घर में जिसके सिर रसोई की जिम्मेदारी है उसका काम भारी है । कुछ स्त्रियों का मन रसोई बनाने में नहीं लगता । उनकी इच्छा वही रहती है कि उन्हें पकी पकाई रसोई मिल जाय किन्तु सबकी तकदीर ऐसी कहां से हो सकती है? किसी न किसी को तो रसोई बनानी ही पड़ेगी । बहुत सी औरतें रसोई बनाती तो हैं पर उसे भार या बेगार समझकर । फलतः उन्हे आनंद नहीं मिलता । इसका कारण है भावना की कमी । भावना का संबंध कार्य से जोड़ना सीखिए । रसोई बनानेवाले को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उसे एक आवश्यक और महान सेवा करना है । रसोई एक यज्ञ है । घी और तेल द्वारा होनेवाले यज्ञ तो कभी कभी ही होते हैं किन्तु रसोई का या चूल्हा-यज्ञ तो हमेशा चालू रहता है । जिस प्रकार पुराने ऋषिओं के वहां यज्ञ की अग्नि कभी बुझती नहीं थी, उसी तरह ऐसे कितने घर हैं जहां चूल्हा-यज्ञ की अग्नि चौबीस घंटे सुलगती रहती है । यज्ञ से स्वर्गादि मिलते हैं, ऐसा कहा जाता है, किन्तु चूल्हा-यज्ञ से तो तुष्टि और पुष्टि फ़ौरन मिलती है । इसी यज्ञ पर तो मानव का समस्त जीवन टिका है । मनुष्य के उदर में जो यज्ञ चलता रहता है उसकी तृप्ति के लिए यह यज्ञ आवश्यक है । इस लिए रसोई करनेवाले कितनी बड़ी सेवा करते हैं इसका ख़याल कीजिए । वे यदि यज्ञ करें ही नहीं तो सभी यज्ञ बन्द हो जाये । रसोई बनानेवाला यदि इस भावना को हृदय में रखकर अपना काम करे तो उसे आनंद मिलेगा । अगर वह मन में यह धारणा जमा ले कि घर के सभी सभ्य ईश्वर के प्रतिनिधि हैं और उनकी सेवा का सौभाग्य उसे मिला है, तो उसकी चिड़चिडाहट दूर हो जायगी और उसे निराले सुख का अनुभव होगा । रसोई का काम एक बेगार या तुच्छ क्रिया बनने के बजाय जीवन विकास की साधना या योग बन जायगा ।
गाँव में या शहर में सफाईकाम करनेवाला भी अपने काम को योगमय बना सकता है । उसे अपने काम के महत्व को समझना चाहिए । गंदगी दूर करके वह नगर की स्वच्छता में अपना नम्र योगदान दे रहा है । यह भाव मन में रखकर यदि वह काम करे तो वह यज्ञमय हो जायगा । शिक्षकों का काम बहुत अच्छा है । नई प्रजा के निर्माण में उनका योगदान कम नहीं । कुछ शिक्षक इस बात को बिलकुल भूल गए हैं इसलिए उनकी दशा यंत्रवत हो गई है । विद्यार्थीओं को डाँट-डपटकर या पीट कर अपनी निर्बलता का परिचय देते हैं । साथ ही शिक्षा के जिम्मेदारीपूर्ण कार्य के लिए वे कितने अयोग्य हैं, ऐसा ज़ाहिर करते हैं । यज्ञ की भावना से काम करनेवाला शिक्षक सदा इस बात का स्मरण रखेगा कि जो काम वह कर रहा है, राष्ट्र के लिए उपयोगी हो । बालकों और विद्यार्थीओं को वह प्रभु का स्वरूप समझकर प्यार करेगा । भगवान के जीते जागते मंदिर का पुजारी बनने का सौभाग्य उसे मिला है इसके लिए वह प्रभु का सदा आभारी रहेगा । क्रोध, धिक्कार तथा तिरस्कार की भावना से मुक्त होकर वह बालकों के साथ शांति और प्रेम से बर्ताव करेगा । वह इस बात से सावधान रहेगा कि बालकों की दृष्टि में बाघ और सिंह के समान न दीखने लगे । दयालु माता और स्नेही पिता से भी अधिक नवजीवन का निर्माण करनेवाला गुरु बनकर वह उनके हृदय में घर कर लेगा । वह केवल वेतन के ही लिए शिक्षा नहीं देगा । वेतन चाहे कुछ भी मिले, पढ़ाना लिखाना उसका धर्म होगा । इस प्रकार शिक्षा उसके लिए साधना हो जायेगी और समाज की सेवा करने के साथ साथ वह अपना भी उद्धार कर सकेगा ।
डाकटर भी अपने काम को यज्ञमय बना सकते हैं । यज्ञ की भावना सभी कर्मो में मिलाई जा सकती है । डाकटरों का ध्यान प्रायः धन संचित करने में ही होता है, ऐसा कहा जाता है । यदि वह सच है तो मानवजाति के लिए अफसोस की बात है । अपने पास जो जानकारी है, कुशलता है, उसका उपयोग करके अधिक से अधिक कल्याण करने के लिए डाकटर को तैयार रहना चाहिए । समाज या समष्टि का क्ल्याण करने में अपना भी क्ल्याण है । अमीर ग़रीब, छोटें बड़े, सभी की सेवा, बिना किसी भेदभाव के करने के लिए उसे तत्पर रहना चाहिए । दुःखी या रोगी बनकर ईश्वर ही उसके पास आता है और सेवा की याचना करता है, ऐसा उसे समझना चाहिए । ऐसी सेवा भावना से उसका काम उत्तम हो जायगा और आध्यात्मिक दृष्टि से भी उसके लिए हितकर साबित होगा ।
इसी प्रकार जीवन के सब कार्यों को समझ लेना चाहिए । दैनिक व्यवहार के मामूली कर्म भी भावना सहित करने से यज्ञमय हो जाते हैं । मल त्यागना एक साधारण कर्म है लेकिन उसे भी तुम असाधारण बना सकते हो । मल का विचार करके यह धारणा बनाओ कि शरीर इस मल का घर है । बाहर से वह अच्छा दीखता है लेकिन अंदर से तो नितांत अशुद्ध है, दिन प्रतिदिन अधिक गंदा ही होता जाता है । ऐसे शरीर की ममता रखने से क्या लाभ? दो ही बातों के कारण शरीर मूल्यवान है । एक तो उससे पूर्णता प्राप्त करके भगवान का दर्शन कर सकते हैं । दूसरे उससे किसीका हित कर सकते हैं । इस शरीर के द्वारा यह दोनों सिद्ध करने चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु, शरीर के रंगराग और आकर्षण में हमारा मन न फंसे, हमारे या किसी दूसरों के शरीर में हमें ममता न पैदा हो और इस शरीर के द्वारा आपकी प्राप्ति करने के साथ ही किसी की सहायता हो सके, ऐसा आशीर्वाद हमें दीजिए । स्नान करते समय ऐसी भावना रखो कि बाहर की और अंदर की सब गंदगी पानी से धुल जाती है । तुम्हारी काया पवित्र हो जाती है । इस काया से अब कोई बुरा कर्म या अपराध नहीं होगा, कोई पाप नहीं होगा । इस काया का उपयोग ईश्वर तथा उसकी सृष्टि के लिए ही होगा । खाने की क्रिया बिलकुल मामूली है पर उसे भावना युक्त बनाकर जीवन के विकास के लिए यज्ञ के समान बना सकते हैं । खाने से पहले और खाते समय भावना रखो कि भोजन प्रभु का प्रसाद है । वह शरीर के अंदर पहुंचकर उत्तम लहू बनेगा जिससे शक्ति मिलेगी और शरीर समृद्ध होगा । शरीर में उल्लास, यौवन और ताज़गी आयगी । शरीर व्याधि रहित होगा, मन भी स्वस्थ और मजबूत होगा, उत्तम विचार एवं भावना से पूर्ण हो जायगा । इसके द्वारा अपने जीवन के विकास में तथा दूसरों की सेवा में मदद मिलेगी । ऐसी भावना करो कि भोजन को शरीर में बिराजमान परमात्मा को अर्पण कर रहे हो । ऐसी भावना करने से खाने की क्रिया का स्वरूप ही बदल जायगा । वह यज्ञ या योग बन जायेगी । क्रिया चाहे कितनी भी साधारण क्यों न हो, उसे प्रेरित करनेवाली भावना के कारण वह महान बन जायगी । भावना करने की यह कला सीख लो तो जीवन में रसगंगा प्रकट हो जायगी और तुम घर बैठे सब प्रकार के कर्म करनेवाले योगी बन जाओगे ।
जरा विचार तो करो । बेर इकट्ठे करने का कार्य कितना मामूली है, पर यही काम आत्म भावना का योग हो जाने से शबरी के लिए महान साधना का एक अंग बन गया । बेर बीनते बीनते शबरी सोचती थी कि एक दिन मेरे प्रभु मेरे घर जरुर पधारेंगे और उनके चरणो में यह बेर अर्पित करुंगी । प्रभु खाएंगे और तृप्त होंगे । मेरे राम के लिए मीठे बेर ही इक्ट्ठे करने चाहिए । इस बिचार से बेरों को चख चखकर वह जमा करती जाती थी । जूठे बेरों को इक्टठा करने का काम भी उसके लिए रसमय और यज्ञमय हो गया था क्योंकि यह काम राम ही के लिए होता था । राम की स्मृति उसके लिए आनंद के अखंड ख़जाने के समान थी । इस स्मृति को ताज़ा रखकर उसने दिवस नहीं अनेकों वर्ष तक राम की प्रतीक्षा की और बेरों को इकट्ठा करती रही, फिर भी उसे न तो थकान हुई और न उसका मन उबा । इस प्रकार काम करो तो उब पेदा नहीं होगी और काम नीरस न लगेगा । काम छोटा हो या कष्टदायक हो तो भी उसे ईश्वर का समझो । ईश्वर की सेवा तथा प्रसन्नता की भावना से उसे करो तो वह रसपूर्ण बन जायगा और तुम्हारी शुद्धि करके तुम्हें उपर भी उठाएगा । इस प्रकार उसका मूल्य बढ़ जायगा और वह कर्म योग बन जायगा । हम कर्म करते तो हैं किन्तु प्रायः अपने स्वार्थ के लिए । हमारे कर्म स्वार्थ की गंध से रहित शायद ही होते हैं । कर्म के द्वारा अपनी शुद्धि का तथा ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयोजन भी हमारे दिल में नहीं होता । फलतः कर्म हमारे जीवन में साधक नहीं बल्कि बाधक बन जाता है । हमारी तरह हमारे कर्म भी यंत्रवत और जड़ बने रहते है, नीरस होते है और कष्टप्रद बन जाते है । ऐसे कर्मों की जो शृंखला होती है वह लोहे की ज़ंजीर से भी अधिक कठोर और मज़बूत होती है । उसमें हम बंधते चले जाते हैं । प्रभु ने हमको जो बुद्धि और भावना दी है उसका उपयोग न करने से ही जीवन का नाटक कष्टप्रद और करुण बन गया है ।
कर्म में यज्ञ की भावना मिला देने से एक दुसरा लाभ यह होता है कि आदमी स्वार्थी या इकलसुरा नहीं हो जाता । अपने पास जो कुछ है उसका उपयोग अपने लिए ही न करके दुसरों को भी उससे यथासंभव लाभ पहुँचाने से मनुष्य तत्पर हो जाता है । संपत्ति और शक्ति एक ही जगह इकट्ठी नहीं हो जाती है बल्कि समाज में घूमती रहती है और सब के काम में आती है । अतः घर्षण व वर्गविग्रह नहीं होते । मनुष्य केवल अपने सुख से ही संतुष्ट नहीं होता बल्कि दुसरों के सुख को भी अपना सुख समझता है और उसके लिए प्रयत्नशील होता है । दुसरों के सुख के लिए मार्ग बनानें में गौरव का अनुभव करता है । अपने ही उत्थान और कल्याण के मंत्र का जाप करने के बदले वह सबके उत्थान और मंगल का साधक बनता है । संसार में यदि सभी मनुष्य यज्ञ की भावना सें कर्म करें तो दुनिया सचमुच ही स्वर्ग बन जाय । सब तो क्या अगर थोडे आदमी भी यज्ञ भावना को पचाएँ या व्यवहार में प्रयोग करें तो संसार की सूरत ही बदल जाय ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)