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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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तीसरे अध्याय के प्रारंभ में जिज्ञासा व्यक्त करता हुआ अर्जुन पूछता है, ’’हे प्रभु ! आप एक ओर कर्म की प्रशंशा करते हैं, तथा दूसरी ओर ज्ञान अर्थात् कर्म के त्याग की सराहना भी करते हैं । इससे तो मेरी उलझन और बढ़ गई । मैं दुविधा में पड गया हूँ । मुझे कर्म करना चाहिए या कर्म का त्याग करके ज्ञान मार्ग का आश्रय लेना चाहिए । मेरी समज़ में नहीं आता कि ऐसी परिस्थिति में रास्ता किस प्रकार निकल सकता है? मैंने तो आपसे किसी पक्के निर्णय की उम्मीद रखी थी, पर ऐसा लगता है कि आप तो गोलमोल बातें कर रहे हैं । अब आप कृपा कर मुझे यह बताइए कि कर्म और ज्ञान में क्या श्रेयस्कर है । मुझे यह समझा दीजिए कि कर्म और कर्मत्याग में कौन सा मार्ग उत्तम है, ताकि मैं उसीका अनुसरण कर सकूँ ।’

जो प्रश्न अर्जुन के सामने उपस्थित हुए हैं वे दूसरे लोगों के सामने आते रहते हैं । उत्तम क्या है और शांति किस से प्राप्त हो सकती है, कर्म से या कर्म का त्याग कर ज्ञान का सहारा लेने से? यह प्रश्न अच्छे अच्छे आदमीयों को उलझन में डाल देता है । इसका उत्तर देने में गीतामाता अपनी समज़ और सावधानी का परिचय देती है । सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग करनेवाले तथा एकान्त में रहनेवालें किसी ज्ञानी पुरुष से यदि पूछा जाय तो उत्तर मिलेगा कि भाई जगत मिथ्या है । संसार में कर्म करके सुख की इच्छा रखना मिथ्या है । यह जगत तो मृगजल के समान है । रेगिस्तान में पानी प्राप्त करने दौडते हैं किन्तु नज़दीक पहुंचने पर कुछ हाथ नहीं आता । कर्म करने से क्या फायदा? कर्म का मोह छोड़ दो और हमारी तरह त्यागी बनकर एकान्त में आसन लगाओ । तभी सुखी बनोगे तथा शांति भी प्राप्त कर सकोगे । किन्तु क्या सब लोग ऐसा कर सकते हैं? कुछ लोगों की तो काम करने की ही इच्छा रहती है, उनको काम किये बिना चैन नहीं पड़ता । उस प्राचीन कथा में वर्णित भूत को प्रत्येक पल कोई न कोई काम चाहिए । उसी प्रकार कर्मठ लोगों को काम की भूख रहती है । व्यवहार त्यागी और एकान्तवासी पुरुषों को यदि काम सौंपा जाय तो उन्हे पसंद नहीं आयगा क्योंकि उन्हें कर्मविहिन जीवन ही में मजा आता है । इसी तरह यदि पुरुषार्थप्रेमी लोगों को काम नहीं मिलेगा तो वे बेचैन हो जायेगें । काम ही उनका जीवन है । अतः बिना जल की मछली की भाँति वे काम के बिना तड़पेंगे, उनका जीवन नीरस हो जायगा । ऐसे लोगों को निठल्ले बेठना अच्छा नहीं लगता । वे रातदिन यंत्रवत् काम करते ही रहते हैं । उनसे सलाह लोगे तो वे कहेंगे, ‘भाई, इसमें पूछने की क्या बात है? काम बिना ठांव कहा? जैसा करोगे वैसा पाओगे । काम करोगे तो तुम्हारा और दुसरों का भी उद्धार होगा । इस देश के लोग आलसी हैं, इसीलिए यह देश पिछड़ा हुआ है । अन्य़ देशों के लोग कितने मेहनती होते हैं । इसीलिए वे समृद्ध एवं सुखी हैं । इस देश के ज्यादातर भाग में अधिक गर्मी पडती है । इसलिए यहाँ के लोगों में आलस का होना स्वाभाविक है । त्याग और वैराग्य के बहाने कितने लोग समाज के लिए बोझ बने हुए है । फिर हमारा देश कैसे सुखी हो सकता है?‘‘ ऐसे लोग एकान्तवासी लोगों को अच्छा नहीं समझते, बल्कि देश की गरीबी में वृद्धि करनेवाला ही मानते हैं । एक अच्छे कर्मवीर नेता से मुलाकात के समय एक अच्छे व्यक्तिने अपने प्रिय संतपुरुष का परिचय दिया और कहा कि यह महात्मा प्रायः हिमालय में निवास करते हैं और उनकी तस्वीर भी दिखाई । यह देखकर वे कर्मवीर बोल उठे, ‘‘मैंने तुम्हारी बातें सुनीं । ऐसे पुरुष हिमालय में रहे तो इससे दुसरों को क्या फायदा? इससे समाज का क्या हित होता है? समाज में रहकर उन्हें काम करना चाहिए ।‘‘

देखा आपने? वहाँ भी काम की फिलासफी आ गई । ऐसे लोग मानते हैं कि काम बस्ती में ही होता है, एकान्त में नहीं होता । किन्तु यह मान्यता ठीक नहीं है । क्या मनुष्य एकान्त में रहकर काम नहीं कर सकता? कश्मीर की रक्षा के लिए कुछ सैनिक सीमा के बीहड़ और निर्जन स्थलो में नियुक्त किये जाते हैं । वे यहाँ रहते है और देश की सुरक्षा का कार्य करते रहते हैं । कुछ सैनिक को तो दस दस हजार फीट उंचे पर्वतीय प्रदेशो में रहना पड़ता है । वहाँ न तो बाज़ार न बस्ती, न यातायात के विशेष साधन होते हैं । ठंड भी असह्य होती है । आराम या मनोरंजन के साधन नहीं के बराबर होते है । ऐसे सूमसान स्थलो में भी हँसी हँसी रहकर वे सैनिक पहेरा देते है । ऐसे लोग क्या देश की सेवा नहीं करते, क्या वे काम नही करते रहते? तो फिर यह क्यों समझ लिया जाय कि हिमालय जेसे निर्जन स्थल में रहनेवाले साधु या संत समाज के लिए उपयोगी कोई काम नहीं करते । ऐसे पुरुषों का समागम करके जरा जांच पडताल तो कीजिए कि वे करते क्या हैं? शिख गुरु गोविंदसिंहजी ने अपने पूर्वजन्म में बद्रीनाथ समीप हेमकुंड या लोकपाल में लम्बे अरसे तक तपश्चर्या की थी । बरसों तक निर्जन में रहकर समर्थ रामदासने क्या तप नहीं किया था? प्रेम व अहिंसा का सबक सिखानेवाले भगवान बुद्ध ने क्या एकान्तवास नही किया था? जिनके आध्यात्मिक वारिस ग्रंथो के लिये सारे संसार को नाज़ है एसे व्यास, वाल्मिकी और तुलसी क्या एकान्तवासी नहीं थे? ईसा मसीह ने मानवजाति के हितार्थ कार्य प्रारंभ करने से पूर्व क्या एकान्त का आश्रय लेकर तप नहीं किया था? दयानंद सरस्वती ने भी क्या हिमालयमें निवास नहीं किया था? क्या उन सब का एकान्तवास निर्रथक था? क्या उससे समाज को कोई लाभ नहीं हुआ? इसी तरह हिमालय में निवास करनेवाला कोई पुरुष अपना या परहित का कार्य नहीं करता है ऐसा क्यों मान लिया जाय? बस्तीमें रहकर जो भाषण दिया करते हैं, दौडधूप करते हैं तथा ‘‘काजी दुबले क्यों, सारे गाँव की फिकर‘‘ के अनुसार सारे समाज की फिक्र लेकर घूमते हैं, वे ही काम करते है तथा उनसे भिन्न पद्धति का उपयोग करके जो प्रयत्नशील होते हैं, वे काम नहीं करते है, ऐसा क्यों मान लिया जाय? तुम्हारी दृष्टिमें, तुम्हारी परिभाषा के अनुसार जो समाजसेवक हैं केवल वे ही सच्चे सेवक कर्मवीर एवं परोपकारी है और दुसरे सब लोग बोज़ स्वरूप, अकर्मण्य एवं आलसी है ऐसी धारणा रखना ठीक नहीं । कोई तटस्थ पुरुष हो तो अवश्य इस बात को मान लेता किन्तु तथाकथित कर्मवीर तो यह ही कहेंगे कि भाई हमारी तरह जो कर्म करते हैं वे ही कर्मवीर हैं । ऐसा कार्य करने से ही समाज की सूरत बदल सकती है ।

दो प्रकार की विचारधाराएँ जगत में विद्यमान है । एक धारा कर्म में बिलकुल विश्वास नहीं रखती जबकि दूसरी धारा कर्म का ही आधार ग्रहण करती है । इन दोनों विचारधाराओं में जमीन आसमान का फर्क है । इसके अतिरिक्त एक तीसरा प्रवाह भी है जो उपरोक्त दोनो मार्गों में से कभी एक पर चलता है कभी दूसरे पर । उसका बर्ताव स्थायी या निश्चित नहीं रहता । इससे प्रभावित मनुष्यों की दशा ऐसी होती है जैसे, ‘गंगा गए गंगादास, जमना गए जमनादास‘ । जब वे किसी कर्मवीर से मिलते हैं तब कर्मठ बनने की फ़िलासफ़ी उनमें ज़ोर मारने लगती हैं और वे भी कर्मवीर बनने के स्वप्न देखने लगते हैं । कर्म ही जीवन का मूल है, प्राण है, आधार है, ऐसा मानने एवं मनवाने लगते हैं । फिर कुछ समय बाद यदि किसी त्यागी पुरुष का समागम होता हैं तो उनके विचार बदल जाते हैं । प्रवृत्ति तो प्रपंच है । प्रपंची या मंदबुद्धिवाले मनुष्य ही उसका सहारा लेते हैं । समजदार आदमी को उसका त्याग करना चाहिए । संसार दु:खालय है, स्वप्न की भाँति असार है । घर भी दुःख का मूल है । शादी तथा उसके कारण उत्पन्न संतान दुःखदायी है । अतः बुद्धिमान मनुष्यों को उससे दूर रहना चाहिए । संसार के किसी भी पदार्थ में प्रीति या ममता नहीं रखनी चाहिए। एकान्तवास का सहारा लेकर ईश्वर परायण बन जाना चाहिए । मुक्ति कर्म से नहीं अपितु ज्ञान से ही मिलती है, अतः सभी प्रकार के कर्मों का त्याग करके एकान्तवासी बन जाना चाहिए तथा अपने स्वरूप के चिंतन में लग जाना चाहिए । जैसा संग वैसा रंग । ऐसे पुरुष इस बात का निर्णय नहीं कर सकते कि प्रवृत्ति अच्छी या निवृत्ति, कर्म अच्छा या कर्म का त्याग । यही कारण है कि वे सदा असंतुष्ट रहते हैं । समाजसेवा करनेवाले कई लोगों की दशा ऐसी है । यह दशा स्वस्थ नहीं है । आगे चलकर त्रिशंकु जैसी दशा भी हो सकती है ।

इसीलिए अर्जुन ईस अध्याय के प्रारंभ में इस विषय में भगवान का निश्चित मार्गदर्शन चाहता है । मिलीजुली बातें छोडकर, प्रभु, अब एक ही उत्तम पथ की सूचना दीजिए जिसके अनुसार जीवन में आचरण करके मैं अपना जीवन सफल बना सकूं ।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)

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