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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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कर्मयोग के बारे में सोचने से पहले एक और बात पर विचार करेंगे जिस पर गीता बहोत ज़ोर देती है । वह क्या है? गीता कहती है कि मनुष्य को संयम रखना चाहिए – तन का और मन का । दोनों प्रकार का संयम आवश्यक है । मन के संयम के लिए मन को शुभ विचारों, शुभ इच्छाओं और शुभ संकल्पों से भर देना चाहिए । बुरी भावनाओं को धीरे धीरे निकालते जाना चाहिए । काम, क्रोध, लोभ आदि विकारो में फंस जाने के जो दुष्परिणाम होते हैं उनको हृदयंगम कर लेना चाहिए । उद्देश्य यह होना चाहिए कि कैसी ही उत्तेजक परिस्थिति में मनुष्य को रहना पड़े, उसके दिलमें बुरी भावनाएँ उठने ही न पाए और न उसका संयम छूटने पाए । मन के संयम के साथ साथ शरीर के संयम के लिए भी प्रयत्न होना चाहिए । कर्मेन्द्रियों को बुरे काम से रोकने की क्षमता अगर मनुष्य प्राप्त कर ले, या यों कहिए कि अगर कर्मेन्द्रियों को बरबस नियंत्रण में रखने के अभ्यास में मनुष्य सफल हो जाए तो भी यह समझना चाहिए कि उसने संयम के मार्ग में बड़ी प्रगति कर ली । बाहर का संयम व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अति कल्याणकारी है । जिसने अपने व्यवहार में संयम को सिद्ध कर लिया, वह एक अच्छा नागरिक बन गया । उसकी मिसाल दूसरों के लिए अनुकरणीय है और सामाजिक सुव्यवस्था बनाए रखने में सहायक है । बाहरी संयम का एक बड़ा लाभ यह भी होता है कि वह मानसिक संयम में सहायता देता है । जैसे मानसिक क्रियाओं का प्रभाव शारीरिक क्रियाओं, अर्थात् मनुष्य के आचार या व्यवहार पर पड़ता है, वैसे ही शरीर की क्रियाओं का प्रभाव मन और बुद्धि पर पड़ता है । मन को स्थिर, निर्मल और सात्विक बनाने के लिए शरीर और वाणी से शुद्ध व्यवहार करना एक महत्वपूर्ण साधन है ।

इसका एक उदाहरण यहाँ देते हैं । एक आदमी को गुस्सा बहुत आता है । हर बार क्रोध करने के बाद वह पश्चाताप करता है । ये समझे बुझे गुस्सा कर बेठने के कारण वह कभी कभी संकट में भी फँस जाता है । गुस्से की बुराईयों को समजकर वह उस पर विजय पाने के लिए पुरुषार्थ करता है । मन को समजाता है और कर्मेन्द्रियों को भी क्रोध की बाहरी क्रियाओं से रोकता है । पहले वह क्रोध के आवेश में आ कर दुसरों पर हाथ उठा देता था पर अब ऐसा नहीं करता । धीरे धीरे वाणी पर भी उसका नियंत्रण बढ़ता जाता है और गुस्से में आकर वह अपशब्द भी बोलना बंद कर देता है । जब वह इतना संयम सिद्ध कर लेता है, तो यह समझना चाहिए कि उसने बड़ा काम कर लिया । जहाँ तक दूसरों का संबंध है वह अक्रोधी बन गया । गुस्से को ज़ब्त करने से उसके मानसिक संयम में भी उन्नति हो जाती है, इसमें कोई संदेह नहीं ।

यह जीतना हुआ बहुत अच्छा हुआ । पर यह न समझना चाहिए कि संयम की पूर्णत: सिद्धि हो गई । बाहर के व्यवहार को शुद्ध या संयमित कर लेने के बाद भी मन को पवित्र और संयमी बनाने का लंबा और कठिन काम तो बाकी ही रहता है, और जब तक यह काम पूरा नहीं हो जाता जब तक संयम को अधूरा ही समझना चाहिए । जिसे आध्यात्मिक क्षेत्रमें तरक्की करने की इच्छा है उसे संयम के मार्ग में और आगे बढ़ना होगा । उसे काम क्रोध, लोभ, मोह के अंकुरों को भी मन से समूल नष्ट कर देना होगा । इसे अपने मन पर इतना अधिकार प्राप्त करना होगा कि उसमें कुविचारों और बुरी भावनाओं की तरंगें कभी उठने ही न पाय । जब मनुष्य का मन इतना स्वच्छ हो जाए कि उसमें सदा शुभविचार और शुभ इच्छाएँ ही पैदा हों और जब उसके कर्म और वचन में भी सदा संयम ही दिखाई दे, तभी समझना चाहिए कि उसका संयम पूरा हो गया । फिर भी मनुष्य को सदा ही सावधान और सजग रहना होगा, क्योंकि काम क्रोध आदि चोर अवसर पाते ही हमारे मन में घुस जाते हैं ।

यह बात याद रखनी चाहिए कि मानसिक संयम के बिना केवल बाहर का संयम अपूर्ण और कच्चा रहता है । जब तक मन में बुरी भावनाएँ, काम क्रोध की तरंगे उठती रहती हैं तब तक बाहर का संयम टिकाऊ नहीं हो सकता । बल्कि यह देखा जाता है कि कभी कभी लोग बगुले की तरह धार्मिकता या भक्ति का केवल स्वांग धर लेते हैं, और भीतर से इसी ताक में रहते हैं कि अपना काम बनाने का कब मौका मिले । अगर उन्हें किसी बात पर गुस्सा आ गया तो बाहर से शांत और मधुर बने रहकर मन ही मन उस व्यक्ति से बदला लेने की या उसे नीचा दिखाने की फ़िकर में लगे रहते हैं । यह एक मशहूर कहावत है कि मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है । अगर किसी मनुष्य के दिल में बुरे विचार बार बार आते रहते हैं, तो इस बात का बड़ा खतरा है कि वे मौका पाकर कार्य रूप में परिणत हो जायगें और उसके बाह्य संयम को भंग कर देंगे । व्यवहार का वही संयम चिरस्थायी हो सकता है जिसके पीछे ऐसा मन हो जो शुद्ध और शुभ विचारों से सदा संपन्न रहता है और जिसमें बूरी भावनाएँ उठने से पहले ही विलीन हो जाती हैं । भगवान के निकट जाने या उन्हें प्राप्त करने के लिए ऐसे ही विशाल और पवित्र हृदय की आवश्यकता है ।

मान लीजिए कि एक आदमी एकान्त स्थान में इन्द्रियों का निग्रह करके और आँखे मूंदकर बेठा है । बाहर से देखने पर ऐसा लगता है कि वह कुछ कर नहीं रहा है, केवल परमात्मा के ध्यान में मग्न है । परंतु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं भी हो सकती है । आँखे बंद होने पर भी आँखो के सम्मुख भिन्न भिन्न दृश्य उपस्थित हो जाते हैं । जैसे सिनेमा के पर्दे पर चित्र आते जाते रहते हैं, ऐसे ही उसके मन पर इन्द्रियों के पदार्थ अंकित हो जाते हैं । इस दशा में क्या होता है? वह परमात्मा का ध्यान लगाने के बदले इन्द्रियों के विषयों में रमण करने लगता है, बीती हुई बातों को याद करता है या कल्पना द्वारा दूसरी बातों का विचार करके सुख दुःख का अनुभव करता है तथा इन्द्रियों का रसास्वाद भी लेता है । वह एक ही जगह बैठा हुआ और कुछ भी काम न करता हुआ दिखाई पडता है, फिर भी वास्तव में जाने वह क्या क्या काम करता रहता है । किसी के साथ बातें करता है, तो किसी से घृणा करता है । अच्छे अच्छे व्यंजनो का ज़ायका लेता है तथा काम और क्रोध भी करता है । एकान्त का आश्रय ग्रहण करनेवाले तथा ईश्वर चिंतन के लिए आँखे बंद करके बैठनेवाले कितने साधकों का ऐसा ही अनुभव होता है । इसी तरह कोई आदमी दुनिया की दृष्टि से ब्रह्मचारी हो किन्तु उसका मन कामवासना के रस में डूबा हुआ हो सकता है । इसीलिए कहते हैं कि केवल बाहर का संयम अधूरा होता है । कुछ लोग इस प्रकार के आचरण को मिथ्याचार भी कहते हैं क्योंकि उसमें व्यवहार और मन का समन्वय नहीं होता ।

एकादशी के दिन लोग उपवास करते हैं । किन्तु कभी कभी उसी दिन स्वादिष्ट पदार्थों की चर्चा भी करते हैं जिससे उनके मुंह में पानी भर आता है । इसका परिणाम कभी बुरा हो जाता है और स्वप्न में भी वे खाया करते हैं । इस प्रकार शारिरिक क्रिया बंद हो जाती है पर मानसिक क्रिया चलती रहती है । इस प्रकार के संयम को संपूर्ण संयम कैसे कहा जा सकता हैॽ कुछ लोग तो जान बूझकर त्यागी और तपस्वी होने का स्वांग रचते हैं, जिससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा हो और वह पूज्य माने जाय । ऐसे ही लोगों को बगुलाभगत कहा जाता है । पर जो मनुष्य कपट वेश नहीं धारण करना चाहते और संयम का अभ्यास करने की इच्छा रखते हैं, उनके जीवन और व्यवहार का संयम एक ही समय में सिद्ध नहीं होता । कुछ लोग शुभेच्छा बहुत करते हैं पर आचार व्यवहार में उस पर अमल नहीं कर पाते । कुछ लोग व्यवहार को शुद्ध बना लेते हैं या बाहरी साधन करते हैं पर उनका मन वासनाओं और मलिनताओं का अड्डा बना रहता है । दोनों ही प्रकार के लोग अपूर्ण है और उन्हें साधना या संयम का पूरा आनंद नहीं मिल सकता ।

इसीलिए तुलसीदासजी प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहते हैं –
माधव, मोहपाश क्यों टूटे?
बाहर कोटि उपाय करिये अभ्यंतर ग्रंथि न छूटे,
माधव, मोहपाश क्यों टूटे?

जब तक काम क्रोध लोभ और मोह के महान राक्षस मन के भीतर जमे बैठे हैं तब तक केवल बाहर की साधनाओं से कैसे आत्मिक उन्नति या आनंद की प्राप्ति हो सकती है?

अत: तन के साथ मन का भी संयम साधना चाहिए । याद रखिए कि मन के संयम का भी बहुत मूल्य है । केवल शरीर को शुद्ध और स्वस्थ बनाना काफ़ी नहीं । मन को भी पवित्र, स्थिर और सात्विक बनाना चाहिए । त्याग और उपभोग दोनो में विवेक होना चाहिए ।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)

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