एक मनुष्य ने संन्यास लिया और किसी तीर्थस्थान में जाकर रहने लगा । उसने व्यवहार का त्याग किया और भेष भी बदला । इसलिए उसकी पूजा की जाने लगी । तीर्थ में निवास करके निरंतर प्रभुसेवा करने की उसकी इच्छा थी । तदनुसार उसने प्रभु स्मरण शुरु किया पर उसका ध्यान कई दूसरी बातों की ओर चला गया । उसके आश्रम के सामने एक वेश्या रहती थी । उसके पास कई लोग आते थे यह देखकर संन्यासी को वेश्या से नफ़रत हो गई । एक दिन वेश्या के पास जाकर उसने खूब उपदेश दिया । अरे, तू कैसे पाप में पड़ी है । ऐसा उत्तम शरीर पाकर तूने पाप ही किया है । उस पाप की गठरी बांधकर तुजे कई जन्म तक भटकना पड़ेगा । इसीलिए अब भी संभल जा । प्रभु का स्मरण कर । तभी तेरा उद्धार होगा ।
वेश्या संस्कारी थी इसलिए साधु के शब्द उसके दिल में बैठ गये । उसने पापकर्म बन्द कर दिया और घरमें रहकर हररोज प्रभु का स्मरण करने लगी । लेकिन मिलनेवाले अब भी आया करते थे । उन्हें खुश करने के लिए वह उनके साथ कुछ हाव भाव भी कर लेती, किन्तु उसका दिल सदा दुःखी रहता । वह व्याकुल होकर प्रभु से प्रार्थना किया करती कि हे प्रभु, मुझे इस पाप जाल से छुडाइए । अब दुसरी ओर उस साधु की क्या दशा हुई यह देखेंगे । उसे भजन में दिलचस्पी नहीं रहीं । उसके पुराने संस्कार जाग्रत हुए । सारे दिन वह इसी उघेड़बुन में रहता कि भिन्न भिन्न लोगों के साथ वेश्या क्या क्या लीलाएँ करती होगी । इस विचार से उसका हृदय आनंद की अनुभूति करता, किन्तु वेश्या के यहाँ लोग आते ही रहते । उसे विचार आया कि वेश्या अत्यंत जड़ है, मेरे उपदेश का उस पर कोई असर नहीं हुआ । सचमुच वह नितान्त पापी है । फिर तो उसने सोचा कि वेश्या को उसके पाप का हिसाब दिखाया जाय ।
बस, सुबह उठकर वह आश्रम के द्वार पर बेठ जाता और वेश्या के यहाँ जितने लोग आते उतने पत्थर इकट्ठे करता । रात तक यह काम कुशलता से करता । थोड़े ही दिनों में वहाँ पत्थर का एक बहुत बड़ा ढ़ेर जमा हो गया । इस काम में वह प्रभु को बिलकुल ही भूल गया । इन्हीं दिनों वेश्या का देहांत हो गया । थोडे दिन के बाद संन्यासी की भी मृत्यु हो गई और उसको नर्क में डाला गया । यह देखकर वह दंग रह गया । उसने पूछा, ‘‘वह वेश्या कहाँ है? मेरा स्थान तो स्वर्ग में है । तुम गलती से मुझे यहाँ ले आए हो ।‘‘ दूतों ने उत्तर दिया, ईश्वर के साम्राज्य में कोई गलती नहीं होती । वेश्या पापी थी, किन्तु उसके पिछले जीवन में उसका रहन सहन सुधर चुका था । उसे पाप से घृणा हो गई थी और पाप से छुटकारा पाने के लिए वह प्रभु की प्रार्थना करती रहती थी । इसलिए उस पर प्रभु की कृपा हुई और उसे अच्छे लोक की प्राप्ति हुई । किन्तु तुम्हारी बात दुसरी थी । पाप एवं पापी के प्रति तुम्हे नफरत थी, किन्तु पाप की गिनती करने की कोशिश में अंत समय में तुम्हारा भी मन पाप में रमने लगा था । साधना का मार्ग तुम भुल गए और कुसंस्कार के प्रवाह में बहने लगे । इसलिए तुम्हें नर्क मिला है जब कि वह वेश्या स्वर्ग को चली गई है । इसमें किसी प्रकार की ग़लती नहीं है ।
कुछ लोगों को अपनी इच्छा के खिलाफ़ बुरे प्रकार का जीवन बिताना पड़ता है तो कुछ लोग बड़े शौक़ से उसके शिकार हो जाते हैं । पहले प्रकार के लोग घ्रिणित जीवन बिताकर भी अपनी बुद्धि को सदा जागृत रखते हैं और वे अपनी मजबूरीयों से निकल कर स्वच्छ जीवन में प्रवेश करने के लिए सदा लालायित और प्रयत्नशील रहते हैं । ऐसे लोगों का बाहर का जीवन देखकर उनसे नफ़रत करना उचित नहीं । यह बात सदा याद रखने योग्य है ।
स्वामी विवेकानंद के जीवन में एक विशेष प्रसंग आता है । एक वार एक भोगपरायण धनवान राजपुत्र ने उनको अपने साथ सफर करने का निमंत्रण दिया । उनके साथ बहोत बड़ा रिसाला था । नाचगान का बड़ा शौक होने के कारण उन्होंने एक नर्तकी को भी बुलाया था । रात को जलसा था । उसमें नर्तकी नाचगान करनेवाली थी । यह सुनकर विवेकानंदजी को बहुत दुःख हुआ । उस श्रीमंत पुरुष तथा वेश्या पर नफरत भी हुई । उस जलसे में जाने से उन्होनें साफ और कड़े शब्दों में इन्कार कर दिया । उनके शब्द सुनकर उस नर्तकी को बडा दुःख हुआ पर कुछ बोल न सकी । रात हुई और जलसा शुरु हुआ । विवेकानंदजी उसमें उपस्थित न थे । वेश्या को इसका दु:ख था । उसका दिल रोता था । आख़िरकार जब गाने का वक्त़ आया तब वह गाने लगी कि हे प्रभु, मुझमें अनेक दूषण है, किन्तु उन पर आप नजर न डालिए, आप दयालु हैं, समदर्शी हैं, इच्छा मात्र से मुझे तार सकते हैं, मेरा उद्धार कीजिए, मेरे दुर्गुणों को क्षमा कीजिए ।
यह रहा सुरदास का प्रसिद्ध पद :
प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो !
समदर्शी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ! ... प्रभु मोरे ...
रात की नीरव शांति में उस गीतको श्री विवेकानंदजी ने अपने तंबु में सोते सोते सुना । उसमें अनुराग एवं पश्चाताप का अजीब भाव भरा था । स्वामीजी आसानी से यह समज गए क्योंकि वे त्यागी एवं तपस्वी होने के साथ साथ एक महान कलाकार भी थे । उनका हृदय अत्यधिक प्रभावित हो गया । नींद फिर लौट न सकी । उन्हें अपने कड़े शब्दों के लिए बड़ा पछतावा था । वे तेजी से वहाँ पहुंचे जहां गाना हो रहा था और वेश्या को प्रणाम करके उसके पास बैठ गए । उनकी आंखे भर आई । वेश्या को कितना आनंद हुआ होगा! स्वामीजी के सत्संग से उसके जीवन की कायापलट हो गई । वह स्वामीजी को पूज्य मानने लगी । स्वामीजी का विशाल हृदय तो पहले से ही दीन, दुःखी तथा अनाथों के प्रति अनुकंपित था । उस वेश्या के लिए भी दया क्यों न होती?
इस दोनों दृष्टांतो का तात्पर्य यह है कि केवल बाहरी आचार से ही किसी व्यक्ति का मूल्य नहीं आंका जा सकता । उसकी मनोदशा को भी ध्यानमें रखना पडता है । यदि लोग बाहर से स्वच्छ दिख पड़ते हो तथा अच्छी तरह आचरण भी करते हों किन्तु उनके अंदर कामना तथा वासना अठखेलियां करती हों और उनका हृदय रातदिन मलिन रहता हो, तो जरूर समज लेना कि उनकी दशा करूण एवं दूषित है । मनुष्य को अंदर और बाहर दोनों ओर से पवित्र बनना है । कर्मयोग को समज़ने के लिए यह बात महत्वपूर्ण है । गीता कहती है कि यदि बाहर से कर्म का त्याग कर दो और भीतर से मन काम करता रहे, तो उससे कोई विशेष लाभ नहीं । उस हालत में तुम्हारा त्याग निर्बल एवं सत्व रहित होगा । अतः उत्तम तो यह है कि जिस प्रकार बाहर से कर्म का त्याग करते हो, उसी प्रकार अंदर से भी करो । जिस वस्तु का त्याग करो उसकी लालसा या कामना का भी धीरे धीरे मन से त्याग कर दो । विषयरस से अनासक्त मन को परमात्मा के ध्यान या विचार में लगा दो । यदि ऐसा नहीं कर सकते तो फिर कर्म किये जाओ । लेकिन कैसे? आंखे बंद करके नहीं बल्कि विचारपूर्वक । मन पर संयम रखो और आवश्यक कर्म करो लेकिन कर्म में डूबकर होश मत गवाना ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)