साक्षात्कार करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ज्ञानी पुरुष एकान्त में निवास करता है परंतु किस लिए? ऐश-ओ-आराम करने या कुंभकर्ण बनकर सोये रहने के लिए? मन की एकाग्रता के लिए एकान्त में अनुकूल वातावरण रहता है । इसलिए कोलाहल की अपेक्षा एकान्त में रहने से साधना का काम सरल बन जाता है । ज्ञानी या योगी पुरुष ऐसे वातावरण में ईश्वर के या अपने स्वरूप में मग्न बन जाता है, धारणा, प्राणायाम और ध्यान में स्थिर हो जाता है । एकान्तवासी भक्त पुरुष जप और संकीर्तन का आधार लेता है । ईश्वर की प्रार्थना और प्रीति में अधिक से अधिक डूबता जाता है । क्या यह सब कर्म नहीं है?
कुछ आदमी बिलकुल निवृत्त होते हैं । उनको किसी भी प्रकार का काम नहीं रहता, लेकिन घर में बैठे रहने से उसका समय कैसे व्यतीत होगा? बेकारों में गिनती होगी और सभी लोगों की निगाह में खटकेंगे, वह बात अलग रही । इसलिए वे घूमने निकलते हैं और किसी न किसी तरह दिन बिता देते हैं । फिर भी उन्हें कर्मठ कहा जाता है, परंतु एकान्त में रहनेवाले तथा एक ही जगह बेठे रहनेवाले आदमी भी काम तो करते ही हैं । काम को बैठकर किया जाय या धूम फिर कर या दौडधूप करके, काम तो काम ही रहता है । इसलिए ऐसा नहीं समझना चाहिए कि जो बैठे रहते हैं वह काम नहीं करते । इसी तरह यह भी नहीं समज़ना चाहिए कि काम केवल कोलाहल में ही होता है या एकान्त में । काम हर जगह और हर रीति से हो सकता है । एकान्त में रहनेवाले मनुष्य भी कर्म करते हैं, चाहे वह उपासना हो या ध्यान या जप । मनुष्य कर्म या पुरुषार्थ त्याग कर यदि प्रमादी बन जाए तो क्या उसकी उन्नति हो सकती है? विद्यार्थीयों को शुरु शुरु में कितनी महेनत करनी पडती है ! परन्तु वह उनकी भलाई के लिए ही है । उससे उन्हें ज्ञान प्राप्त होता है और आगे चलकर वह जीविको पार्जन भी करते हैं । यदि वह शिक्षक से ज्ञान लेने तथा पढ़ने का परिश्रम नहीं करेगा तो ज्ञान कहा से पा सकेगा? उसे विचार करना चाहिए कि उसके गुरु जो इस समय पढ़ते या परिश्रम करते नहीं दिखाई देते, परंतु फिर भी ज्ञान की मूर्ति स्वरूप है, वह बिना परिश्रम किए इस दशा तक नहीं पहुंच गये । विध्यार्थी जीवन में उन्होने बडा भारी परिश्रम किया था । उसीका यह फल है । इस प्रकार विचार करने से विध्यार्थी को प्रेरणा मिलेगी और वह अपने गुरु का झूठा अनुकरण करके किताबों को अलमारी में बंद करके बैठा नहीं रहेगा । परंतु अधिक से अधिक परिश्रम करेगा । इसी प्रकार किसान को भी समझ लीजिए ।
एक बार अकाल पड़ने के कारण भाल प्रदेश से कई किसान अहमदाबाद के इर्दगिर्द के गाँवो में आकर निवास करने लगे । वहाँ के किसान सुखी थे। वहाँ अनाज की कमी नहीं थी । उनको देखकर आनेवाले किसानों का उत्साह कम नहीं हुआ । उन्होनें ऐसा नहीं सोचा कि यह लोग तो बैठे बैठे खाते हैं और हमें महेनत करनी पड़ रही है । जो लोग बैठे बैठे खा रहे थे वे अपनी पहले की महेनत के फल का उपभोग कर रहे थे । ईर्ष्या या झूठी नकल करने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । ऐसा समजकर अकाल पीडित किसान फिर से महेनत करने में लग गए । ईश्वर की कृपा हुई, बारिश अच्छी हुई और उन्हें अपने परिश्रम का फल मिला । अगले साल उनमें से कुछ लोग हँसते हँसते अपने घर वापिस आए । उन्होंने अगर परिश्रम न किया होता तो क्या उनकी दशा अपने आप बदल सकती थी?
मनुष्य को हृदय में लिख रखना चाहिए की संसार में जो भी सफल, सिध्ध या महापुरुष दिखाई देते हैं उनकी सिद्धि के पीछे उसका महान परिश्रम है । सुख या ख्याति पानेवाले सभी लोगों ने किसी न किसी प्रकार से पुरुषार्थ किया था । साधारण साधक एक सिध्ध पुरुष का दर्शन करके प्रभावित हो जाता है । सेवक लोग उसकी सेवा करते हैं, भक्तजन उसकी महत्ता का गुणगान करते हैं । यह देखकर साधक दाँतों तले उंगली दबा लेता है किन्तु दंग रह जाने की कोई आवश्यकता नहीं । सिद्धपुरुष शांति से बैठा रहता है । वह देखकर उसको लगता है कि मैं भी अगर कामकाज छोड़कर बैठ जाऊं और सिद्धावस्था प्राप्त करके पूजनीय बन जाऊं तो कैसा अच्छा हो ! लेकिन यह मान्यता गलत है। लेकिन सिद्ध पुरुष ने सिद्धि या शांति की प्राप्ति एक ही दिन में नहीं की है । उसके लिए जी जान से कर्म किया है, परिश्रम किया है । वे भी कभी साधक दशा में थे। सिद्धि प्राप्त करने के बाद आज वह शांत दिखाई देते हैं । आपको भी उनकी तरह सिद्ध बनने की इच्छा है तो कर्म कीजिए, परिश्रम कीजिए और महापुरुषों के उपदेश का अनुसरण कीजिए । अगर उन्हों ने कोई साधना ही न की होती तो क्या वे इस अवस्था पर पहुँच पाते? किसी भी क्षेत्र का विचार कीजिए, चाहे व्यवहार हो या परमार्थ, बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती । बिना श्रम के सफलता कहाँ से आ सकती है? कोई मनुष्य अगर उद्योग को तिलांजलि देकर बैठ जाय तो उसकी उन्नति नहीं हो सकती ।
कर्म का त्याग करके हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने से किसी भी मनुष्य को शांति या सिद्धि की प्रप्ति नहीं हो सकती । श्रीमद् भगवद् गीता की यही शिक्षा है । वह कहती है, ’हे मानव, तू कर्म कर, निरंतर कर्म कर । तू चाहे ज्ञानी हो, योगी हो, भक्त हो, संसार के कोलाहल में हो या उससे अलग, उन्नति का एक ही मार्ग है कि तू कर्म कर ।‘
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)