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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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भगवान ने उसका जो उत्तर दिया है वह उनकी उदारता का परिचायक है । इसको समझने से ज्ञान या कर्म, त्याग या व्यवहार जैसे जटिल विवादों का अन्त हो जायगा । ज्ञानी ज्ञान को तथा कर्मी कर्म को श्रेष्ठ मानते हैं । त्यागी यह निश्चित रूप से विश्वास करते हैं कि त्याग का सहारा लेने से ही उद्धार हो सकता है, जब कि व्यवहार परायण पुरुष व्यवहार को ही सब प्रकारकी उन्नति का साधन कहकर त्याग को निरर्थक साबित करने के लिये सदा तैयार रहते हैं । हमें जो मार्ग पसंद हो उसकी प्रशंसा करने में कोई हर्ज नहीं है किन्तु इससे आगे बढ़कर यदि कोई मनुष्य दूसरे मार्गों का विरोध करने लगता है, तो उसके इस बर्ताव को उचित नहीं माना जा सकता । अपना सब अच्छा और दूसरों का सब बुरा वह पद्धति अनुचित है । दूसरे मार्गो में जो अच्छाई है उसे अपनाने में हमें सदा तत्पर रहना चाहिए । भिन्न भिन्न विचार, मत एवं मार्ग वाले मनुष्य अपनी अलग दुकान खोलकर बेठ जाते हैं और दूसरे लोगों से कहते हैं, ‘भाईयों, हमारे पास आओ, हमारे यहाँ जो चाहो मिल जायगा । हम हर तरह के माल के व्यापारी हैं ।‘ इतना कहकर ही वे रुक जाय तो अच्छा है, किन्तु वे तो आगे कहते हैं, ‘दुसरी जगह ऐसा माल नहीं मिलता । हमारे वहाँ से खरीदोगे तभी सुखी होंगे । हम ही ईमानदार हैं । दुसरे सब बेईमान हैं । हमारे यहां सबसे अच्छा माल मिलता है ।‘ यह मनोवृत्ति ही प्रायः व्याप्त है । दुसरों के मत के प्रति ऐसी असहिष्णुता एवं कट्टरता अच्छी नहीं । उसका अन्त होना चाहिए । आपका माल यदि अच्छा हैं तो दूसरों को अवश्य दीजिए, किन्तु ईर्ष्या की आग फैलाकर तथा दूसरों की श्रद्धा विचलित करके दूसरों के लिए हानिकर मत बनिए । अगर आप ऐसा करेंगे तो आपका एवं सबका भला होगा, इसमें सन्देह नहीं ।

क्या कारण हैं कि मनुष्य कट्टर, कटु एवं संकुचित बन जाते हैं । इसीलिए कि वे हृदय या मन के किबाड बंद रखते हैं । बंद घर में उजाला कैसे आ सकता है और बिना उजाले के उसकी गंदगी कैसे दूर हो सकती है ? कट्टरता एवं संकुचितता भी एक प्रकार की गंदगी है । अत: अच्छा उपाय तो यह है कि मन के सभी किबाडों को खुला रखा जाय जिससे नये अनुभव और नया ज्ञान मन के भीतर प्रवेश कर सके । जो लोग अत्यधिक कट्टर है और अपनी मनमानी करते हैं उनसे हम यह पूछेंगे कि शरीर के लिए क्या अधिक आवश्यक है मस्तक या पेट? शरीर में से मस्तक को निकाल देंगे तो क्या अच्छा लगेगा?

मस्तक केवल शोभा के लिए नहीं है । वह तो भावना एवं विचारों का केन्द्र है । अब आप ही कहिए क्या ऐसे महत्वपूर्ण मस्तक के बिना शरीर चल सकता है? क्या स्वस्थ एवं सुंदर शरीर में स्वस्थ मस्तक का स्थान महत्वपूर्ण नहीं है? इसी तरह पेट के बारे में भी सोचिए । पेट प्रबल कर्मवीर है । नींद में भी उसका काम जारी रहता है । जन्म के साथ ही उसे विरासत में कर्म मिलता है । उसका काम शरीर के लिए कितना जरुरी है ! अगर वह काम बंद कर दे तो क्या शरीर की व्यवस्था चल सकती है? प्रखर बुद्धिमान मनुष्य भी क्या पेट के बिना जी सकता है? भविष्य में ईश्वर यदि कोई नई सृष्टि रचे तो शायद ऐसा हो सके । किन्तु आज तो उसकी रचना ऐसी ही है कि पेट को भरे बिना जीवन नहीं चल सकता । अब प्रश्न वह पेदा होता है की पेट और मस्तक में अधिक उपयोगी कौन है । हम तो यही उत्तर देंगे कि दोनों ही उपयोगी एवं मंगलकारी है । अकेले पेट को महत्व देकर बेठे रहने की शिक्षा तो इस देश की प्रजा को नहीं मिली और सच तो यह है कि अन्य देशो में भी उत्तम उपदेशकों ने भी ऐसी शिक्षा नहीं दी । हम पेट को उपयोगी मानते हैं किन्तु केवल पेट पूजा ही हमारा ध्येय नहीं है । पेट की उपेक्षा हमे पसंद नहीं । उसका आवश्यक आदर करने को हम सदा तैयार रहेंगे किन्तु मस्तक की उपयोगिता का भी स्वीकार हमें करना है तथा उसे भी निरोगी बनाना पड़ेगा । स्वस्थ पेट स्वस्थ मस्तक के लिए भी सहायक होगा । वे दोनों मिलकर सुंदर और सुशील व्यक्तित्व का निर्माण करेंगे । इस प्रकार हमारी दृष्टि से तो पेट एवं मस्तक दोनों जीवन के लिए आवश्यक एवं मंगलकारक है । इसी तरह ज्ञान एवं कर्म दोनों आवश्यक है तथा त्याग एवं व्यवहार दोनों ही उपयोगी है । इनमें श्रेष्ठ कौन है इस वादविवाद में पडना ठीक नहीं । संसार में कुछ लोग पेट परायण होते हैं तो कुछ बुद्धिजीवी होते हैं । इसी तरह कुछ लोगों को ज्ञान एवं त्याग अधिक पसंद है तो कुछ लोगों को कर्म एवं व्यवहार । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि एक मार्ग उत्तम या उपयोगी है और दुसरा नहीं । खिचडी एवं रोटी दोनों उपयोगी हैं । मनुष्य अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार उनका उपयोग करता है । यह बात यदि याद रहे तो विवाद एवं कटुता का अंत हो जाए । भगवान अर्जुन को यही समझाते हैं ।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)

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